विचार

मृणाल पाण्डे का लेखः सबकुछ तो ठप पड़ा है, तो फिर बजट को हठयोग ही कहना सही

वित्त मंत्रालय के तलघर में बजट पूर्व हलवा हमेशा की तरह पका और बंटा, पर वित्त मंत्री सहित बजट से जुड़े लोगों के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ दिखती हैं। महंगाई लगाम तुड़ा भाग रही है, उत्पादन, निर्माण और निर्यात सब ठप हैं, तो हम किस तरह मानें कि सब चंगा सी?

इलस्ट्रेशनः अतुल वर्धन
इलस्ट्रेशनः अतुल वर्धन 

यह बात जानने के लिए नोबेल विजेता अर्थशास्त्री होना जरूरी नहीं है कि अन्य चीजों की तरह हमारी अर्थव्यवस्था भी चरमराकर ढह रही है। देश पर तारी असहिष्णुता, आक्रोश और अवसाद ने मोदी सरकार के बजट 2020 की प्रस्तुति की पूर्व संध्या पर माहौल को एकदम मलिन बना दिया है। वित्त मंत्रालय के तलघर में बजट पूर्व का हलवा हमेशा की तरह पका और बंटा है, पर वित्तमंत्री सहित बजटीय कार्य से जुड़े तमाम लोगों के चेहरों पर गहरी चिंता की लकीरें साफ दिखती हैं।

महंगाई लगाम तुड़ाकर भाग रही है, उत्पादन, निर्माण कार्य, निर्यात सब लगभग ठप हैं और विटामिन का इंजेक्शन देने वाली विदेशी पूंजी की बहुप्रतीक्षित आवक, निवेशकों के बीच भारत की अर्थव्यवस्था तथा नागरिक आंदोलनों को लेकर खड़ी शंकाओं के कारण नहीं हो रही। बैंकिंग क्षेत्र का राजा, भारतीय रिजर्व बैंक भी हाथ खड़े कर चुका है कि बतौर एक केंद्रीय बैंक हम जितना कर सकते थे, कर चुके। आगे रेट काटना हमारे लिए असंभव है। मंदी और मुद्रास्फीति से निबटने के लिए जो कतरब्योंत करनी है, जो राजकोषीय घाटा पाटना है, उस सब का निबटान मंत्रालय अपनी ही मशीनरी से ही करे।

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मंहगाई की आवक नई नहीं और न ही हुक्मरान इससे अनजान थे। दिसंबर में जारी सालाना सरकारी सर्वेक्षण पर आधारित उपभोक्ता खरीदारी सूचकांक (कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स) ने दिखा दिया था कि घरेलू उपभोक्ताओं का औसत खर्चा 7.35 फीसदी अधिक हो गया है। पर सरकार ने उन अप्रिय आंकड़ों की विश्वसनीयता पर ही सवालिया निशान लगाकर उनको तलघर भेज दिया। फिर एक नई समिति पूर्व मुख्य संगणनाधिकारी प्रणव सेन की अगुआई में बनवाई गई जो सर्वेक्षण से मिले ब्योरों को दोबारा पढ़कर बजट के बाद अपनी आप्त राय देगी।

पर कागद की लेखी क्या पढ़ना जब आंखिन की देखी साफ दिखाती है कि चंद महीनों में प्याज सरीखी जरूरी जिनिस के दामों में 356 फीसदी उछाल आ गई है। सभी मौसमी सब्जियों, तमाम तरह के दैनिक खाद्यान्न और पेट्रोल की कीमतें सबमें आग लगी है और मध्य एशिया में मची मारकाट के चलते पेट्रो कीमतें जल्दी कम होने वाली नहीं। तिस पर कंगाली में आटा गीला कहावत चरितार्थ करते हुए टिड्डियों के दल राजस्थान, गुजरात से पंजाब तक खड़ी फसलें चर रहे हैं। तमाम बाजार सुनसान हैं, और दूध के जले बैंक नए लोन देने के नाम से बिदक रहे हैं। जब एयर इंडिया सरीखे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम को भी बेचने की घड़ी आ चुकी हो, तो आपै कहिये हम भारतवासी किस तरह मानें कि सब चंगा सी?

