विचार

खरी-खरी: मोदी तिलिस्म और मीडिया का मुखौटा तोड़ नई राजनीति ज़मीन तैयार कर रहा किसान आंदोलन

किसान अब अपनी मांगों के साथ-साथ अपने आंदोलन को राजनीतिक स्वरूप भी दे रहा है। इस लक्ष्य के साथ किसान नेता आंदोलन को केवल दिल्ली बॉर्डर तक सीमित करने के बजाय गांव-गांव और शहर- शहर फैलाकर इसको और गहरा एवं सरकार विरोधी बना रहे हैं।

फोटो : Getty Images
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किसान आंदोलन ने तीन महीने पूर कर लिए हैं। 26 नवंबर को संविधान दिवस के दिन शुरू हुए इस आंदोलन के लिए यह गर्व का समय है। क्योंकि भारतीय इतिहास में यह पहला किसान आंदोलन है जो लगभग पूरी तरह से शांतिपूर्वक इतनी सफलता से चलता रहा और अभी भी अपनी आब-ओ-ताब पर है। मीडिया और विरोधियों की ओर से किसान नेताओं के बीच फूट पैदा करने और आंदोलन को ‘देशद्रोही’ की संज्ञा देने की भी कोशिश हुई। टीवी पर इस आंदोलन को ‘खालिस्तानी’ और ‘पाकिस्तानी’ कहा गया। परंतु इस आंदोलन को ‘सिख बनाम देश’ का स्वरूप देने का षडयंत्र विफल रहा। अभी भी मीडिया का एक गुट किसान विरोधी प्रचार में व्यस्त है।

अब यह कहा जा रहा है कि दिल्ली के बॉर्डर पर इकट्ठा भीड़ छंटती जा रही है। समाचारों में कुछ ऐसा रंग दिया जा रहा है, मानो किसान अब आंदोलन से ऊबकर संघर्ष से भाग रहा है। यह बात सच है कि सिंघु और गाजीपुर बॉर्डर पर भीड़ कम हुई है। परंतु यह स्वयं किसान नेताओं का अपना सोचा-समझा फैसला है। नेताओं ने स्वयं यह घोषणा कर दी है कि किसान दिल्ली बॉर्डर पर आते-जाते रहें। इसका कारण यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में गन्ने की फसल कटाई के लिए खड़ी है। फिर एक महीने के अंदर गेहूं की कटाई का काम शुरू हो जाएगा। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए ये दोनों फसलें अहम हैं। यह जानते हुए किसान नेताओं ने संघर्षरत किसानों को सलाह दी है कि वे बॉर्डर छोड़ें नहीं लेकिन साथ-साथ फसल कटाई का काम भी करते रहें। स्पष्ट है कि इस स्थिति में बॉर्डर पर भीड़ कम होगी। इसका यह अर्थ नहीं कि किसानों की रुचि आंदोलन में कम होती जा रही है।

