विचार

झूठ पर झूठ और अब लाॅकडाउन ने बेरोजगारों की फौज को बना दिया है बारूद का ढेर! आने वाली पीढ़ी पर बुरा असर पड़ना तय

भारत में हमने दुनिया के चंद सबसे सख्त लॉकडाउन में से एक को देखा। आज छह माह बाद इस पर गौर करना वाजिब होगा कि भारत में रोजगार संकट का हाल क्या है। ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि स्थिति हद से ज्यादा खतरनाक है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

भारत में हमने दुनिया के चंद सबसे सख्त लॉकडाउन में से एक को देखा। आज छह माह बाद इस पर गौर करना वाजिब होगा कि भारत में रोजगार संकट का हाल क्या है। ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि स्थिति हद से ज्यादा खतरनाक है। सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी) के सीईओ और अर्थशास्त्री महेश व्यास का कहना है, “ उम्मीद थी कि युवाओं को नौकरी मिलेगी जिससे विकास दर को तेज करने में मदद मिलेगी और इन युवाओं को अपने भविष्य के लिए बचत करने का मौका मिलेगा। लेकिन वे सारी बातें धरी की धरी रह गईं... हमारे युवा अब भविष्य के लिए बचत की स्थिति में नहीं और इसका बुरा असर आने वाली पीढ़ी पर पड़ना तय है।”

Published: 26 Sep 2020, 7:00 PM IST

जमीनी हालत कितनी विस्फोटक है, इसका अंदाजा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 70वें जन्मदिन के मौके पर ट्विटर पर मचे तूफान से लगाया जा सकता है। 17 सितंबर को शाम होते-होते 40 लाख से ज्यादा ट्वीट के जरिये लोगों ने इस दिन को ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ के तौर पर मनाया और 2014 में मोदी के उस वादे की याद दिलाई जिसमें उन्होंने कहा था कि हर साल 2 करोड़ रोजगार पैदा किए जाएंगे। ट्विटर ट्रेंड से सड़कों पर होने वाले प्रदर्शनों तक लोगों की दिलचस्पी प्रधानमंत्री के जन्मदिन समारोह की अपेक्षा बेरोजगारी में अधिक रही। ट्विटर पर #17Baje17Minute, #NationalUnemploymentDay और #RashtriyaBerozgariDiwas सबसे ज्यादा ट्रेंडिंग हैशटैग रहे और शाम 7.30 बजे तक इनपर 40 लाख से ज्यादा ट्वीट किए गए जबकि #HappyBirthdayPMModi और #RespectYourPM जैसे प्रधानमंत्री के जन्मदिन को मनाने वाले हैशटैग के पास केवल पांच लाख ट्वीट की पूंजी जमा हो सकी।

Published: 26 Sep 2020, 7:00 PM IST

शिक्षित बेरोजगार चाहते हैं कि उन्हें सुरक्षित सरकारी नौकरी मिले क्योंकि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान देखा कि उनके आसपास निजी क्षेत्र में जहां कत्लेआम मचा है और लोगों की नौकरी जा रही है, वहीं सरकारी कर्मचारियों पर इन सबका कोई असर नहीं और वे पहले जितना ही पैसा घर ला रहे हैं। एक ऑटोमाबाइल कंपनी में काम करने वाले मनीष कहते हैं, “मैं ऑटोमाबोइल इंजीनियर हूं लेकिन मुझे कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट में काम करना पड़ रहा है और मेरे वेतन में भी काफी कमी कर दी गई है।” सचिन मराठे कॉल सेंटर में काम करते थे और उन्होंने इस भरोसे में फरवरी में नौकरी छोड़ दी थी कि उन्हें इससे बेहतर नौकरी खोजने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन आज उनका आत्मविश्वास बुरी तरह हिल चुका है। वह कहते हैं, “कहीं कोई नौकरी नहीं। समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं। सारा दिन जॉब साइट पर ऑनलाइन नौकरी खोजता रहता हूं लेकिन कोई फायदा नहीं।” राजस्थान के करौली से फोनपर हंसराज मीणा कहते हैं, “सरकारी नौकरी तो मिल नहीं रही। ऐसे में लोगों की शादी नहीं हो रही।” ट्विटर पर 17 सितंबर को मोदी के खिलाफ अपने संगठन ट्राइबल आर्मी के जरिये आक्रामक अभियान चलाने वाले मीणा कहते हैं कि भर्ती परीक्षाओं के लिए फीस देकर फॉर्म भरने वाले लोग सालों से नौकरी का इंतजार कर रहे हैं। वह आगाह करते हैं, “ सरकार रेलवे और पीएसयू का निजीकरण कर रही है क्योंकि वह सरकारी नौकरियों से आरक्षण को धीरे-धीरे खत्म करना चाहती है।”