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वित्त मंत्री असहाय हैं क्योंकि डेटा ही सही ज्ञान का आधार है। पर चुनावी मशीन बन बैठी उनकी पार्टी को अप्रिय डेटा फाटा नहीं चाहिए। वह बजट के बहाने बस एक ऐसा रामबाण नुस्खा चाहती है, जिससे वह लगातार लामबंद हो रहे विपक्षी दलों को दिल्ली से बिहार-बंगाल तक के तमाम चुनावों में जमीन सुंघा सके। पिछले छ: सालों में हमारे बजट और चुनाव दोनों एक गंभीर कवायद नहीं, रंगारंग रामलीलाएं बन चुके हैं। असमय किसी अनचाहे युवराज का निष्कासन, विपक्षी दलों से कपट से सदस्य हरण, किसी बूढ़े जटायु के पंख ईडी की तलवार से काटना, पुराने रूठे सहयोगियों से टीवी कैमरों के सामने भरत मिलाप, किसी दलित केवट या शबरी के घर फर्श पर बैठ कर जीमना, हलवे की कढ़ाही पर वंदना जैसे तमाम नाटकीय प्रसंग शामिल किए जा चुके हैं। इनको गोदी मीडिया पूरी भक्ति से देश को दिखाता रहता है। और जनता का काम है इस लीला को देखना।

सालाना बजट सत्र भी अब गंभीरता से संचित सही वित्तीय मौद्रिक लेखे-जोखे की संसदीय चर्चा नहीं, पहली फरवरी को दम साध कर नेशनल टीवी पर लगातार प्रसारित एक महाकुंभ बन गया है। उसकी धारा में एक डुबकी लगाकर वित्तमंत्री मंच को शेष पात्रों के हवाले कर देती हैं। अनुभवी संपादक जानते हैं कि यह माया मरीचिका है, असल खेल कहीं औरै चल रहा है। अरे अगर ऐसा है तो, तो आप इसका पर्दा उघाड़कर वह नेपथ्य जनता को क्यों नहीं दिखा देते जहां रावण, जनक, हनुमान और विभीषण एक साथ बैठे चाय पी रहे हैं, सीता जी साड़ी ठीक कर रही हैं और राम जमुहा रहे हैं?

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नहीं, मीडिया वह सब नहीं उघाड़ेगा क्योंकि उसके मालिकान और कंपनी के शेयरधारकों के निजी हित-स्वार्थ सरकार की निंदा में आड़े आ जाते हैं। वित्त मंत्री से मिली एक एक्सक्लूसिव बाइट से पत्रकारों के करियर बन जाते हैं। पीएम से दुर्लभ साक्षात्कार (चाहे वह आम की किस्मों पर ही क्यों न हो) ब्रह्मानंद का चरम क्षण है। रिजर्व बैंक और नई पुरानी सरकारों से जुड़े वित्तशास्त्री सांप-न्योले, मोर और बाघ की तरह मीडिया के घाट पर एक साथ पेश करने वाला बजटीय उपक्रम वह वार्षिक कुंभ है ,जहां सब अखाड़े अपने चीमटे बजाते हुए अपने खेमे, चेले और सवारियां लेकर आते हैं। एक डुबकी और स्वर्ग आपका।

जमीनी धरातल पर आज भी भारत सरकार के सामने मुनाफा कमाई (ईडी सरीखी तमाम वित्तीय निगरानी एजेंसियों की बड़े-बड़े उद्योगों पर लगातार छापेमारी और लंबी अदालती कार्रवाइयां साबित करती हैं) पाप है, और नया उद्योग लगाना अब किसी जोखिम पसंद देसी या विदेशी उपक्रमी के लिए आजीवन पापी होने का बायस बन सकता है, वे स्वदेशी मूल्यों में आस्था और सरकारी नियम-कायदों के प्रति प्रतिबद्धता का लगातार सार्वजनिक प्रदर्शन न करें तो (अनलेस अदरवाइज डिसप्रूवन)।

भारत के किसी बड़े धार्मिक मेले का सारा पाखंड बजट काल में नजर आता है। तट पर जिजमान के इंतजार में खड़े तरह-तरह के शेयर मार्केट विशेषज्ञ, चार्टर्ड अकाउंटेंट और बड़े बाबू लोग हैं जो आशीर्वाद देकर एवज में चुनाव दर सच्ची आर्थिक उपक्रमिता और विश्व बाजार के स्वीकृत नियमों का गया श्राद्ध करते रहते हैं। विदेशी पूंजी न्योतने का स्वीकृत तरीका है कि एक आह भर कर समूची प्रेमिका को एकबारगी से हथियाया जाए, जबकि आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक।