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किसान आंदोलन के तीन महीने पूरे होने पर सत्य तो यह है कि इस आंदोलन ने एक नया और व्यापक स्वरूप ले लिया है। किसान नेताओं ने अब अपनी रणनीति बदल दी है। यह आंदोलन अब केवल कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन नहीं रहा। यह अब केवल विरोध एवं धरना- प्रदर्शन जैसा आंदोलन नहीं रह गया है। बल्कि तीन महीनों के भीतर ही किसान आंदोलन एक राजनीतिक स्वरूप ले चुका है। किसानों का उद्देश्य अब केवल विवादास्पद तीन किसानी कानूनों को खत्म करवाना नहीं रह गया है। किसान तीन महीनों में समझ चुका है कि सरकार इन कानूनों को लेकर झुकने को तैयार नहीं है। अतः अब किसान नेताओं का लक्ष्य भारतीय जनता पार्टी को चुनावी मैदान में परास्त करने का भी है। क्योंकि वे अब साफ तौर पर कह रहे हैं कि जब तक यह सरकार सत्ता में है, तब तक ये कानून नहीं बदले जाएंगे। अतः किसान अब अपनी मांगों के साथ-साथ अपने आंदोलन को राजनीतिक स्वरूप भी दे रहा है। इस लक्ष्य के साथ किसान नेता इस आंदोलन को केवल दिल्ली बॉर्डर तक सीमित करने के बजाय गांव-गांव और शहर- शहर फैलाकर इसको और गहरा एवं सरकार विरोधी बना रहे हैं। इसी लक्ष्य के फलस्वरूप अब किसान नेताओं का ध्यान महापंचायतों की ओर है। पिछले एक महीने के अंदर किसानों ने पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अनगिनत महापंचायतें कर डालीं जिनमें अपार जनसमूह उमड़ा। अभी भी यह कार्यक्रम सफलतापूर्वक नगरों एवं गांवों में चल रहा है। क्योंकि किसानों का लक्ष्य अब बीजेपी को चुनावों में नुकसान पहुंचाने का है।

हाल में पंजाब नगर पालिका चुनाव के नतीजों से स्पष्ट है कि किसान नेताओं की रणनीति सफल भी हो रही है। इसका दूसरा निशाना अप्रैल व मई में होने वाले उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव हैं। फिर किसान नेता यह भी कह रहे हैं कि वे उन प्रदेशों में भी महापंचायत आयोजित करेंगे जहां-जहां आने वाले दिनों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।

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अब यह स्पष्ट है कि तीन महीनों के भीतर ही किसान आंदोलन अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका है। इसका पहला चरण किसानी कानूनों की विरोध कर इन कानूनों के खिलाफ किसानों को एकजुट करना था। इसके लिए उन्होंने दिल्ली बॉर्डर पर धरने की रणनीति अपनाई और रणनीति सफल रही। किसानी कानूनों के खिलाफ केवल पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु में भी इस आंदोलन की धमक है।

यह भी स्पष्ट है कि देश में जहां भी बड़ी संख्या में किसान हैं, वहां-वहां किसान आंदोलन के प्रति सहानुभूति है। अतः इस सफलता के बाद किसान अब अपनी रणनीति बदलकर आंदोलन को बड़ी गति से दूसरे चरण में राजनीतिक स्वरूप दे रहे हैं। इस स्वरूप में किसान का संघर्ष अब केवल मोदी सरकार को किसानी कानून पर झुकाना ही नहीं बल्कि बीजेपी को चुनाव में सबक सिखाना भी है। किसानों को अपने इस लक्ष्य में भी कुछ सफलता प्राप्त हो रही है। पंजाब का नगर पालिका चुनाव इसका उदाहरण है। केवल यही नहीं, इस संघर्ष की दूसरी बड़ी राजनीतिक सफलता यह है कि नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद से बीजेपी ने देश में अल्पसंख्यक विरोधी घृणा की राजनीति का एक अत्यंत सफल जो ‘नैरेटिव’ बनाया था, वह किसी हद तक विफल हुआ है। देश में इस समय गहरा आर्थिक संकट है। देश की राजनीति ऐसे समय में अल्पसंख्यक विरोध के बजाय गहरे आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित होनी चाहिए। परंतु मोदी जी के तिलिस्म ने पिछले छह वर्षों में विपक्ष के इस प्रयास को सफल नहीं होने दिया। तब ही तो देश नोटबंदी की भीषण समस्या सह कर भी बीजेपी को विजयी बनाता रहा।

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परंतु किसान संघर्ष ने मोदी जी के तिलिस्म को ढीला कर दिया है। अभी भी मोदी देश के सबसे बड़े नेता हैं। परंतु अब केवल अकेली उनकी आवाज नहीं जो सुनी जा रही है। किसानों ने देश को एक नया राजनीतिक ‘नैरेटिव’ दिया है जिस पर लोग कान दे रहे हैं। केवल इतना ही नहीं, देश के कुछ भागों में चुनाव भी किसानों के मुद्दों पर हो रहे हैं। यह नरेंद्र मोदी और बीजेपी के लिए चिंता का विषय है।

