विचार

मृणाल पांडे का लेख: साइबर स्पेस में किसान बनाम कॉरपोरेट युद्ध और सकपकाती बाजार की ताकतें

किसानों की ऐतिहासिक लड़ाई अब जमीन से उड़कर अक्कास यानी साइबर स्पेस में जा पहुंची है। फौरी वजह यह कि किसान संगठनों ने ‘किसान एकता मोर्चा’ नामक अपना एक नया पन्ना फेसबुक पर खोल कर गोदी मीडिया के निरंतर दुष्प्रचार की काट करना चालू कर दिया है।

नवजीवन (फोटो : Getty Images)
नवजीवन (फोटो : Getty Images) 

साल 2020 अपनी स्याह परछाइयां लिए-दिए हमसे विदा हो रहा है। इस साल जितना कुछ, जिस तरह घटा, वह हमारे जीवन में कई युगांतरकारी बदलावों का आगाज कर रहा है। पर ऐसी घटनाएं शून्य से नहीं प्रकटतीं। उनके बीज काफी पहले ही बोये जा चुके होते हैं। युगों पहले महिषासुर नाम का एक किरदार प्रकटा था। उसके सामने कहते हैं बड़े-बड़े देवताओं ने अपने हथियार डाल दिए। फिर हारे-थके देवता एकजुट हुए। अपनी संगठित ताकतों से दुर्गा को गढ़ कर उन्होंने उनसे विनती की, मां अब तुम ही रक्षा करो। अजेय होने के घमंड में चूर महिषासुर ने देवी को अपमानजनक तरीके से चुनौती दी- चल सुंदरी, मुझसे जल, थल और आकाश में युद्ध कर दिखा, कौन कितने पानी में है। युद्ध लड़ा गया साहब और उसका खूनी अंत हम सब जानते हैं।

आज वही युगों पुरानी कथा, बाहरी मेगा कंपनियों की हमारे देश की किसानी में घुसपैठ के खिलाफ लामबंद किसानों की लड़ाई देखकर फिर याद आ गई। लड़ाई जो अब तक लोकतंत्र के तीन अखाड़ों- संसद, सड़क और साइबर स्पेस में एक साथ चुनौती दे रहे तत्वों से एक साथ लड़ी जा रही है।

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एक महीने से लाखों किसान भारत सरकार के मुखर मुखिया और महामहिम भाग्य विधाता से इन कॉरपोरेट ताकतों की घुसपैठ की राह प्रशस्त कर रहे तीन नए किसानी कानूनों की बाबत उनसे सीधे बात करने और जनहित में उनको वापिस लेकर संसद से संशोधित कराने को आतुर सड़कों पर हैं। लेकिन आकाशवाणी पर हर सप्ताह मन की बात प्रसारित करने वाले, देश के तमाम मठों, मंदिरों, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय समारोहों, गुरुद्वारों और विश्वविद्यालयीन गोष्ठियों में अपनी मुखर उपस्थिति दर्ज कराते रहे माननीय प्रधानमंत्री ने जनता के 60 प्रतिशत भाग- इन किसानों से एक बार भी आमने-सामने बैठकर दुतरफा बातचीत नहीं की है।

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यह ऐतिहासिक लड़ाई अब जमीन से उड़कर अक्कास यानी साइबर स्पेस में जा पहुंची है। फौरी वजह यह कि किसान संगठनों ने ‘किसान एकता मोर्चा’ नामक अपना एक नया पन्ना फेसबुक पर खोल कर गोदी मीडिया के निरंतर दुष्प्रचार की काट करना चालू किया। साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा की कि उनकी राय में रिलायंस की ‘जियो’ कंपनी चूंकि छोटे-मंझोले किसानों और मंडियों को घातक धक्का देने वाली परदेसी मेगा कंपनियों को नई खरीद- फरोख्त और कॉरपोरेट खेती को जमवाने के लिए साइबर दुनिया में एक ठोस मंच प्रदान कर रही है, किसान उसका भी हुक्का- पानी बंद करें। इसी के साथ फेसबुक पर अचानक नए दांव-पेच दिखे। किसानी पन्ना बंद कर दिया गया। किसानों ने उस पन्ने को ‘यू ट्यूब’ चैनल पर खोल लिया, पर फेसबुक की काफी आलोचना हुई। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक फेसबुक ने बंद किसानी पन्ने को बहाल तो कर दिया है लेकिन नए मीडिया और नए बाजार की ताकतों के गठजोड़ पर बात निकली है तो दूर यानी जल, थल और नभ तलक जाएगी।

