'ऑपरेशन सिंदूर' जब तक चल रहा था, तब तक सरकार जो भी कहे, उसे सुनना और मानना जरूरी था। इधर-उधर झांकना मना था। संदेह नहीं करना मना था। जो सरकार ने नहीं कहा, उसे सुनना मना था। हां सरकार का लाडला गोदी मीडिया इसका अपवाद पहले भी था, तब भी था। वह सरकार के असली मन की असली बात पहले भी बोलता था, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भी बोलता रहा। उसे सब माफ़ था।
ये विदेश सचिव और रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता तो सरकारी भाषा में बड़े संभल-संभल कर, बहुत तौल-तौल कर बोलते थे। उतना बोलते थे, जितना कि बोलना चाहिए। एक शब्द न कम, न एक अधिक मगर यह मोदी जी की कार्यशैली के विरुद्ध था। उनकी मन की बात के खिलाफ था। उनकी नीतियों और कार्यशैली का खुला अपमान था पर क्या करें, तब वक्त की मजबूरी थी। सहना पड़ रहा था। ये मोदी-गोदी की भाषा नहीं बोलते थे। इनके अलावा कोई कुछ भी कहे, सच हो तो भी उसे झूठ मानना था। कोई कहे कि भारत का एक फ्रांस से खरीदा रफाएल विमान गिरा दिया गया है तो इसे हरगिज़ सच नहीं मानना था। इसे दुश्मन द्वारा फैलाई गई अफवाह मान कर चलना था।
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सरकार ने फोर पीएम, द वायर और पुण्य प्रसून वाजपेयी के यूट्यूब चैनल पर रोक लगा दी थी क्योंकि ये मोदी की गोदी में कभी नहीं लेटे। इनको ऐसे संस्कार ही नहीं मिले थे। आठ हजार ट्विटर एकाउंट भी इसीलिए बंद किए गए थे कि हो सकता है, उनमें सच का कुछ अंश हो! युद्धविराम हो गया है मगर जुबान की तालाबंदी जारी रहेगी। बोलना है तो गोदी-मोदी भाषा बोलो वरना चुप रहो!
युद्धविराम से पहले हमें कुछ नहीं बोलना था, कुछ नहीं देखना था और कुछ नहीं सोचना था और कुछ नहीं करना था। यह सारा भार सरकार ने उठा रखा था, जिसे विपक्ष ने इसका लाइसेंस दे दिया था, फिर भी बीजेपी इससे खुश नहीं थी। उसकी आईटी सेल दुख के भार से दबी थी। फिर भी उस सरकार का साथ देना था, जिसे हम कल तक बात-बात पर गरियाते थे, झूठा कहते थे।उसे ही सच्चा मानना पड़ रहा था, देश का असली हितचिंतक स्वीकार करना पड़ रहा था। उससे कोई प्रश्न भूल से भी नहीं करना था। वैसे भी प्रश्न करने के लिए यह सरकार कभी उपलब्ध नहीं रही। उससे जितना चाहो, आत्मप्रचार करवा लो, इसमें उसका जवाब नहीं मगर सवालों का जवाब वह नहीं देती! यह मोदी-सिद्धांत के विरुद्ध है!