Published: 26 Sep 2020, 7:00 PM IST

ट्राइबल आर्मी के राष्ट्रीय प्रवक्ता ऋषिकेश मीणा बताते हैं कि इस संगठन को 2016 में बनाया गया ताकि दबे-कुचले लोगों की आवाज को सोशल मीडिया पर उठाया जा सके। उनका दावा है कि कुछ समय पहले तक बेरोजगारी, वनाधिकार या विस्थापन के मामलों को ट्विटर पर बहुत कम ही उठाया जाता था लेकिनअब स्थिति बदल चुकी है। 2004 से 2016 के बीच भारत की विकास दर ऐसी थी जो संतोषजनक रूप से बढ़तो रही थी लेकिन इसमें रोजगार के अवसर अपेक्षित स्तर पर पैदा नहीं हो रहे थे। अब पिछले तीन सालों के दौरान तो बेरोजगारी की दर में तेजी से वृद्धि हुई है। इस साल मार्च में घोषित लॉकडा उनके कारण तो बेरोजगारी दर एकदम से आसमान छूने लगी। जिस तरह बेरोजगारों और समझौता कर योग्यता से नीचे की नौकरी करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, विशेषज्ञों को आशंका है कि इससे सामाजिक अस्थिरता के हालात पैदा हो सकते हैं, अपराध की घटनाओं में तेज वृद्धि हो सकती है और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर गंभीर हालात पैदा हो सकते हैं। अमेरिका में 1932 से 1933 में महामंदी के दौरान बेरोजगारों की संख्या 1.5 करोड़ थी और अगर इसमें पूरे यूरोप के बेरोजगारों की संख्या को जोड़ दिया जाए तो भी यह आंकड़ा किसी भी हालत में 5 करोड़ को पार नहीं करता।

Published: 26 Sep 2020, 7:00 PM IST

लेकिन सीएमआईई का आकलन है कि इस साल अप्रैल से अगस्त के दौरान भारत में 12 करोड़ लोगों का रोजगार जाता रहा। इस अवधि के दौरान वेतनवाली नौकरियों की संख्या में ही 2 करोड़ की कमी रही। इसमें उन 3.4 करोड़ लोगों को जोड़ दीजिए जो लॉकडाउन के ऐलान के समय बेरोजगार थे तो आज देश में बेरोजगारों की कुल संख्या 15 करोड़ को पार कर जाती है। यह होश उड़ादेने वाला आंकड़ा है। जरा सोचिए, अमेरिका की तो पूरी आबादी ही 33 करोड़ है। जिन लोगों की नौकरियां आज बची हुई हैं, उनमें भी ज्यादातर सेल्समैन, डिलीवरी बॉय, वेटर जैसे लोग हैं जो महीने में 6 से 16 हजार रुपये घर ला रहे हैं। सीएमआईई का एक अध्ययन कहता है कि ऐसे तो वेतनवाली नौकरियां जल्दी जाती नहीं लेकिन अगर चली गई तो आसानी से मिलती नहीं। इसे भी याद रखना चाहिए कि खुद सरकार के आंकड़े कहते हैं कि 2018-19 में स्वरोजगार करने वाले लोगों की औसत आय 8,363 रुपये मासिक है। दूसरी ओर, एक नियमित औपचारिक नौकरी में औसत मासिक वेतन 25,866 रुपये रहा।

Published: 26 Sep 2020, 7:00 PM IST

मेलबोर्न में प्रोफेसर क्रेगजेफरी ने 2010 में एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश के ‘समय काटने वाले युवाओं’ के बारे में काफी कुछ लिखा था। तब जेफरी ऑक्सफोर्ड में प्रोफेसर थे। उन्होंने मेरठ के युवाओं के साथ बातचीत करने, उन्हें समझने में सालों लगाए और फिर उन्होंने एक ऐसी युवा पीढ़ी के बारे में लिखा जिसने ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन के बाद फुल टाइम जॉब के इंतजार में सारा समय गुजार दिया। एक इंटरव्यू में जेफरी कहते हैं, “वे गलियों के नुक्कड़ों पर खड़े, ताश खेलते, टीवी देखते, गप्पें मारते और लड़ते-झगड़ते मिल जाएंगे। इनमें से ज्यादातर अपने मां-बाप पर आश्रित होते हैं और इस कारण दो पीढ़ियोंके बीच तनाव पैदा होता है... यहां-वहां मंडराते इन लोगों की पहचान बन गया है ‘टाइम पास’।”

Published: 26 Sep 2020, 7:00 PM IST

इनमें से कई ऐसे होते हैं जो बिचौलिए बन जाते हैं। अपने सामाजिक और राजनीतिक संपर्कों के जरिये ये लोग जमीन के सौदे और सरकारी रिकॉर्ड में हेरफेर करने लगते हैं तो कई अदालतों में गवाही देने को धंधा बना लेते हैं तो कुछ पुलिस के लिए मुखबिरी करने लगते हैं या फिर राजनीतिक दलों को भीड़ जुटाने में मदद करने लगते हैं। कुछ अदालतों में मुंशी बनजाते हैं तो कुछ गैरसरकारी संगठनों के साथ जुड़कर समाज सेवक या रिसर्चर बन जाते हैं। जेफरी और चर्चित पुस्तक ‘दि ड्रीमर्स’ लिखने वाली स्निग्धा पूनम का मानना है कि छोटे शहरों और गांवों का महत्वाकांक्षी युवा अब शारीरिक मेहनत या पारंपरिक व्यापार करना नहीं चाहता। उसे पैसे कमाने का शॉर्टकट चाहिए। इस मानसिकता और बदली प्राथमिकताओं वाले युवाओं की यह बेरोजगार फौज कब तक सब्र के साथ इंतजार कर सकती है, यह समझा जा सकता है। भविष्य के गर्भमें जो कुछ भी छिपा है, उसके बारे में हर किसी को चिंतित होना चाहिए।

Published: 26 Sep 2020, 7:00 PM IST

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Published: 26 Sep 2020, 7:00 PM IST