जब संपादक ने वर्षांत पर अपने विचार साझा करने को कहा तो मैं इसके लिए संघर्ष करता रहा। आखिर, दो दिनों बाद सूरज बादलों से बाहर आया और मेरा डेस्क भी रोशन हुआ। लेकिन मेरे अंदर का अंधेरा और घना हो गया है। क्रिसमस बीत चुका है। क्रिसमस के जश्न में बाधा डालने वाले हिन्दुओं की तस्वीरें और वीडियो मेरी टाइमलाइन पर हैं। चर्च के सामने उन्माद में नाचते और भजन गाते युवा हिन्दू; डिलीवरी बॉय की सांता क्लॉज वाली ड्रेस को उतारते गुंडे; स्कूल की दीवारों से क्रिसमस के पोस्टर फाड़ते और बच्चों को डराते-धमकाते हिन्दू स्वयंसेवक... भारत के अलग-अलग हिस्सों के ऐसे तमाम उदाहरण हैं। मेरठ में एक चर्च के दरवाजे इस आशंका में बंद कर देना पड़ता है कि न जाने कौन किस मकसद से घुस आए और तोड़फोड़ करने लगे!
हमारे प्रधानमंत्री भारत के बाहर ईसाइयों के खिलाफ हिंसा पर बेशक अफसोस जताते हैं लेकिन उनके लोगों को पता है कि उन्हें भारत में ऐसा करने की इजाजत है। भारतीय, खासकर हिन्दू, अच्छी तरह जानते हैं कि उनके प्रधानमंत्री झूठ बोलते हैं; वह आधा सच बोलते हैं और लोगों को उकसाने में लिप्त हैं। उनके लोग मानकर चलते हैं कि उन्हें ईसाइयों और मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने का अधिकार है।
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इन सब के बारे में सोचते हुए मैंने दिल्ली सरकार का सर्कुलर पढ़ा जिसमें स्कूलों से ‘अवैध बांग्लादेशी’ बच्चों को दाखिला न देने के बारे में सख्ती बरतने के लिए कहा गया था। मित्र शुद्धब्रत सेनगुप्ता मेरे मुंह की बात छीन लेते हैं जब वह कहते हैः ‘आम आदमी पार्टी सरकार द्वारा बच्चों को ‘बांग्लादेशी’ और ‘रोहिंग्या’ के रूप में लक्षित करना- उन्हें दिल्ली के स्कूलों में प्रवेश से वंचित करना- पूर्वाग्रह और जेनोफोबिक घृणा का सबसे घटिया प्रदर्शन है।
आम आदमी पार्टी के हर सदस्य, उनके विधायकों और मंत्रियों और उनके हर समर्थक पर शर्म आती है। मेरे लिए यह सोचना भी मुश्किल है कि इस तरह की मनुष्य-विरोधी नीतियां बनाने के लिए एक राजनीतिक पार्टी कितनी नीचता पर उतर सकती है।’
क्या इस आधार पर किसी बच्चे को स्कूल में दाखिला नहीं देने से ज्यादा नीच और अमानवीय कुछ हो सकता है कि उसके पास जरूरी कागजात नहीं हैं? लेकिन निश्चित ही इस फरमान ने हमारे हिन्दू समाज की अंतरात्मा को नहीं झकझोरा होगा। इसे तो राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर वाजिब ही ठहराया जाएगा।
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हम मानवता को ताक पर रखते जा रहे हैं। झूठ और कपट अब हमें एक समाज के रूप में परिभाषित करते हैं। आखिरकार जब ‘द सैटेनिक वर्सेज’ की प्रतियां बुक स्टोर के शेल्फ में आ गई हैं, तो इस पर जश्न मनाती हुई तमाम टिप्पणियां देखीं। इसकी तारीफ करने वाले लोग उन पांडुलिपियों को अस्वीकार कर देते हैं जो शासन को शर्मिंदा कर सकती हैं, इसकी विचारधारा की आलोचना करती हैं।
प्रमुख प्रकाशक लेखकों को उन हिस्सों को संपादित करने की सलाह देते हैं जो ‘परेशानी की वजह बन सकते हैं’ और आलेखों और पुस्तकों की इस नजरिये से जांच-पड़ताल कि कहीं कोई कानूनी बखेड़ा न खड़ा हो जाए, प्रकाशन के प्रोटोकॉल का जरूरी हिस्सा बन गई है।
कुछ विषयों पर पुस्तकों के भारतीय संस्करण अक्सर उन चीजों को छोड़ देते हैं जो उनके अंतरराष्ट्रीय संस्करणों में होती हैं। ऐसे में हम भारत के बुक स्टोर्स में ‘द सैटेनिक वर्सेज’ के दिखने का दावा करके किसे बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहे हैं?
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फिल्म निर्माताओं से बात करें तो आपको पता चलेगा कि पात्रों के नाम चुनते समय उन्हें कितना सावधान रहना पड़ता है। कुलपतियों के सम्मेलनों को अब आरएसएस के विचारक संबोधित करते हैं। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों ने अध्ययन के माहौल को ‘शुद्ध’ करने के लिए ‘गौशालाएं’ खोल दी हैं।
मित्रों ने मुझे जानकारी दी है कि बेघर लोगों के लिए ‘मेडिसीन फॉर द स्ट्रीट’ कार्यक्रम जल्द ही बंद होने वाला है क्योंकि इस कार्यक्रम के लिए पैसे देने वाली कॉर्पोरेट इकाई ने इस सरकार द्वारा राजनीतिक रूप से काली सूची में डाली गई संस्थाओं का समर्थन न करने का फैसला किया है।
अभी-अभी मुझे पता चला है कि सरकार ने कक्षा 5 और 8 के लिए डिटेंशन नीति को खत्म कर दिया है। ‘बेमेल, अयोग्य को हटाओ’ इस समाज का मंत्र बन रहा है।
पटना में एक गायक को बापू के पसंदीदा भजन ‘रघुपति राघव राजा राम… ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ गाने के लिए माफी मांगने के लिए मजबूर किया जाता है और ‘जय श्री राम’ के नारे लगाकर उसका मजाक उड़ाया जाता है; ईश्वर और अल्लाह पड़ोसी नहीं हो सकते!
2024 का और कैसे अंत हो सकता था! भारत में हमारे लिए कैसा भविष्य है, यह इसकी एक झलक है।
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