10वीं सदी भारतीय साधना के इतिहास में भारी उथल पुथल का काल है। जब एक तरफ इस्लाम दरवाज़ा खटखटा रहा था, दूसरी तरफ बौद्ध साधना तंत्र मंत्र की तरफ बढ़ रही थी। बौद्धों, शाक्तों, शैवों के ऐसे कई संप्रदाय इस समय उपजे जिनमें सभी धर्मों के कुछ कुछ तत्व थे, लेकिन वे ब्राह्मण और वेदों को धर्म की धुरी नहीं मानते थे।
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योग का असली विकास जिस गोरखपंथ ने किया वह भी मूलत: वेदबाह्य् माना गया। मत्स्येंद्रनाथ के योग्य चेले गुरु गोरखनाथ ने पातंजलि के अष्टांग योग से छ: अंगों को जिस साधना का निर्माण किया वही आज का योग है। गोरखनाथ ने कई और वेदबाह्य मार्गों (सांख्य, बौद्ध, जैन, शाक्त) को संगठित किया और उनके चेले हिंदू मुसलमान दोनों ही बने, खासकर वयनजीवी (जुलाहे) वर्ग के लोग, जो हिंदू भी थे और मुसलमान भी। उनकी योग साधना और विचारों का भारी प्रचार अगली सदियों में घुमंतू नाथ- सिद्ध परंपरा के साधुओं ने नेपाल से लेकर सारे उत्तर भारत में किया। अपने मूल रूप में हठयोग अनुशासन प्रधान लेकिन एक हंसमुख पंथ था। गोरखबोध ग्रंथ के अनुसार स्वयं गुरु गोरख ने कहा है: हंसिबा, खेलिबा, रहिबा रंग, काम क्रोध न करिबा संग। यानी सच्चा जोगी हंसता खेलता अपने रंग में निर्लिप्त रहता है, कामवासना या क्रोध से दूर’। उन्होंने यह भी कहा कि योगी को व्यवहार और बोलचाल में सहज और धैर्यवान मानव होना चाहिये, न कि गर्व की ठसक से मनचाहा व्यवहार करनेवाला : ‘हबकि न बोलिबा ठबकि न चलिबा, धीरे धरिबा पांव, गरब न करिबा, सहज रहिबा, भणत गोरक्ष राव।’
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आज योगी खुद को सनातनी धर्म से जोडते हैं, पर मूल गोरख मत वेदों के कर्मकांड यज्ञ यागादि को नहीं मानता। उनके लिये ॐ ही इकलौता मंत्र है जिसे वे सूक्ष्म वेद कहते हैं। शंकराचार्य के अद्वैत या द्वैताद्वैत जैसे मार्गों को भी वे कपोलकल्पना से अधिक नहीं समझते : अहो माया महामोहो द्वैताद्वैत विकल्पना। (अवधूत गीता) वे विष्णु शिव ब्रह्मा या बुद्ध सबको जीव मानते हैं, उनके लिये नाथ यानी मुक्तिदाता अवस्थान ही इकलौती शुद्ध आत्मा है (गोरक्ष उपनिषद्)।
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