तीन महीनों के भीतर किसान आंदोलन की दूसरी बड़ी राजनीतिक सफलता यह है कि इस आंदोलन ने बीजेपी के ब्रह्मास्त्र मीडिया की छवि भी तोड़ दी। 2014 से लेकर अब तक मोदी की सफलता में भारतीय मीडिया की बड़ी अहम भूमिका रही है। वह 2014 में मोदी का उदय रहा हो अथवा नोटबंदी या फिर बालाकोट एयर स्ट्राइक- भारतीय मीडिया के अधिकतर हिस्से ने मोदी जी के पक्ष में खुलकर समाचार देने का ही नहीं बल्कि मोदी प्रचार का रोल भी निभाया है। मीडिया की इस सफलता से बीजेपी को बड़ी सफलताएं प्राप्त होती रहीं। परंतु किसान आंदोलन को जिस प्रकार मीडिया ने ‘खालिस्तानी’ एवं ‘देशद्रोही’ स्वरूप देने की चेष्टा की, उससे मीडिया की छवि को गहरा धक्का लगा। आज मीडिया की ‘गोदी मीडिया’ संज्ञा जनता के बहुत बड़े हिस्से की जुबान पर है। इससे केवल मीडिया की छवि ही धूमिल नहीं हुई बल्कि मीडिया जो मोदी सेवा कर रहा था, उसको भी क्षति पहुंची है। यह स्वयं मोदी जी के ही नहीं बल्कि संपूर्ण बीजेपी के लिए एक गहरा धक्का है क्योंकि अब ‘बीजेपी नैरेटिव’ पर लोगों के अंध विश्वास में कमी आएगी जिससे बीजेपी को राजनीतिक क्षति होगी।

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यदि आप पिछले तीन महीनों में किसान आंदोलन पर एक नजर डालें तो यह स्पष्ट नजर आता है कि इस छोटी-सी मुद्दत ने किसी हद तक बीजेपी सरकार के दांत खट्टे कर दिए। इस समय किसान आंदोलन का स्वरूप कुछ वैसा ही जैसा कि 1970 के दशक के आरंभ में जेपी आंदोलन का था। उस समय जेपी आंदोलन बिहार एवं गुजरात के केवल छात्रों तक वैसे ही सीमित था जैसे इस समय किसान आंदोलन केवल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों तक सीमित है। परंतु जैसे-जैसे बांग्लादेश युद्ध के बाद देश में आर्थिक संकट बढ़ता गया, वैसे-वैसे छात्रों के साथ-साथ दूसरे वर्ग भी जुड़ते चले गए जिसने जेपी आंदोलन को एक संपूर्ण ‘हिंदी बेल्ट’ के आंदोलन का स्वरूप दे दिया। इस समय भी देश में आर्थिक संकट चरम पर है। देश में बेरोजगारी आसमान छू रही है। करोड़ों की संख्या में विचलित नौजवान रोष में सरकार विरोधी टाइम बम हो रहा है जो किसी भी समय फट कर किसी भी आंदोलन से जुड़ सकता है। केवल युवा ही नहीं, छोटे काम-धंधे करने वाला निम्न मध्यवर्ग भी आर्थिक संकट से परेशान है। यह वर्ग भी कभी भी बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर सकता है। यदि किसान आंदोलन ऐसे ही राजनीतिक स्वरूप लेता रहा जैसा कि पिछले तीन महीनों में इसने राजनीतिक रूप लिया है, तो यह भी संभावना है कि यह आंदोलन एक जेपी एवं अन्ना आंदोलन का स्वरूप ले ले। निःसंदेह यह बीजेपी के लिए चिंता का विषय बन चुका है।

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