विचार

जलवायु परिवर्तनः महज दिखावा है तापमान वृद्धि रोकने की चर्चा, नाटक बनकर रह गए हैं ऐसे सम्मेलन

तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने वाले ऐसे सम्मेलनों का सबसे हास्यास्पद पहलू यह रहता है कि पर्यावरण का विनाश करने वाले उद्योगों के प्रतिनिधियों की संख्या इसे नियंत्रित करने का प्रयास करने वालों की तुलना में कई गुणा अधिक रहती है।

जलवायु परिवर्तनः महज दिखावा है तापमान वृद्धि रोकने की चर्चा, नाटक बनकर रह गए हैं ऐसे सम्मेलन
जलवायु परिवर्तनः महज दिखावा है तापमान वृद्धि रोकने की चर्चा, नाटक बनकर रह गए हैं ऐसे सम्मेलन फोटोः सोशल मीडिया

तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने के सम्मेलन एक मनोरंजक पिकनिक से अधिक कुछ नहीं होते। जब तक सम्मेलन खत्म होता है, पृथ्वी का तापमान कुछ और बढ़ चुका होता है। 10 नवंबर से ब्राजील में संयुक्त राष्ट्र के कान्फ्रेन्स ऑफ पार्टीज का 30वां अधिवेशन शुरू होने वाला है। हरेक बार की तरह सभी देश जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने के तमाम दावे करेंगें और पृथ्वी का तापमान कुछ और बढ़ाएंगे और फिर अगले बार मिलने का वादा करेंगे। ऐसे सम्मेलनों का सबसे हास्यास्पद पहलू यह रहता है कि पर्यावरण का विनाश करने वाले उद्योगों के प्रतिनिधियों की संख्या इसे नियंत्रित करने का प्रयास करने वालों की तुलना में कई गुणा अधिक रहती है।

हाल में ही वैश्विक स्तर पर मौसम का हाल रखने वाले वर्ल्ड मेटेरियोलोजिकल ऑर्गनाइजेशन ने आधिकारिक तौर पर स्वीकार कर लिया है कि अब दुनिया कुछ भी करे, पेरिस समझौते के तहत इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकना असंभव है। इस घोषणा से किसी को बहुत आश्चर्य हुआ हो ऐसा नहीं है- जिस तरह देशों ने जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को महज एक नाटक बना दिया है, उसमें यही होना था।

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संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने इसे नैतिक असफलता और हिंसक लापरवाही करार दिया है। उनके अनुसार इससे अरबों लोगों का जीवन संकट में पड़ जाएगा और पूरे विश्व में सुरक्षा और शांति खतरे में पड़ जाएगी। सबसे आश्चर्य यह है कि पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने इसके लिए वैश्विक स्तर पर हावी होते हुए “कट्टरवादी दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी” ताकतों को जिम्मेदार ठहराया।

महासचिव ने कहा कि अनेक पूंजीपति और उद्योग तापमान वृद्धि को बढ़ाकर भारी मुनाफा कमा रहे हैं, यह मानवता के विरुद्ध अपराध है। अब हम जीवन धारण करने वाली पृथ्वी से दूर होते जा रहे हैं। तापमान वृद्धि के साथ ही भूख और विस्थापन की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं, यह सब आज की दुनिया में स्पष्ट है पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। जीवाश्म ईंधन उद्योग मानवता के विरुद्ध अपराध कर रहा है पर तमाम देश इन उद्योगों को राजनैतिक संरक्षण दे रहे हैं, और सब्सिडी के माध्यम से बढ़ावा दे रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के संदर्भ में सरकारों की लापरवाही का आलम यह है कि अधिवेशन में हिस्सा ले रहे आधे से अधिक देशों ने अभी तक अपने राष्ट्रीय लक्ष्य और कार्य योजना प्रस्तुत नहीं किए हैं और जिन्होंने इसे प्रस्तुत किया भी है वह सब बकवास है। तमाम देशों के राष्ट्रीय योजनाओं को यदि लागू भी कर दिया जाए तो भी तापमान वृद्धि 2.5 से 2.8 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाएगी, जबकि लक्ष्य 1.5 डिग्री सेल्सियस का है।

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क्लाइमेट एनालिटिक्स नामक संस्था के आकलन के अनुसार, यदि वर्ष 2050 तक सर्वाधिक तापमान वृद्धि को 1.7 डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित किया जा सके और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी कटौती की जाए तभी 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य पाया जा सकता है। पर, दुनिया इस लक्ष्य से कोसों दूर है। इसके लिए वर्ष 2030 तक वर्ष 2019 के उत्सर्जन में 20 प्रतिशत की और फिर अगले 10 वर्षों तक हरेक वर्ष 11 प्रतिशत की कटौती करनी पड़ेगी। तभी वर्ष 2050 तक 1.7 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य पाया जा सकता है।

