विचार

आकार पटेल का लेख: हम बांग्लादेश से भी पछड़ गए हैं, पर मीडिया-सत्ता तो एक एक्टिविस्ट की गिरफ्तारी से ही उल्लासित है

विश्व गुरु बनने के लिए भारत को अपने लोगों को गरीबी से बाहर निकालने और समृद्धि में लाने के लिए बहुत मेहनत करनी होगी। बांग्लादेश से कदमताल के लिए भी बहुत काम करना होगा। लेकिन जब सिर्फ एक ट्वीट के आधार पर एक्टिविस्ट को जेल भेजे जाने से मीडिया-सत्ता उल्लासित हो, तो क्या ऐसा करना आसान होगा?

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

पूरी दुनिया में प्रति व्यक्ति जीडीपी 12,200 डॉलर प्रति वर्ष है। भारत के रुपए के हिसाब से देखें तो करीब 9.6 लाख रुपए प्रतिवर्ष या करीब 80,000 रुपए प्रति माह। यानी अगर पूरी दुनिया की जीडीपी, सभी वस्तु और सेवाओं को पूरी दुनिया की आबादी से विभाजित करें तो यह संख्या सामने आती है।

2013 में बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी 981 अमेरिकी डॉलर थी जबकि भारत में प्रति व्यक्ति जीडीपी 1449 डॉलर। भारत की यह बढ़ते हमेशा से रही और भारत हमेशा बांग्लादेश से आगे रहा। दरअसल जब 1971 में पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश का जन्म हुआ तो कई लोगों को लगता था कि यह देश बहुत दिन तक चल नहीं पाएगा, यानी आर्थिक तौर पर इसके पास इतने संसाधन या उपाय नहीं होंगे कि यह अपने आप को अस्तित्व में रख पाए। अमेरिका के मशहूर विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर तो बांग्लादेश को “बास्केट केस” ही कहते थे।

इधर 2014 के बाद से बांग्लादेश ने कई मामलों में भारत से प्रतिस्पर्धा की और आगे निकल गया। 2016 में भारत और बांग्लादेश के आंकड़े लगभग बराबर (1679 और 1732 डॉलर) थे। लेकिन इसके बाद बांग्लादेश आगे निकल गया। 2021 आते-आते विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी 2503 डॉलर और भारत की 2277 डॉलर हो गई। आज बांग्लादेश औसत प्रति व्यक्ति हर साल करीब 2 लाख रुपए कमाता है जबकि भारत में यह 1.8 लाख प्रति व्यक्ति है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का कहना है कि आने वाले समय में बांग्लादेश भारत से और भी आगे निकल सकता है।

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अब एक और चीज पर ध्यान देने की जरूरत है। पहली तो यह कि एक तरफ अगर हम अपनी हालत को लेकर निराश हैं, तो वहीं हमें बांग्लादेश की उपलब्धियों की तारीफ करनी चाहिए। एक ऐसा देश जिसे बास्केट केस कहा जाता था वह वैश्विक स्तर पर मजबूत हो रहा है, वह भी गारमेंट एक्सपोर्ट में। और यह कोई आसान काम नहीं था।

दूसरी बात यह है कि हमें अपनेआप से पूछना होगा कि आखिर हम कहां चूक गए। और यही काम करना आसान नहीं है। भारत इस बात को मानने के तैयार ही नहीं है कि आर्थिक मोर्चे पर उसकी हालत इतनी खराब क्यों है। अगर कोई प्रधानमंत्री के भाषण सुने या मीडिया में जो कुछ दिखाया-लिखा जा रहा है उस पर ध्यान दे तो वह सबकुछ आंकड़ों से मेल नहीं खाएगा। कहा जाएगा कि भारत बहुत तेजी से बढ़ती एक बड़ी अर्थव्यवस्था है और बात यहीं खत्म हो जाएगा। बताया जा रहा है कि कहीं कोई समस्या है ही नहीं इसलिए किसी चीज को दुरुस्त करने की भी जरूरत नहीं है।

