आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। एक रस्मी तारीख जब महिलाओं की स्थिति का कथित सामाजिक-आर्थिक- राजनीतिक आकलन करके औपचारिकता पूरी कर दी जाती है। क्या समाज महिलाओं को महिलाओं की नजर से देखने- समझने और जीने की आजादी देगा? जो समाज महिलाओं को बेड़ियों से आजाद करने की बात करता है, दरअसल महिलाओं को सबसे ज्यादा जरूरत तो इस पितृसत्तात्मक सोच से आजाद होने की है। बहरहाल, महिलाओं की बात करने से पहले कुछ आंकड़े और तथ्यों पर गौर कर लेना शायद सही होगा।
देश में अभी 15 से 49 वर्ष की 68.4% महिलाएं साक्षर हैं और इस आयु वर्ग की 35 फीसदी महिलाओं ने स्कूली शिक्षा में 10 या इससे अधिक साल दिए। लेकिन महिलाओं की कार्यबल भागीदारी दर 25-30% है। 1999-2000 के दौरान पेडवर्क में महिलाओं की भागीदारी 34.1% थी जो 2011-2012 में घटकर 27.2 प्रतिशत रह गई और 2020 के अगस्त में तो यह गिरकर 19.98% के स्तर पर आ गई। (आईएलओ और आईपीएफओ)
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20-24 वर्ष की आयु-वर्ग की 26% महिलाओं की शादी 18 वर्ष से पहले ही कर दी जाती है। 15-49 वर्ष आयु वर्ग की 53.5% विवाहित महिलाएं परिवार नियोजन के किसी-न-किसी तरीके को अपनाती हैं। 36% महिलाओं ने नसबंदी का विकल्प चुना जबकि केवल .03% पुरुषों ने नसबंदी का फैसला लिया।
साफ है कि परिवार नियोजन का बोझ महिलाओं पर ही पड़ता है और नसबंदी के अलावा उनके सामने और कोई मुफीद विकल्प नहीं होता। इसे इस तथ्य के साथ देखा जाना चाहिए कि महिलाओं के मन में सांस्कृतिक रूप से यह बात बैठा दी जाती है कि पति की यौन जरूरतों को पूरा करना उनका कर्तव्य है। यह बात भी गौर करने वाली है कि भारत दुनिया के उन 36 देशों में है जिन्होंने अब तक वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं बनाया है। इसका सीधा मतलब है कि पत्नी को पति के साथ यौन संबंध के लिए ‘नहीं’ कहने का अधिकार नहीं है।
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केवल 38% महिलाएं ऐसी हैं जिनके अपने नाम या फिर संयुक्त रूप से घर या जमीन है। कृषि श्रम शक्ति में महिलाओं की भागादारी 42% से अधिक है लेकिन 2% से भी कम खेतों का मालिकाना हक उनके नाम है। कृषि भूमि का 83% हिस्सा परिवार के पुरुष सदस्यों को विरासत में मिलता है। (एनसीएईआर, 2018)
15-59 आयु वर्ग की 91.8% महिलाएं बिना कोई मेहनताना घरेलू काम करती हैं। दूसरी ओर, केवल 20.6% पुरुष घरेलू कामों में भाग लेते हैं (एनएसओ 2019)। महिलाएं हर दिन औसतन 352 मिनट घरेलू कामों पर देती हैं जो पुरुषों की तुलना में 577% अधिक हैं।
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इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि शोधकर्ताओं ने इसे ऐसा विषय ही नहीं समझा जिसके बारे में कोई आंकड़ा इकट्ठा किया जाए। मौज-मस्ती और आनंद का अधिकार न तो नारीवादी आंदोलनों की मांग में रहा है और न ही किसी राज्य ने इसे अहमियत दी है। हालांकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएचएफएस)- 4 और एनएसओ 2019 के आंकड़ों से इसका कुछ अंदाजा जरूर लगता हैः
केवल1.2% महिलाएं शराब का सेवन करती हैं। 6.8% किसी भी प्रकार के तंबाकू का उपयोग करती हैं। जबकि 44.5% पुरुष किसी न किसी तरह से तंबाकू का और 29.2% शराब का सेवन करते हैं। सिर्फ 6.1 प्रतिशत पुरुष खाना पकाने में भाग लेते हैं, भले ही वह केवल एक दिन में कुछ मिनट के लिए हो लेकिन 87 प्रतिशत पुरुष खाली समय में मस्ती ही करते हैं। 15 से 59 वर्ष की महिलाएं प्रत्येक दिन रात में 13 मिनट कम सोती हैं। अपनी कामकाजी उम्र में महिलाओं को मिलने-जुलने, खाने-पीने और यहां तक कि स्नान करने-कपड़े पहनने के लिए भी कम समय मिलता है। 45.9% महिलाएं ही ऐसी हैं जो खुद मोबाइल फोन का इस्तेमाल करती हैं।