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हिंदी के नामचीन समालोचक नामवर सिंह ने अपनी मृत्यु से कुछ ही पहले हमको इस चरण के प्रति आगाह किया था जो सांस्कृतिक मुहावरों की ओट लेकर छल से बाजारू कॉरपोरेट हितों को बढ़ाता है: “आज का हिंदू फासीवाद एक प्रकार का सांस्कृतिक छल है। बाजार के कारोबार में भूमंडलीकरण, लेकिन संस्कृति के मामले में स्वदेशी... आज विश्व बाजार का है, हिंदू संस्कृति सिर्फ वाणी का विलास है... अगर इंटरनेट वेबसाइट अपनी तिजोरी भरती जाती है तो हिंदू संस्कृति का गुन गाते रहने में उसकी अपनी गांठ का क्या जाता है?... निराला ने (राम की शक्ति पूजा में) कहा भी है, ‘अन्याय जिधर है, उधर शक्ति,’ यानी न्यायकारी ताकतें बिखरी हुई हैं...।’’ यह बात आज जितनी सच है, पहले नहीं थी।

साल के अंत में इकत्तीस किसान संगठनों के मोर्चे ने दिल्ली की सीमा पर अपना जो दुर्गावतारी (दुर्गेण जायते इतिदुर्गा- जिसे बमुश्किल जीता जा सके) मोर्चा खोल दिया है। मीडिया इसको भरपूर कवर नहीं दे रहा पर फिर भी साफ दिखता है कि विभिन्न मीडिया कंपनियों की समवेत मालिकी पर रोक लगाने का कानून नहीं होने से अधिकतर बड़ी मीडिया कंपनियां अब मेगा औद्योगिक घरानों के पास हैं। और उनके अपने रिटेल हित सीधे ग्लोबल कंपनियों से जुड़ते हैं। लिहाजा किसानों पर कम, कंगना रनौत पर अधिक बात करो! इस बीच मीडिया गली की मार्फत कई बड़े देसी-परदेसी उपक्रमी सीधे हर किसम की जिनिस बेचने वाले विशाल भारतीय बाजार में घुसते जा रहे हैं। मीडिया में उनका भरपूर प्रचार खुदरा व्यापारियों और किसानों के लिए खतरे की घंटी है।

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यह कोई संयोग नहीं कि फेसबुक से लेकर ट्विटर तक सबने जियो का मेगा प्लेटफॉर्म शुरू होते ही उसमें भारी निवेश किया। इनमें सबसे पहले निवेशक ट्विटर और फेसबुक थे जिनको एलेक्सा ने अपनी सर्वमान्य रेटिंग की फेहरिस्त में दुनिया की 10 शीर्ष कंपनियों और तीन शीर्ष मीडिया वेबसाइट्स में गिना है। 2020 की शुरुआत में कोविड की आमद ने लोगों को घरों में रोक कर बाजारों, छापाखानों को बंद करवा दिया। अगले दसेक माह आम जनता तथा किसानों का बाजार से सीधा पुराना रिश्ता खत्म होता गया। अखबारों से लेकर किराना या कपड़ों तक की खरीद-बिक्री और वितरण के पुराने तरीके बदले। और मीडिया बड़े रिटेलरों के लिए रचे नए तरीकों से घरेलू बाजार को बहुत तेजी से बड़े डिजिटल माध्यमों की तरफ ले जाने लगा।