दूसरी तरफ वास्तविक स्थिति यह है कि हरेक देश की कार्य योजना को यदि पूरा लागू भी कर दिया जाए तब भी वर्ष 2035 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में महज 10 प्रतिशत की कमी का अनुमान है। जाहिर है, वास्तविक लक्ष्यों से दुनिया बहुत दूर है और इसे प्राप्त करने की कोई संकल्प भी नहीं दिखती।

भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने आपको विकासशील देशों के मुखिया के तौर पर प्रस्तुत करता है, पर अन्य सामाजिक समस्याओं के हल की तरह ही जलवायु परिवर्तन नियंत्रण महज वक्तव्यों, भ्रामक आंकड़ों और पोस्टरों तक ही सीमित है। वर्ष 2024 में भारत ने वायुमंडल में 4.4 अरब टन कार्बन डाइआक्साइड समतुल्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया। उत्सर्जन की यह मात्रा वैश्विक स्तर पर चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर है।

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हरेक बार जब ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की बात उठती है तब सरकार यहां की 1.4 अरब जनसंख्या का हवाला देकर प्रति व्यक्ति के संदर्भ में कम उत्सर्जन की बात करती है। पर, ग्रीनहाउस गैसों के वायुमंडल में उत्सर्जन के बाद प्रभाव एक जैसा ही रहता है। कभी ऐसा नहीं होता कि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के कम होने पर उसका प्रभाव भी कम होता हो।

भारत में तापमान वृद्धि नियंत्रण की बात सौर और पवनचक्की जैसे नवीनीकृत ऊर्जा स्त्रोतों से शुरू होकर उसी पर खत्म हो जाती है। पहले अनेक अन्तराष्ट्रिय कंपनियां नवीनीकृत ऊर्जा के क्षेत्र में भारत में काम कर रही थीं- पर अब केवल अदानी और अंबानी ही इस क्षेत्र में रह गए हैं। इन्हें सस्ती या मुफ़्त की जमीन और तमाम सरकारी सब्सिडी दी जाती है, बिजली की मनमानी कीमत वसूलने की छूट दी जाती है। दरअसल मोदी-राज में नवीनीकृत ऊर्जा अंबानी का मुनाफा बढ़ाने के लिए है।

सरकारी तौर पर खूब प्रचारित किया गया कि बिजली उत्पादन की कुल स्थापित क्षमता में से नवीनीकृत ऊर्जा स्त्रोतों का योगदान 50 प्रतिशत तक पहुंच गया है। यह दावा सुनने में बहुत प्रभावित करता है, पर हमारे देश में स्थापित क्षमता और वास्तविक उत्पादन में भारी अंतर है। नवीनीकृत ऊर्जा स्त्रोतों पर आधारित बिजलीघरों में से अधिकतर ने उत्पादन नहीं शुरू किया है और ना ही निकट भविष्य में इनसे उत्पादन की आशा है। कारण है कि इस बिजली को संचयित करने के सिस्टम नहीं स्थापित किए गए हैं। इसके लिए भारी मात्रा में “रेयर अर्थ” नामक खनिज की जरूरत है और जिसपर पूरी तरह से चीन का एकाधिकार है।

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वास्तविक स्थिति यह है कि 75 प्रतिशत से अधिक बिजली का उत्पादन कोयला आधारित बिजली घरों से किया जा रहा है। देश में वर्ष 2024 में कोयले की खपत 5 प्रतिशत से अधिक बढ़ गई है और जलवायु परिवर्तन नियंत्रण पर प्रवचन देने वाली मोदी सरकार कोयले के बढ़ते उत्पादन और खपत का जश्न मनाती है। देश में वर्ष 2024 में बिकी कारों में से महज 2.5 प्रतिशत इलेक्ट्रिक कारें हैं।

तापमान वृद्धि के प्रभाव अब कोई काल्पनिक नहीं हैं, बल्कि अत्यधिक गर्मी, बादलों का फटना, सूखा, ग्लेशियर का तेजी से पिघलना और फ़्लैश फ्लड जैसी आपदाओं के तौर पर हमारे सामने हैं। इन सभी आपदाओं का शिकार समाज का सबसे गरीब वर्ग ही रहता है, मध्यम और अमीर वर्ग इन आपदाओं से सुरक्षित रहने का रास्ता तलाश लेता है। जाहिर है, पूंजीवादी व्यवस्था में जनता की समस्याओं पर किसी का ध्यान नहीं रहता, तभी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जो पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था की देन है, इसके नियंत्रण पर किसी का ध्यान नहीं है।

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