विचार

2019 जाते-जाते उस बालकांड का अंत हो गया, जो 1947 में संविधान की गोद में बैठे देश ने देखा-जिया था!

चुनावों को लेकर जनता के बीच जो एक मासूम गांधीवादी आदर्शवाद था, यह विश्वास था कि जिनको वह अभिभावक बना रही है, वे संविधान की रक्षा करेंगे, 2019 में दरक रहा है। साल ने जाते-जाते उस बालकांड का अंत कर दिया है, जो 1947 में संविधान की गोद में बैठे देश ने जिया था।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

पिछली सदी के उत्तरार्ध में वरिष्ठ संपादक स्व. राजेंद्र माथुर ने एक चुभता हुआ सवाल उठाया था। कोई देश किस तरह बनता है? कैसे वह कायम रहता है? ठंडे सोच विचार से? हित-स्वार्थों की चतुर समझदारी से? राष्ट्रीयता की वैज्ञानिक समझ से? या वह सिर्फ एक जुनून, एक भावनात्मक अंधड़ या इतिहास की भट्टी में पकी और जातीय मटकों में सीझी शराब है?

इक्कीसवीं सदी के दो दशक पूरे होने को हैं। इस समय भारत भाग्यविधाताओं से सीधे पूछना ही होगा कि विविधताओं के पिटारे भारत जैसे संघीय गणतंत्र को गर्म आवेश या ठंडे तर्क से किस हद तक, किस-किस मात्रा में गढ़ा जा सकता है? क्या साल दर साल बस चुनावी हानि-लाभ का चतुर हिसाब-किताब बिठाते हुए, जोड़-तोड़ और सीटों के गणित से भारत जैसे विशाल राष्ट्रराज्य का कोई एकदम नया खाका बनाया जा सकता है?

2019 की शुरुआत ही आम चुनावों की तैयारियों के बीच हुई जब चुनावी बांड नाम का एक गोपनीय चुंबक चुनावी चंदे की पाताली गंगा को खास दिशा की ओर ले गया जहां (आरटीआई से बाद को मिले ब्योरों के अनुसार) वह सत्तारूढ़ दल को आप्लावित कर गई। इसके बाद वैज्ञानिक तर्क को आगा पीछा सोचे बिना मिथकीय हिंदू भट्टियों में गलाकर हिंदुत्व का एक स्वर्णमृग गढ़ा और फिर डिजिटल तकनीकी और सोशल मीडिया की मार्फत देश को बेचा गया। जैसे यह भी कम न था, 2019 चुनावों से ठीक पहले बालाकोट घटना के नाम पर पाकिस्तान की सीमा के भीतर एक कथित सर्जिकल स्ट्राइक की गई और उससे भरपूर पब्लिसिटी ली गई, जो वोटों में तब्दील की गई। लेकिन इसकी दीर्घकालिक कीमत पर बोलने वाला कोई नहीं था।

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

विपक्ष अपनी हार के घाव सहला ही रहा था कि हुंकार सहित राजनीति में अनुच्छेद 370 के जिस नाज़ुक सवाल को सयाने राजनेता पिछले सात दशकों से बहुत सावधानी से परे रखे हुए थे कि घाटी के लोगों को भारत से अलगाव की कोई जायज़ वजह न मिले, उसे एक दिन रातोंरात गवर्नर की अनुकंपामय सलाह से बीच चौराहे पर लाकर ताम झाम सहित विसर्जित कर दिया गया। अनुच्छेद 370 हटाकर जिस तरह काश्मीर राज्य को दोफाड़ किया गया, उससे देशभर में, खासकर अल्पसंख्य मुस्लिम समुदाय के बीच लगातार एक असहज वातावरण गहराता गया। बालाकोट का दुस्साहसी प्रयोग लहने से बीजेपी को आम चुनावों में भारी सफलता मिली लेकिन विजय गर्व के बीच नेतृत्व यह देख नहीं सका कि साल भर के भीतर बहुसंख्यस मुदाय और अल्पसंख्यकों के जुनून और सरोकार, मिथक और सपने सभी अलग होते चले गए हैं।