प्रमाण यह कि अमेजन-जैसी कंपनियों के रजिस्टर्ड गाहकों की तादाद 60 फीसदी बढ़ी है जबकि पुराने खुदरा बाजार में माल तथा गाहक- दोनों की आवक तेजी से गिरी है। इसी नाजुक समय में संसद के सीमित सत्र में अपने बाहुबल से तीन विवादास्पद कानून बिना किसानों को भरोसे में लिए पारित करवा कर सरकार ने भिड़ का दूसरा छत्ता छेड़ दिया। सरकार की मदद को जतन से पालित गोदी मीडिया सामने आया। उसने सीधे-सीधे धरनाकारियों को आतंकी गुट समर्थित, पाकिस्तान समर्थक और विपक्ष द्वारा बरगलाया गया कहना शुरू कर दिया। धरने पर बैठे किसानों ने अब हुड़क कर मीडिया के प्रतिनिधियों को गोदी मीडिया और सरकारी भौंपू कहते हुए दूर भगाकर खुद अपनी उपस्थिति बरास्ते फेसबुक दर्ज कराई और देखते-देखते सात लाख फॉलोअर्स जुटा लिए।

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अब बाजार की ताकतों का सकपकाना सहज बनता था। नामचीन अखबार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ से कांग्रेस के सांसद ने कहा कि उनकी राय में फेसबुक की बहुप्रचारित नैतिकता की पॉलिसियों की तहत फेसबुक द्वारा बजरंग दल जैसी संस्था से जुड़े फेसबुक पन्नों पर किसी तरह का प्रहार न करना कतई गलत था। इस पर भारतीय चीफ साहिब का संसदीय समिति को भेजा बयान आया कि कंपनी बजरंग दल समर्थक पन्नों को देश की सुरक्षा या अपने नैतिक मानदंडों की तहत आपत्तिजनक नहीं मानती। लिहाजा उनकी निरंतर उपस्थिति फेसबुक पर बनी रहेगी। जबकि कुछ ही समय पहले फेसबुक की एक और भारतीय शीर्ष अधिकारी ने खुद को भाजपा समर्थक स्वीकार करते हुए कुछ कार्यकर्ताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई न करने के आरोपों के मद्देनजर पद से इस्तीफा दिया था।

यह ठीक है कि दुनिया के कई और विकासशील देशों की तरह भारत भी अपना पिछड़ापन दूर करने को विदेशी पूंजी निवेश को न्योते और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारतीय सरजमीं पर उत्पाद बनाने के लिए तवज्जो देते हुए नए रोजगार पैदा करे। फिर भी हमसे लगातार लोकल पर वोकल होने को कहने वाले प्रधानमंत्री भी इतना तो मानेंगे ही कि उनके अबाध प्रवेश पर अंकुश लगाकर यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि हमारे घरेलू हित महफूज रहें।

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सोशल मीडिया पर नए सरकारी कानून लागू कराके उसकी मुश्कें कसने की खबरों के बीच किसानों के सोशल मीडिया प्रयासों की रोकथामक से एक धारणा सही हो कि गलत, बलवती ही होती रहेगी कि सोशल मीडिया पर जनसाधारण को सरकार समर्थक मीडिया की तुलना में हासिल अभिव्यक्ति की लोकतांत्रिक आजादी सीमित है। और जो है, वह भी जल्द ही सरकार की कॉरपोरेट तबके के प्रति सदयता और तमाम तरह की छूटों से लाभान्वित न्यस्त स्वार्थी ग्लोबल कंपनियों की चली तो वह और भी सिमटती चली जाएगी।

अगर पांच लाख गांवों के इस देश में लोकतंत्र रखना है तो सरकार को इकतरफा बातचीत और प्रश्नाकुल जनता का दमन नहीं, प्यार से समय रहते उसकी भी सुनना उससे सीखना होगा। हमारा समाज संस्कृति, पर्यावरण, विकास, शिक्षा इन पर टुकड़ा-टुकड़ा सोचने या उबाऊ लेक्चरों का आदी नहीं है। किसानी मुहावरे में सोचें तो दिसंबर, 2020 तक पुरानी फसल कट चुकी है। अब नई खेती का समय आ रहा है जिसका अपना अलिखित और कालातीत कुदरती संविधान है। नई प्रौद्योगिकी, नए ऑनलाइन विपणन के तरीके जरूर अपनाओ, लेकिन धरती के सनातन नियमों- कायदों और किसानी की चुनाव क्षमता को भी निरंतर बनाए रखो। वरना जैसे नलकूपों ने भूजल को खत्म कर दिया, और रासायनिक उर्वरकों ने नदियों को मार डाला, यह नया साइबर बाजार भी पुराने को मटियामेट करने के बाद हाथ झाड़ कहीं और चल देगा।

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