विचार

पहले शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों को देशद्रोही और अब किसानों को खालिस्तानी कहने से देश को लंबे समय में होगा नुकसान!

शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों को देशद्रोही और विरोध प्रदर्शन करने वाले किसानों को खालिस्तानी कहने से देश को लंबे समय में नुकसान ही होगा। अहंकार से सुशासन नहीं आता। सरकार को आग से खेलने से बाज आना चाहिए।

फोटो: Getty Images
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शाहीन बाग धरने को महामारी की वजह से खत्म करना पड़ा। आजाद हिन्दुस्तान में पहली बार मुस्लिम महिलाएं घर से बाहर आईं और उन्होंने नए नागरिकता संशोधन कानून और प्रस्तावित एनआरसी का विरोध शुरू किया। मौसम तब भी कम बेरहम नहीं था। लेकिन इन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी। 14 दिसंबर, 2019 को विरोध प्रदर्शन शुरू किया और तब तक जारी रखा जब तक पैर पसारती महामारी ने उन्हें कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर नहीं कर दिया। महामारी से ऐन पहले मैं शाहीन बाग गया था और अभी 26 दिसंबर को सिंघु बॉर्डर गया जहां नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। शाहीन बाग में लोग नए नागरिकता कानून को वापस लेने की मांग कर रहे थे, सिंघु बॉर्डर पर जमे लोग कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं।

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सिंघु बॉर्डर जाने से मुझे यह बात तो कायदे से समझ में आ गई कि जो लोग दोनों विरोध प्रदर्शनों में रिश्ता खोजने में जुटे हुए हैं, वे दोनों ही प्रदर्शनकारियों के साथ अन्याय कर रहे हैं। जो लोग कहते हैं कि किसानों के विरोध के पीछे वही लोग हैं जो शाहीन बाग के विरोध के पीछे थे, वे दरअसल प्रदर्शनकारी किसानों की चिंताओं का अपमान कर रहे हैं। हां, इनमें एक बात जरूर आम है कि दोनों स्थलों पर प्रदर्शनकारी बीजेपी के बहुमत वाली संसद से बने नए कानूनों के विरोध के लिए सड़क पर निकले।

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सिंघु बॉर्डर पर पहुंचते ही यह साफ हो जाता है कि प्रदर्शनकारी किसानों में ज्यादातर पंजाब और हरियाणा के हैं और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि यह इलाका दिल्ली-चंडीगढ़ हाईवे पर है। दोनों मामलों में जोशो खरोश भी एक-सा है लेकिन कई मामलों में ये दोनों प्रदर्शन अलग हैं। चूंकि शाहीन बाग का विरोध जामिया विश्वविद्यालय में हिंसा के दो दिन बाद शुरू हुआ, इस पर छात्रों और शिक्षाविदों का प्रभाव था। शाहीन बाग में इंडिया गेट की प्रतिकृति बनाई गई थी, पुस्तकालय बनाए गए थे, ऊंची कक्षाके छात्र नीचे की कक्षा के छात्रों को पढ़ा रहे थे और देशभक्ति के गीत गाए जा रहे थे। लेकिन सिंघु सीमा पर नजारा अलग है। हर पचास मीटर पर मेडिकल स्टॉल और डॉक्टर। जगह-जगह मुफ्त में इलाज हो रहा है। लंगर चल रहा है। कुछ लोग तो ब्रेड बनाने की मशीन और देसी गीजर भी लेकर आए हैं। चूंकि विरोध करने वाले किसान संपन्न हैं, वे बड़ी संख्या में जरूरत की हर चीज का खर्च उठाने की स्थिति में हैं।

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प्रदर्शन स्थल कई किलोमीटर में फैला हुआ है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, पिज्जा और अन्य खाद्य पदार्थों के लिए लंबी कतारें दिखाई देती हैं। फुटपाथ पर खड़े होकर लोग मूंगफली, नमकीन वगैरह बांट रहे हैं। ठंड के इस मौसम में चाय की बड़ी तलब महसूस होती है, सो जगह-जगह इसका इंतजाम है। लेकिन कहीं नॉन-वेज खाना नहीं है। किसान अच्छी तरह जानते हैं कि शाहीन बाग के प्रदर्शन को बिरयानी के नाम पर बदनाम किया गया इसलिए ऐतिहासिक रूप से सिख-मुस्लिम एकता के लिए प्रसिद्ध मालेरकोटला के मुस्लिम किसान जर्दा बांट रहे हैं, न कि बिरयानी। जर्दा मुस्लिम समारोहों में परोसा जाने वाले मीठे चावल को कहते हैं। दरअसल, यहां देघ देखकर हम भी रुक गए थे। देघ वह बर्तन है जिनमें आमतौर पर बिरयानी बनाई जाती है। लेकिन नजदीक लगे टेंट पर लटके इस बोर्ड को देख-पढ़कर हम भी मुस्कुराए बिना नहीं रहेः आपकी आंखों पर पर्दा है, यह बिरयानी नहीं जर्दा है।

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सिंघु बॉर्डर पर प्रदर्शनकारी ज्यादा मुखर हैं। वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या गृहमंत्री अमित शाह के खिलाफ बोलने से कतराते नहीं। कार सेवा करने वाले युवाओं और किशोरों को भी पता है किवे यहां क्यों हैं, उनकी मांग क्या है और वे यह सब बताने को भी तैयार हैं।

सिंघु बॉर्डर पर एक चीज बिल्कुल नई है और वह है बड़ी तादादमें घोड़ों की मौजूदगी। निहंग सिख घोड़ों पर पंजाब से आए हैं। एक ओर खुद को जंजीरों से बांधकर नए कृषि कानूनों के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार करता एक किसान दिखा। विरोध स्थल पर दिए जा रहे भाषणों की लाइव स्ट्रीमिंग का इंतजाम किया गया है। इतना तो साफ है कि सिंघु बॉर्डर और शाहीन बाग का नजारा और इनमें भाग लेने वाले बिल्कुल अलग हैं लेकिन दोनों में जोशो खरोश तो एक-जैसा ही दिखता है।

कड़कड़ाती ठंड के बीच सड़क पर डेरा जमाए किसानों को एक माह से ज्यादा समय हो चुका है और सरकार इस विरोध प्रदर्शन को बदनाम करने के लिए कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ रही। वह इन लोगों की मांग पर गौर करने को तैयार ही नहीं। हालां कि ये प्रदर्शनकारी किसान शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों से ज्यादा खुशकिस्मत हैं क्योंकि सरकार उनसे बात कर रही है। शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को तो उनके हाल पर छोड़ दिया गया था और उन्हें सुनने वाला कोई नहीं था।

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नए नागरिकता कानून की वजह से समाज का एक वर्ग पहले से ही गुस्से और हताशा में था और अब समाज का एक और वर्ग- किसान कृषि कानूनों को लेकर सड़कों पर है। सरकार ने सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों और कृषि कानून विरोधियों का ही भरोसा नहीं खोया है बल्कि पिछले दो वर्षों में एनडीए के तीन सहयोगियों का समर्थन भी खो दिया है। यह सरकार के लिए चेतावनी का संकेत होना चाहिए।

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शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों को देशद्रोही और विरोध प्रदर्शन करने वाले किसानों को खालिस्तानी कहने से देश को लंबे समय में नुकसान ही होगा। अहंकार से सुशासन नहीं आता। सरकार को आग से खेलने से बाज आना चाहिए। संसद में संख्या बल की वजह से अहंकार में नहीं डूबना चाहिए बल्कि विनम्र हो जाना चाहिए। वही सुशासन का सही नुस्खा है।

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