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31.1% विवाहित महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हुईं (एनएफएचएस-4)। महिलाओं के खिलाफ कुल 3,38,954 अपराध हुए जिनमें से 33% (1,10,378) पति या रिश्तेदार द्वारा किए गए। बलात्कार के 86% मामले जान-पहचान के लोगों ने किए। 2015 में दर्ज 70 हत्याएं कथित सम्मान के नाम पर हुईं और 134 जादू टोना के संदेह में।
समाज में महिलाओं की स्थिति को हमेशा सुरक्षा और संरक्षण के नजरिये से देखा जाता है, न कि अधिकार के नजरिये से। महिलाओं को हमेशा किसी की मां, बेटी, पत्नी, बहन के रूप में संबोधित किया जाता है, यानी वह अपने आप में निहायत ही कमजोर है। उसे ‘किसी’ के सहारे की जरूरत होती है और यह ‘किसी’ कोई पुरुष ही हो सकता है जिसके पास सुरक्षा के नाम पर महिला को नियंत्रित करने का अधिकार होता है। सुरक्षा के नाम पर महिलाओं को घर से बाहर के जीवन में बेरोकटोक शामिल होने की अनुमति नहीं होती।
उदाहरण के लिए, कोई लड़की रात में बहुत देर तक अपने हॉस्टल से बाहर नहीं रह सकती लेकिन लड़के ऐसा कर सकते हैं। अगर किसी सार्वजनिक स्थान पर किसी महिला के साथ रेप हो जाए तो पहला सवाल यही किया जाता है कि आखिर ‘वह रात में वहां कर क्या रही थी?’ महिलाओं को शिक्षा पाने के मामले में कुछ हद तक इजाजत दी जाती है लेकिन जब नौकरी की बात आती है तो लिंग संबंधी रूढ़ियों के कारण उसके पास सीमित विकल्प होते हैं क्योंकि तब भी उसे घर का काम करना पड़ता है और अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसी नौकरी करे जिससे घर का कामकाज पहले की तरह होता रहे। साफ है, उसके पास आर्थिक आजादी नहीं। कामकाजी महिलाओं पर बोझ दूना हो जाता है।
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विवाह और यौनाचार के मामले में महिलाओं की पसंद, करियर, रुचि, सपने... ये सभी सामाजिक और पारिवारिक दबाव से नियंत्रित होते हैं। अगर वह इन्हें नहीं मानती है तो उसे ‘सम्मान’ के नाम पर मार डाला जाता है, लव-जिहाद के नाम पर एफआईआर दर्ज कर दी जाती है। बूढ़ी विधवा या अकेली महिलाओं को अक्सर उसकी जमीन और संपत्ति पर कब्जा करने के लिए चुड़ैल करार दे दिया जाता है। जो लोग उसके रक्षक होने का दावा करते हैं, वे ही उसके खिलाफ सबसे अधिक अपराध करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी का नारा, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ अपने आप में पितृसत्तात्मक मानसिकता का परिचायक है जहां इस देश की महिलाएं ऐसी ‘बेटी’ हैं जिन्हें बचाए जाने का इंतजार है। बचपन से वयस्क और फिर वृद्ध होने तक महिलाओं को उनके पुरुष ‘रक्षक’ द्वारा नियंत्रित किया जाता रहा है और वह कभी भी ऐसी नागरिक नहीं बन पाई जिसे पुरुष के समान अधिकार हो।
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समाज में महिलाओं की स्थिति इस बात से तय नहीं होनी चाहिए कि समाज या सरकार के मुताबिक उसके लिए क्या किया जाना चाहिए। महिलाएं क्या चाहती हैं, यह महिलाओं को ही तय करना होगा। वे मौज-मस्ती आनंद का अधिकार चाहती हैं, प्रेम का अधिकार, यौनाचार का अधिकार, जोखिम उठाने का अधिकार, स्वच्छंद होने का अधिकार, प्रयोग करने का अधिकार और हां, गलतियां करने का भी अधिकार चाहती हैं। संक्षेप में, इंसान होने का अधिकार चाहती हैं। देवी के कथित आदर्शों में कैद होने की उसकी कोई इच्छा नहीं।
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