इतिहास की गति सीधी नहीं चक्रीय होती है। आज से ठीक दो सौ बरस पहले 1919 में अंग्रेज भारत में दमनकारी रॉलेट कानून लाए थे। उसके खिलाफ गांधी जी ने ‘सत्याग्रही’ पत्र निकालकर उस काले कानून के खिलाफ वैसा ही सत्याग्रह नाम नया मोर्चा खोला था जैसा आज नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ छिड़ा है। 2019 गांधी जी की 150वीं शती का साल था। विडंबना देखें कि इसी बरस देश के रखवालों ने गांधी के हत्यारे गोडसे और अंग्रेज़ों से माफी मांगने वाले सावरकर का सिलसिलेवार महिमामंडन शुरू कर दिया। चरम परिणति हुई है नागरिकता संशोधन विधेयक से जिसने धर्म को नागरिकता पहचान की अकाट्य शर्त बनाकर गांधी के ‘स्वराज’ का मतलब हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग टुकड़ों में परिभाषित कर दिया है।

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

संसद से रामलीला मैदान तक, पेरिस से वाशिंगटन तक नए कानून की तारीफ और गांधी को शत शत नमन करने वाले नवगांधीवादी शायद कतई नहीं जानते कि गांधी ने, नेहरू ने, बाबा साहिब ने संविधान, जाति, राम-रहीम, सत्य-अहिंसा, गाय, गंगा, खादी या चरखे पर जो लिखा है क्या वे महज़ हिंदू विचार थे? नहीं। गांधी मानते थे कि आज़ाद भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाकर ही एकजुट रखा जा सकता है और एक साझा मिथकावली रहित देश नहीं बना करते। पर उनके लिए जो छवियां प्रतीकात्मक थीं, 2019 में बीजेपी उनका बहुत दुनियादारी से लगातार बड़ा ही सतही उपयोग कर रही है। स्वच्छ भारत अभियान को तो गांधी के चश्मे से पहले ही जोड़ा जा चुका है और साबरमती में चरखा कातते प्रधानमंत्री की छवि के कलेंडर भी छप चुके हैं।

आज जिस समय कश्मीर से कन्याकुमारी और पंजाब से असम तक सड़कों पर शांतिपूर्ण तरीके से गांधीवादी सत्याग्रह करके भी जनता पुलिसिया दमनकारिता की शिकार बन रही है, नेहरू-गांधी परिवार को पानी पी-पीकर कोसना तो इस गायनमाला की टेक रही ही है। सबसे सांघातिक बात यह कि जिस हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक गांधी हैं और जिसके लिए वे बलिदान हुए, उनकी 150वीं जयंती के समापन की घड़ियों में धर्मनिरपेक्ष संविधान के प्रावधानों को अमान्य घोषित कर मुसलमान शरणार्थियों को दीमक बताकर अस्वीकार करने का घोष करने वाली पार्टी के अलमबरदार, अपने कंधों पर लाखों की कीमत का कश्मीरी शाल डाले हुए गरीबों के प्रति रामलीला मैदान में चिंता जता रहे हैं। गांधी की विरासत का इससे बड़ा और ऐतिहासिक उपहास और क्या होगा?

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

2019 के जाते-जाते कश्मीर घाटी पर तालाबंदी कायम है। कब उठेगी, कब वहां चुनाव होंगे यह अस्पष्ट है। अलबत्ता यूपी के कई शहरों में भी कर्फ्यू जैसे हालात हैं, और पुलिस के अनुसार दर्जन से अधिक लोग इस दौरान मारे गए जिनमें से अधिकतर के पुलिस की गोली से मारे जाने की खबर है। इन तमाम खबरों से जनता विचलित न हो, इसके लिए रोज कहीं न कहीं नेट पर, मीडिया पर पाबंदी लग रही है, और हम आज दुनिया में नेट पर सबसे लंबी पाबंदी लगाने वाले देश का शर्मनाक खिताब पा चुके हैं।

जिस समय देश भीषण मंदी और पर्यावरण संकट से जूझ रहा था, सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर के देशव्यापी अभियान किसलिए इतनी तेजी से लाए गए? इनके पीछे क्या कोई आवेश था? या मातृसंस्था का आदेश? या धर्मनिरपेक्ष भारत के संघीय ढांचे को बाबरी की तरह ढहाकर उसकी जगह कोई हिंदू राष्ट्र बनाने का गोपनीय लंबा ढांचा खड़ा करने का कोई सपना बुना जा चुका है, जिसे चरण दर चरण खोला जा रहा है? क्या 2019 के कई राज्य विधानसभा चुनावों में मात खा चुके संघ और सरकार दोनों को धर्मसापेक्ष भारत की स्थापना की शायद जल्दी थी, लिहाजा बिना सही लोकतांत्रिक बहस-मुबाहिसे के, बिना संसदीय स्थायी समितियों में किसी सघन पड़ताल के, बिना देश काल या परिस्थितियों को परखे, लोकसभा और राज्यसभा में संख्या बल से जीतकर सरकार ने विधेयक को तुरत-फुरत कानून बनवा लिया? सच क्या है? फिलहाल नया कानून सर्वोच्च अदालत तक चला गया है, जहां से इसे अपेक्षित स्थगनादेश नहीं मिला। अलबत्ता विचार व फैसला अगले बरस आने की घोषणा की गई है।