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वही बोलना था, वही सुनना था, वही और उतना ही पढ़ना था, जितना प्रधानमंत्री जी चाहते थे।वही देखना था, जो गृहमंत्री जी दिखाना चाहते थे। वही महसूस करना था, जो रक्षा मंत्री जी महसूस करवाना चाहते थे। अपने दिल-दिमाग को ताक पर रखकर भूल जाना था। उस पर धूल पड़ जाए तो उसे साफ नहीं करना था। दुखी नहीं होना था। कल तक हिंदू सबसे अधिक असुरक्षित थे, अब अत्यंत सुरक्षित होने लगे थे कि ऑपरेशन सिंदूर विदा हो गया। अब फिर से हिंदू 'असुरक्षित' होने लगेगा और मुसलमान फिर से 'सुरक्षित' हो जाएंगे।
ऑपरेशन सिंदूर के समय गोदी मीडिया जो कहे, उसका मंडन न कर सको तो खंडन भी नहीं करना था। वह भारत की वीरता के प्रदर्शन के लिए अफगानिस्तान, लेबनान, सीरिया की तबाही के मंजर के विडियो और फोटो परोसता तो उसे भी हमारे साहस और शौर्य का प्रमाण मान कर खुश रहना था। वे कहें पांच घंटे में पूरा पाकिस्तान खत्म, तो खत्म। वे कहें आज पाकिस्तान की आखिरी रात है, तो उसे वाकई आखिरी रात मान लेने में भला था।
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वे कहें लाहौर पर तिरंगा फहरा दिया तो फहरा दिया। वे कहें कि कराची भारत के क़ब्ज़े में आ चुका तो इसे कराची के क की क़ब्ज़े के क से अनोखी तुक मिलाने का शाब्दिक खेल समझने की भूल नहीं करना था। वे कहते कि इस्लामाबाद फतह तो मान लेना था कि फतह हो गया, हमने आधा पाकिस्तान जीत लिया तो जीत लिया। अब यह नशा हिरन हो गया है। जिन्होंने इसकी खुशी मनाई, मिठाई बांटी, डीजे बजाए, नाचे-कूदे- मोदी जी की जय बोली। यह खेल खत्म हो गया। इस शैली में खत्म हो गया, दूसरी शैली में जारी रहेगा। मोदी जी की दुंदुभी अब और जोर से बजेगी।
और अंबानी जी आदि 'ऑपरेशन सिंदूर' को अपनी टीवी नेटवर्क का ट्रेडमार्क बनाने के लिए दौड़ पड़े थे तो इस पर टिप्पणी नहीं करना था। इसका बुरा नहीं मानना था। यह नहीं कहना था कि शव नोचने के लिए गिद्ध आ गए। इन्हें मौत और संकट में भी बिजनेस सूझता है। उनकी तारीफ़ करना था कि वे कितने देशभक्त हैं कि ऊपर से इशारा मिला कि अभी नहीं, थोड़ा रुककर आपका काम हो जाएगा तो तुरंत वे इस दौड़ से पीछे हटकर देशभक्त बन गए!
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ऑपरेशन सिंदूर चल रहा था मगर प्रधानमंत्री के पास एक के बाद दूसरी सर्वदलीय बैठक की अध्यक्षता करने के लिए भी समय नहीं था। मगर तब इस पर प्रश्न उठाना मना था। तब यह नहीं पूछना था कि उनके पास इसके लिए समय नहीं है तो फिर किसके लिए समय है? क्या इससे भी जरूरी कुछ है? क्या बिहार में चुनाव प्रचार करना उससे अधिक आवश्यक था? क्या गोदी चैनल के कार्यक्रम में जाकर वहां के एंकर-एंकरानियों के साथ फोटो खिंचवाना और विडियो बनवाना देश के लिए जरूरी था? तब इस तरह सोचना भी राष्ट्रद्रोह था, पाकिस्तान की भाषा बोलना था। 'द वायर' हो जाना था!
यह तो प्रधानमंत्री की मेहरबानी थी कि वह पहलगाम पर आतंकी हमले की खबर सुनकर सऊदी अरब से फौरन लौट आए। न आते तो कोई उनका क्या कर लेता? और इसी बीच उन्हें फिर क्रोएशिया, नार्वे और हालैंड जाना था पर वे नहीं गए। तीन-तीन देशों की यात्रा का बलिदान उन्होंने देश के लिए उस समय किया। आप बताइए कि आज अगर जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी या राजीव गांधी प्रधानमंत्री होते तो ऐसा त्याग कर पाते? उनमें देश के लिए ऐसा जज्बा था? भक्त कहेंगे, नहीं था।
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और सुनिए अगर ऑपरेशन सिंदूर लंबा खिंच जाता, युद्ध में बदल जाता और व्यापारी जम कर लूटने लगते तो भी उस समय चूं भी करना देशद्रोह माना जाता। उस समय व्यापारियों और ग्राहकों के बीच एकता बेहद जरूरी मानी जाती। अगर वे लूटते तो इसके लिए भी लोगों को अपने को दोषी मानना था, न कि लुटेरों को!
बहरहाल युद्धविराम घोषित हुआ है, मगर विपक्ष और सरकार के बीच युद्धविराम लागू नहीं है। हिंदू-मुसलमान करने पर युद्धविराम लागू नहीं है। यह युद्ध चलता रहेगा। झूठ के कारखाने में उत्पादन होता रहेगा। पटरी से उतरा देश, पटरी से उतरा रहेगा।
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