पहलगाम में पर्यटकों पर हुए आतंकी हमले की श्रृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया हुई और पाकिस्तान में आंतकी अड्डों को निशाना बनाया गया। अब, संघर्षविराम लागू हो चुका है, इसलिए यह इस बात पर विचार करने के लिए उचित समय है कि समाज में व्याप्त इस कैंसर जैसी प्रवृत्ति का मुकाबला कैसे किया जाए। अमेरिका में 9/11/2001 को टिव्न टावर्स पर हुए आतंकी हमले में 2000 से अधिक लोगों की मौत के बाद से यह मुद्दा अधिक चर्चा में है। ‘इस्लामिक आतंकवाद‘ शब्द अमरीकी मीडिया ने गढ़ा था और बाद में दुनिया भर में इसका इस्तेमाल इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ने के लिए किया जाने लगा।
वैसे आतंकी घटनाओं को तो परिभाषित किया गया है, लेकिन आतंकवाद को परिभाषित करना आसान नहीं है और इस प्रवृत्ति से संबंधित क्रियाकलापों से जुड़ी संयुक्त राष्ट्रसंघ की संस्थाएं भी अब तक इसे परिभाषित नहीं कर सकी हैं। जहां तक भारत का सवाल है, यहां ब्रेनवाश किए गए मुस्लिम युवकों द्वारा हत्यायों का विक्षिप्तापूर्ण कार्य लंबे समय से चल रहा है। भारत में 26/11/2008 को मुंबई पर हमला हुआ जिसमें करीब 200 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। इसका सबसे दिलचस्प पहलू यह था कि महाराष्ट्र एटीएस के प्रमुख हेमंत करकरे भी इस हमले में मारे गए थे।
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इसके समानांतर हमने पहले नांदेड़ (2006) और उसके बाद चार आतंकी हमले देखे- मालेगांव, अजमेर, मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस। मालेगांव के मामले में एनआईए ने पूर्व बीजेपी सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को मौत की सजा दिए जाने की मांग की है, जिनकी मोटरसाईकिल का इस हमले के लिए इस्तेमाल किया गया था। इसके अलाव लेफ्टीनेंट कर्नल पुरोहित पर भी मुकदमा चल रहा है और इसमें स्वामी असीमानंद, मेजर (सेवानिवृत्त) उपाध्याय और हिन्दुत्व राजनीति से जुड़े कई अन्य लोगों का नाम भी सामने आया है।
भारत इन आतंकी घटनाओं का सामना कर रहा है और यह जरूरी है कि हम वैश्विक आतंकवाद की जड़ों और उसके भारत पर पड़े प्रभाव पर गहन चिंतन करें। आतंकी हमलों से निपटने के लिए की गई सुरक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं। पहले पुलवामा और अब पहलगाम के आतंकी हमलों ने हमारी कमियों को उजागर किया है, और कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनके संबंध में वैश्विक संस्थाओं से तालमेल करके इनमें से कई कमियों को दूर किया जा सकता है।
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एक बात तो यह है कि भारत में आतंकी हमले करने वाले संगठन पाकिस्तान केन्द्रित हैं। पाकिस्तान की दयनीय दशा है, क्योंकि वह न केवल आतंकी हमलों का केन्द्र है बल्कि स्वयं भी इस नीचतापूर्ण प्रवृत्ति का शिकार है। वर्तमान में कश्मीर आतंकी हमलों के निशाने पर है। कश्मीर में इस समय जारी इस त्रासदी की प्रमुख कर्ताधर्ता उन आतंकी समूहों की शाखाएं हैं जो अफगानिस्तान पर सोवियत संघ द्वारा कब्जा किए जाने के बाद इसकी खिलाफत के लिए अमेरिका द्वारा खड़ी की गई थीं।
चूंकि अमेरिका अफगानिस्तान पर काबिज सोवियत सेना का सीधा सामना करने की स्थिति में नहीं था, इसलिए उसने पाकिस्तान में मदरसों की मदद की, उन्हें बढ़ावा दिया, जिनमें मुस्लिम युवकों को प्रशिक्षण दिया जाने लगा। इसके नतीजे में तालिबान और उसके जैसे संगठन अस्तित्व में आए। महमूद ममदानी गहन शोध पर आधारित अपनी पुस्तक ‘गुड मुस्लिम बैड मुस्लिम‘ में बताते हैं कि इन मदरसों का पाठ्यक्रम किस प्रकार अमेरिका में तैयार किया गया था जिसमें कम्युनिस्टों को काफिर बताया गया था। काफिरों का कत्ल करना एक लक्ष्य और एक उपलब्धि बताया गया था, और ऐसा करने में यदि जान से हाथ धोना पड़े, तब भी यह चिंताजनक नहीं माना गया था क्योंकि इसके बाद जन्नत मिलना निश्चित था। अमेरिका ने इन मदरसों पर 8 अरब डॉलर खर्च किए और आतंकियों को 7000 टन हथियार और गोला-बारूद मुहैया कराए, जिनमें आधुनिकतम स्ट्रिंगर मिसाइल भी शामिल थीं।