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एक उम्र तौबा! विदेशी पूंजी के लिए पूरे पांच साल इंतजार? हम उस पूंजी को ब्याह कर तबादलों, विजिलेंस के छापों और फैक्टरी इंस्पेक्टरों की खुर्दबीनों का क्या हो? अत: बजट को चाहिए बस एक सत्र जो निबट गया तो फिर इहलोक-परलोक किसी की चिंता नहीं। संचित किए गए डेटा का तकलीफदेह लंबा अध्ययन काहे? शेरो-शायरी और कविता पाठ से लेकर चुटकुलों तक से सजी हुई चट मंगनी पट चुनाव वाली बजट की इस नायाब किस्म का सीधा रिश्ता लालकिले पर लहरदार पाग पहनकर परेड के औचक निरीक्षण और खोलते ही फूलों की बरसात करने वाला झंडा फहराने से जुड़ता है।

साफ और कड़वी बातें कही हैं, विश्व के जानेमाने सफल उपक्रमी ज्यॉर्ज सौरोस ने। उनके अनुसार डरावने बन चले लोकतंत्र भारत ने उनको बहुत निराश किया है। उधर यूरोपीय महासंगठन ने भी धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर आधारित भारतीय नागरिकता कानून के विभाजनकारी संशोधन और उस पर सारे देश में उमड़े जनांदोलनों पर भारत की कड़वी आलोचना करते हुए इसको दुनिया का सबसे बड़ा नागरिकता संकट बताकर कहा कि संविधान में नागरिकता निर्धारण में धर्म की खिड़की खोलना, कश्मीर में गहरी मानवीय पीड़ा और मानवाधिकार हनन के जो उदाहरण पेश कर रहा है, वे चिंतित करने वाले हैं।

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मजा ये कि जनता से इस बाबत सीधी बातचीत से इनकार करती रही सरकार ने तुरंत यूरोपीय यूनियन से कहा है कि वह अपने वरिष्ठ प्रतिनिधि को भेजकर सफाई दे रही है। भीतरखाने अलबत्ता भारत के तेवर वही कुंभ नहाकर लौटे तीर्थयात्री वाले हैं। शिव शिव! ये बाहरिये लोग हमारी भारतीय धार्मिक परंपरा, हमारी देशहित के प्रति गहरी निष्ठा में कैसे हस्तक्षेप कर सकते हैं? यह हमारा अंतरंग मामला है।

दिक्कत यह है कि मन समझाने के लिए भी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश की सरकार नहीं कह सकती कि हम बाकी सबको नागरिकता देने को दरवाजे खुले रखेंगे पर संविधान में अल्पसंख्यक शरणार्थी निरोधी संशोधन करना जरूरी था, क्योंकि बतौर शरणार्थी उनकी कौम सारी दुनिया में शक के दायरे में है। सच यह है कि पश्चिमी समृद्ध देशों में हर कहीं आव्रजकों की बाढ़ रोकने के नियम कठोरता से लागू हो रहे हैं, लेकिन सिर्फ एक अल्पसंख्य विशेष समुदाय के खिलाफ आव्रजन नीतियां कहीं नहीं हैं। उनको आतंकवादी गतिविधियों से एतराज है, समाज में कुछ वर्गों की घुलनशीलता से एतराज है, लेकिन एक बार किसी भी समुदाय का मनुष्य उनके देश का नागरिक बन जाए, तो देश की न्याय और दंड व्यवस्था तक उसकी वही पहुंच होगी, जो अन्य नस्लों के नागरिकों की।

सौ बात की एक बात ये, कि छ: बरसों में पूर्ण बहुमत के साथ देश प्रेममय देसी शैली से आर्थिक तरक्की करने की राह उनके आगे पूरी तरह खुली रही फिर भी न तो अर्थव्यवस्था बेहतर बनी, न ही कानून-प्रशासन कर्मठ और न्यायप्रिय हुआ। तंगदिली और हिंदू शास्त्रों के रूढ़िवादी विजन से चिपके रहकर हमने सदियों की गुलामी झेली। आज हठधर्मी हिंदुत्व की इस बाढ़ के बीच वैश्विक राजनीति और ग्लोबल अर्थजगत की जो सरलीकृत सतही समझ हम देख रहे हैं पता नहीं हमको किधर ले जाएगी?

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