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मतलब साफ है। अगर हम यह ही नहीं मानेंगे कि बांग्लादेस हमसे आगे निकल गया है तो फिर कोई समस्या है ही नहीं। लेकिन समस्या तो है। अभी कुछ समय पहले सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स ने घरेलू बिक्री के कुछ जारी किए जिसमें मार्च 2020 तक तक के पिछले पांच साल की बिक्री का लेखाजोखा था। सोसायटी का नतीजा था कि इस क्षेत्र में निरंतर और गहरी मंदी नजर आ रही है और ऐसा क्यों हो रहा है इसके लिए और गहन रिसर्च यानी शोध की जरूरत है। सवाल है कि रिसर्च कौन करे? यह कहा तो नहीं गया लेकिन इशारा सरकार की ही तरफ था या फिर सीधे नीति आयोग की तरफ। ऑटोमोबाइल सेक्टर देश के कुल मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में आधे का योगदान करता है। 2014 में देश की जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी 16 फीसदी थी यानी ऑटोमोबाइल सेक्टर का योगदान करीब 8 फीसदी था।

लेकिन ऑटोमोबाइल की बिक्री में धीमी रफ्तार के चलते इस सेक्टर की जीडीपी 2021 में फिसलकर 13 फीसदी पर पहुंच गई है और आज शायद इससे भी कम हो। ध्यान रहे कि मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर ऐसा क्षेत्र है जहां विकसित देशो में सर्वाधिक नौकरियां होती हैं। भारत में अगर लोगों के पास कायदे की नौकरियां नहीं हैं तो इन आंकड़ों से अर्थ निकाला जा सकता है कि भारत अपने मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में सुधार या मजबूती से चूक गया है। इतना ही नहीं, यह सेक्टर जिस मुकाम पर था, वहां से गिरकर नीचे आ चुका है।

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हम खुद को विश्वगुरु कहने लगे हैं और इसमें कोई संदेह भी नहीं कि भारत के पास कई ऐसी चीजें हैं जो वह दुनिया को सिखाता है और उसी तरह बहुत सी बातें हम दुनिया से सीखते हैं। लेकिन उत्पादन में मामले में हम दुनिया के मुकाबले पांचवां हिस्से के ही उत्पादन करते हैं। चीन में प्रति व्यक्ति उत्पादन 12,556 डॉलर है यानी औसन चीनी विश्व के अन्य बड़े देशों से बराबरी पर है। इसका यह भी अर्थ है कि अर्थव्यवस्था के मामले में हम चीन के पांचवे हिस्से के बराबर हैं।

पाठकों को यह जानना रोचक लगेगा कि 1991 में भारत ने जब आर्थिक सुधार किए उस समय हम चीन लगभग बराबर थे। दोनों देशों में प्रति व्यक्ति जीडीपी लगबघ 300 डॉलर थी। आज दुनिया हमें चीन के बराबर नहीं देखती। चीन अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में चीन एक विश्वशक्ति है। यानी चीन अपनी शक्ति को देश के बाहर भी प्रभावी तरीके से पेश करने में कामयाब है। विश्व में अमेरिका के प्रभुत्व को आज चीन से ही खतरा है। कुल जीडीपी के मामले में चीन जल्द ही अमेरिका के नजदीक पहुंचने की कोशिश में है। कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक सैन्य शक्ति में तो चीन पहले ही अमेरिका के बराबर पहुंच चुका है।

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जब हमारे प्रधानमंत्री ने ब्रिक्स या जी20 सम्मेलन या किसी अन्य वैश्विक मंच पर हिस्सेदार की है तो वे वहां अपने बराबरी के ग्रुप में ही होते हैं। हम मानते भी है कि सभी देश एक बराबर हैं। लेकिन जहां यह सारे देश जमा होते हैं उन्हें अपनी-अपनी ताकत और दूसरों की ताकत का भी अनुमान होता है। और असली स्थिति वह नहीं होती है जो ग्रुप फोटो में दिखती है।

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भारत को दुनिया को प्रभावित करने में सक्षम होने के लिए, अपने लोगों को गरीबी से बाहर निकालने और समृद्धि में लाने में सक्षम होने के लिए बहुत मेहनत करने की आवश्यकता होगी। हमें वास्तव में बांग्लादेश के साथ तालमेल बिठाने के लिए भी बहुत काम करने की आवश्यकता होगी। लेकिन क्या ऐसा उस देश में हो सकता है जहां रोजमर्रा की खबरों का चक्र एक्टिविस्ट्स को सिर्फ एक ट्वीट के आधार पर जेल भेजे जाने से उल्लासित रहता है? मेरी राय में यह संभव नहीं है, लेकिन इसका कारण खोजने के लिए हमें बहुत ज्यादा इंतजार भी नहीं करना होगा। आज दुनिया पहले के मुकाबले कहीं तेजी से बदल रही है और हमारा भविष्य क्या होगा, वह मौजूदा दशक खत्म होने से पहले ही दुनिया के सामने होगा।

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