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इस आतंकी प्रवृत्ति को बढ़ावा देकर अमेरिका पश्चिम एशिया के तेल के कुओं पर नियंत्रण करना चाहता था, जिसके कारण भयावह हालात उत्पन्न हुए और इस इलाके में तबाही आई। स्मरणीय है कि इसी दौर में हटिंगटन के ‘सभ्यताओं के टकराव‘ के सिद्धांत ने जोर पकड़ा। यह तो दुनिया की खुशकिस्मती थी कि तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया जिसे ‘सभ्यताओं के टकराव‘ के विचार के अध्ययन का कार्य विशेष तौर पर सौंपा गया।
समिति ने ‘सभ्यताओं के गठबंधन‘ के विचार पर केन्द्रित रपट पेश की जिसका यह निष्कर्ष था कि सभ्यताओं के गठबंधन से दुनिया में तरक्की हुई है। विभिन्न पक्षों ने इस रपट को पर्याप्त महत्व नहीं दिया। आतंकी घटनाओं से उत्पन्न हुआ इस्लामोफोबिया और अमेरिकी मीडिया की नकारात्मक भूमिका का इतना प्रबल प्रभाव हुआ कि कई जगहों पर कुरान की प्रतियां जलाई गईं।
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इस आतंकी प्रवृत्ति ने भस्मासुर का स्वरूप ले लिया। इसने कई स्तरों पर नकारात्मक भूमिका अदा की। उसके कारण भयावह विनाश हुआ और पाकिस्तान भी इसका शिकार हुआ। हमें याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ऐसे ही एक आतंकी संगठन द्वारा किए गए हमले में मारी गईं थीं। जीटीई (वैश्विक आतंक सूचकांक) चार आंकड़ों - घटनाओं, मौतों, घायलों की संख्या और बंधक बनाए जाने वालों की संख्या - पर आधारित होता है। आतंकवाद के प्रभाव को मापने के लिए पांच वर्षों के भारित औसत का प्रयोग किया जाता है। इस सूचकांक पर पाकिस्तान का स्थान दूसरा और भारत का 14वां है। इसका अर्थ यह है कि पाकिस्तान को भारत से अधिक आतंकी घटनाओं की पीड़ा झेलनी पड़ी है।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आतंकवाद के शिकारों की सबसे बड़ी संख्या पाकिस्तान में ही है, क्योंकि पाकिस्तान में स्थित मदरसों में ही आतंकियों को प्रशिक्षण दिया गया। जहां भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उस पर कोई आतंकी हमला न हो, वहीं यह समझना भी आवश्यक है कि आतंक के इस कैंसर के बीज साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा तेल भंडारों पर नियंत्रण रखने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए बोए गए थे और इसे वैश्विक सहयोग से ही जड़ से उखाड़ा जा सकता है।
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‘‘पाकिस्तान- जिसके बारे में कहा जाता है कि वह ‘आतंक का वैश्विक निर्यातक है‘ - को 2025 के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की तालिबान पर प्रतिबंधों संबंधी समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। साथ ही उसे परिषद की आतंक-विरोधी समिति का उपाध्यक्ष भी बनाया गया है‘‘। इसी से साफ है कि यह मसला कितना जटिल है।
पाकिस्तान की नीतियों को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं, जिनमें एक उभरता हुआ कारक है चीन। जहां पाकिस्तान जवाबदेह है, वहीं यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए उसे बातचीत की मेज तक लाया जाए। भारत में आतंकी हमले रोकने के लिए कश्मीर में लोकतंत्र को सशक्त करने के सभी संभव कदम उठाया जाना भी आज की जरूरत है।
हम इस समय कई तरह की दुविधाओं में उलझे हुए हैं। उजली संभावनाओं से भरपूर कश्मीर की विकास यात्रा अभी भी रूकी हुई है। पाकिस्तान को आतंकी हिंसा के इस बढ़ते हुए कैंसर के उन्मूलन के लिए कई स्तरों पर कदम उठाने होंगे। दबे सुर में इस्लाम और मुसलमानों को आतंकी प्रवृत्ति से जोड़ने का प्रोपेगेंडा जारी है। इस नजरिये में उन हालात की गहन समझ का अभाव है कि किन अजीबोगरीब हालात में अमेरिका द्वारा पश्चिम एशिया के तेल के भंडारों पर नियंत्रण रखने के प्रयासों की वजह से मौजूदा हालात बने हैं। इस समस्या के तात्कालिक प्रभावों से निपटना तो जरूरी है ही, हमें इसके उदय का गहराई से अध्ययन भी करना होगा। अमेरिका की नीतियों ने आतंकवाद को बढ़ावा दिया है और अब वह इस सारी समस्या से अपना हाथ झाड़ रहा है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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