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

अर्थव्यवस्था पर आइए। वह बेचारी तो 2019 की शुरुआत तक नोटबंदी से ही न उबर पाई थी, कि जीएसटी के लचर तरीके से लागू करने से वह फिर सन्निपात की अवस्था में वापस चली गई। 2019 के आम चुनावों में बहुमत से जीतकर दिल्ली के तख्त पर दोबारा बैठी सरकार की कई कोशिशों के बाद अब खुद उसके ताबेदार नौकरशाह और आर्थिक विशेषज्ञ कह रहे हैं कि मंहगाई बढ़ रही है और अर्थव्यवस्था की रीढ़ सकल उत्पाद दर, जिसे 8 फीसदी तक जाने की उम्मीद थी, 2013 के बाद अपने सबसे कमजोर मुकाम पर आकर 4.3 पर भी नहीं थम पा रही।

पूर्व वित्तमंत्री के निधन के बाद जब तक निर्मला सीतारामन की पद पर नियुक्ति हुई, केंद्रीय बैंक से तरह-तरह के द्रविड़ प्राणायाम कराए जा चुके थे फिर भी कुछ प्रमुख काम अधबीच छोड़कर चले गए। नातजुर्बेकार नई वित्तमंत्री निर्मला सीतारामन ने अपने अग्निगर्भा तेवर दिखाकर भी दशा में बदलाव होते न देखा तो कदम पीछे हुए। बढ़ा दिए गए कॉर्पोरेट कर कुछ कम किए गए, गाड़ियों की खरीदी पर छूट भी दी गई, सरकारी बैंकों के चिंताजनक तौर से खाली होते कोषों को भरा गया। पर मीरा बाई के शब्दों में, ‘मूरख वैद मरम नहिं जाणा, करक कलेजे मांह’। अर्थव्यवस्था को जो मार्मिक चोट लगी थी वह चूरन या अवलेह से कैसे सुधरती? फैक्टरियां लगातार बंद हो रही हैं, कोर सेक्टर यानी स्टील, सीमेंट, ऊर्जा सब खस्ता हाल हैं और बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है।

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

केंद्रीय बैंक (जो तीन गवर्नर अधबीच में खो चुका है) ने उखड़ती मुद्रा पर काबू पाने के लिए 5 बार कर्ज दरों में कमी की, पर बैंक पुराने अनचुकाये लोन के भगोड़ों से त्रस्त हैं और उधारी देने में हिचकिचा रहे हैं। अपनी पूंजी से उद्योगपति नए उपक्रम लगाना नहीं चाहते और अपेक्षित बाहरी निवेश भी नहीं आ रहा है। उल्टे देश से पूंजी पलायन बड़े पैमाने पर होने की खबर है। 2019 चुनावों की पूर्व संध्या पर बहुप्रचारित दो सरकारी योजनाओं में अब ‘उज्जवला’ योजना में कैग ने भारी घोटाले उजागर किए हैं, और स्वच्छ भारत अभियान की तहत बनवाए गए शौचालयों का भी ग्रामीण इलाकों में रखरखाव और पानी की कमी से बुरा हाल पाया गया है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे नारे भी रेप और कार्यक्षेत्र की असुरक्षा के चलते बेमतलब बनते जा रहे हैं। संगठित क्षेत्र की शिक्षित महिला कामगरों की तादाद में भी 11 फीसदी गिरावट आ गई है। असंगठित क्षेत्र जहां 90 फीसदी महिलाएं कामगार हैं ,उसकी तो छोड़ ही दें ।

कंगाली में आटा गीला कहावत को चरितार्थ करते हुए 2019 में भारत (ग्लोबल पर्यावरण क्षरण की सीढ़ी पर यूएन की ताजा रपट के अनुसार) दुनिया के 181 देशों में 5 सर्वाधिक दुष्प्रभावित देशों में से एक बना। रपट कहती है कि पर्यावरण प्रदूषण और घातक कार्बन उत्सर्जन से मुक्ति नहीं मिली तो जनसंकुल देश 2020 में 5 महानगरों में भीषण जलसंकट देखेगा और 2030 तक घटती कृषि उपज, बढ़ते समुद्री जलस्तर और असामयिक बाढ़ या तूफानों के मारे शरणार्थियों की भारी आबादी के दबाव से अमीर गरीब सबके जीवन पर एक सरीखा खतरा मंडराएगा। ऐसे समय में आम जन पहले चुने हुए नेतृत्व या फिर बुद्धिजीवियों और आजाद मीडिया से राह दिखाने की उम्मीद करता है।

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

पर 2019 की जीत के बाद से देश की जनता या मीडिया का अपने नेतृत्व से सहज दुतरफा संवाद लगातार असंभव बनता गया है। अगर प्रश्न पूछना देशद्रोह और राजनैतिक फैसलों की आलोचना राजद्रोह माना जाने लगे तो यही होगा। जीत के बाद अपने पहले प्रेस सम्मेलन में भी प्रधानमंत्री खामोश रहे। तब से उनके विचार इकतरफा तरीके से उनके साप्ताहिक कार्यक्रम मन की बात में ही सुनाई देते हैं, जिनमें देश की कुल आबादी के 14 फीसदी अल्पसंख्यकों के मन में घुमड़ रहे तमाम सवाल शायद ही कभी गहराई से छुए जाते हों। गृहमंत्रीजी ही लगातार इस किस्म के जरूरी मुद्दों पर बोलते दिखे और जो विचार उन्होंने व्यक्त किए, वे बहुसंख्यकों को ही अधिक लक्ष्य में रख कर कहे गए थे।

2019 में चीन, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका सबके साथ भारत के व्यापार और प्रतिरक्षा के मोर्चों पर बहुत कुछ हुआ पर बहुचर्चित राफेल विमानों की पहली खेप खरीदने के अवसर पर तिलक लगाते, नींबू-मिर्च से विमान की नजर उतारते प्रतिरक्षा मंत्रीजी फ्रांस में दिखे भर, सुनाई लगभग नहीं दिए। यही हाल जब तक वे रहीं, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का था। नए विदेश मंत्री का अमेरिका सत्ता से रसूख अच्छा बताया जाता है, लेकिन वह सत्ता इन दिनों महाभियोग के फेरे में है। अमेरिकी सीनेट के शिष्टमंडल से मिलने से विदेश मंत्री जी का साफ इनकार जिसकी वजह उसमें एक कश्मीर नीति पर भारत की अलोचक रही, सीनेटर का बुलाया जाना था, विदेशों में भारत सरकार की असहिष्णुता का ही चिन्ह माना जा रहा है, आत्मरक्षा का राजनयिक पैंतरा या व्यावहारिकता नहीं।

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

मीडिया की शीर्ष निगरानी संस्था प्रेस काउंसिल ने भी कश्मीर मुद्दे पर मीडिया की आजादी की मांग करने की बजाय सरकार द्वारा उसके नियामन को राष्ट्रहित में सही ठहराया। डिजिटल मीडिया को छोड़कर मुख्यधारा मीडिया की मिल्कियत चूंकिआज लगभग पूरी तरह से बड़े औद्योगिक घरानों के हाथों में सिमट चुकी है। मालिकान पर दबाव डालकर योजनाबद्ध तरीके से मीडिया को बधिया किया गया और टीवी के खबरिया चैनलों में पार्टी प्रचारकों के पैनल और स्वामिभक्त खबरची बिठलाये गए। नतीजा सामने है | देश जल रहा है और मुख्यधारा मीडिया पर जनता का भरोसा नहीं रहा |

राम मनोहर लोहिया ने एक बार कहा था कि जिंदा कौमें पांच बरस तक इंतजार नहीं करतीं | सो 2019 के आखिरी माह में देश की युवा पीढी (जिसकी तादाद अब कुल आबादी की 50 फीसदी तक चली गई है), हरकत में आ गई | बड़े नेताओं या मीडिया बंधुओं की सरमायेदारी बगैर दिल्ली के केंद्रीय विवि जामिया मिलिया इस्लामिया के युवाओं का कैंपस से शुरू हुआ छात्र आंदोलन नारे लगाता परचम लहराता सड़क पर आ गया है। खुद शर्मसार मीडिया भी अब कह रहा है कि यह पूरी तरह शांतिमय था। पर जिस भी बात के लिए वह सुख्यात हो, मौजूदा केंद्र सरकार अपनी सहिष्णुता के लिए तो नहीं ही जानी जाती। लिहाजा लाठी लहराते, आंसू गैस के गोले छोड़ते पुलिसिया दस्ते उनको दौड़ाने लगे। उनका पीछा करते हुए वे न सिर्फ बिना इजाजत कैंपस में घुसे, वहां लाइब्रेरी से परिसर तक में काफी तोड़-फोड़ और कमरों या लाइब्रेरी में पढ़ रहे कई बेगुनाहों की मार-पिटाई भी कर गए।

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

मीडिया को यदि रेटिंग्स बढ़ानी थी तो वह भी उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता था। इसी के साथ कई राज खुलने लगे। इंटरनेट के युग में अपनी पढ़ाई के बूते नए मीडिया को भली तरह समझने वाले छात्रों ने बहुत अच्छी तरह से अपना पक्ष दुनिया के सामने रखना शुरू कर दिया। तर्क भी उनके पक्ष में थे और छवियां भी। यह सारी रपटें वायरल होनी ही थीं। फिर तो देशभर में प्रदर्शन शुरू हो गए।

कुल मिलाकर लगता है साल 2019 में देश ने एक चक्र पूरा कर लिया है जो 1919 में गांधी के असहयोग आंदोलन से शुरू हुआ था। आप आशावादी हैं, तो उसे एक वयस्क और पोढे बनते लोकतांत्रिक गणराज्य का अनिवार्य अनुभव चक्र कह सकते हैं। चुनावों को लेकर जनता के बीच जो एक तरह का मासूम गांधीवादी आदर्शवाद था, यह विश्वास था कि जिनको वह अभिभावक नियुक्त करने जा रही है, वे हर चंद देश के संविधान की रक्षा करेंगे, 2019 में दरक रहा है। नई सरकार बनने के क्षणों में प्रधानमंत्री की संसद के बाहर रखे संविधान पर मत्था टेके छवियां कब की मिट गईं। 2019 ने जाते-जाते एक तरह से उस बालकांड का अंत कर दिया है जो 1947 में संविधान की गोद में बैठे देश ने देखा-जिया था।

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

2020 में देश के लिए एक नए अनुभव चक्र की शुरुआत होने जा रही है। देश ने यह सीख लिया है कि ताकत की चतुर तलाश और लच्छेदार भाषणबाजी की भी सीमाएं होती हैं और आज की सत्ता की अतिशय चतुराई से जनता ऊब रही है। अनुभवों की दुनिया के किस दरवाजे पर भारत खड़ा है, यह तो सड़कों पर उतरे हमारे नई सदी के नए मतदाता नहीं जानते, पर उनमें हमारी पीढ़ी से अधिक भरोसा है, कि अपनी मर्जी का देश गढ़ने के लिए उनको अपने अभिभावकों की तरह आंख मूंदकर नेताओं या मुख्यधारा के मीडिया पर भरोसा करने की जरूरत नहीं। खुद उनमें नई सूचना तकनीकी के जानकारों की सहज क्षमता भी है, और भावुकता से परे जाकर भारत की एकता में विविधता का केंद्रीय महत्व समझ सकने वाली दृष्टि भी। नरम से क्रूर और क्रूरतम तक जाते दलों को भी वे परख चुके हैं।

फिर भी देश को अखिल भारतीय पीठिका की तरह एक राष्ट्रीय पार्टी का विकल्प चाहिए ही। सवाल यह है कि क्या विकल्प की बतौर कांग्रेस एक बार फिर एक अखिल भारतीय पार्टी के रूप में खड़ी हो सकती है? क्या वह फिर संस्थागत तानाबाना कायम कर सकेगी जहां जड़ों से जुड़ी वह जिला कांग्रेस और प्रदेश, अपना नेतृत्व बेझिझक मुखरता से चुन सकें? और सबसे बड़ा सवाल यह, कि जो नया नेतृत्वअब कांग्रेस में उभरेगा वह शिव की तरह विकृत दक्षिणपंथी राजनीति के उत्सर्जित देशव्यापी हलाहल को अपने कंठ में रोकने को तैयार है या नहीं?

Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST

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Published: 30 Dec 2019, 9:17 PM IST