विचार

आकार पटेल का लेख: प्रवचन और जयकारों से भी नहीं छिपेगी गर्त में जाती अर्थव्यवस्था और समाज में बढ़ते विष की हकीकत

आर्थिक बरबादी के निशान हमारे चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। समाज में इस तरह का दोफाड़ हो चुका है जिसे दुरुस्त करना बेहद कठिन होगा। इस सबके बावजूद जयकारों की गूंज जारी है और प्रवचन भी, कि किस तरह आज हालात बहुत बेहतर हैं, और उनसे पहले कितने बदतर हुआ करते थे।

फोटो सौजन्य : एएनआई
फोटो सौजन्य : एएनआई 

कोरोना को काबू में करने के नाम पर किए गए लॉकडाउन के कारण चालू वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में अर्थव्यवस्था ने गहरा गोता खाया था, उसमें कुछ सुधार हो ही रहा होगा। और अगले साल यानी 2021-22 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) के आंकड़े सामने आएंगे तो पीएम मोदी बल्लियों उछलेंगे कि हम दुनिया की सबसे तेजी से विकसित होती और बढ़ती अर्थव्यवस्था हैं, और 25 फीसदी की जो खाई खुद उन्होंने ही खोदी थी उसके भरने को वह एक ऐसे चमत्कार के रूप में सामने रखेंगे जो उन्होंने किया है।

लेकिन वास्तविकता यह ह कि लगातार 13 तिमाहियों से भारत की अर्थव्यवस्था शनै-शनै गर्त में जाती रही है। देश की जीडीपी यानी देश में बीते 12 महीनों के दौरान बनने वाले सामान और सेवाओं में इस वित्त वर्ष में जबरदस्त कमी आई है। इतना ही नहीं हम उतना विकास भी नहीं कर पाए जितना इसके पिछले साल यानी 2019-20 में किया था। 2020 के जनवरी में आर्थिक मोर्चे पर जहां थे वहां पहुंचने में कम से कम एक साल या ज्यादा भी वक्त लगेगा।

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असल में अर्थव्यवस्था की समस्या कोरोना काल में नहीं शुरु हुई, यह तो काफी पहले से मौजूद थी। विकास दर में गिरावट का सिलसिला जनवरी 2018 से शुरु हुआ और तिमाही दर तिमाही गिरावट जारी रही। सरकार ने आंकड़ों में हेरफेर कर इसे छिपाने की कोशिश की। अमेरिकी इसे ‘पुटिंग लिपस्टिक ऑन ए पिग’ कहते हैं, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। इस तरह गिरावट बीते तीन साल से लगातार जारी रही। देश की विकास कथा का अंत हो चुका था और इसे भी कई साल हो चुके थे। सरकार भले ही कितने ही भाषण दे दे लेकिन पिछले 39 महीनों से लगातार जारी विकास दर की गिरावट को नकारा नहीं जा सकता।

बीते 39 महीनों से जारी है गिरावट

सरकार ने जोर-शोर से अमेरिका और चीन से मुकाबला करने के दावे करती रही, लेकिन जब देश की विकास दर बांग्लादेश से भी पीछे चली गई तो लोगों में भरोसा कहां से आता। तथ्य तो यही है कि लॉकडाउन से पहले ही हम आर्थिक मोर्चे पर संकट में थे। इससे भी बड़ी बात यह कि सरकार को पता ही नहीं कि आखिर देश के विकास की गति जनवरी 2018 से लगातार कम क्यों हो रही है। सरकार के बाहर के लोग तो इसके कारणों की चर्चा करते रहे हैं, लेकिन सरकार के अंदर इसे लेकर कोई चर्चा या विचार-विमर्श नहीं हुआ। सवाल वही है कि आखिर राजा को कौन बताए कि उसका शासन बहुत की बेकार है? कोई बताए भी तो कैसे, क्योंकि ऐसा करने पर सिर कलम करने (नौकरी जाने) का फरमान जारी हो सकता है। इस तरह हम निरंतर ऐसे ही रास्ते पर चलते रहे जिसने हमें गर्त में पहुंचा दिया।

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चारों तरफ बिखरे पड़े हैं आर्थिक बरबादी के निशां

आर्थिक बरबादी के निशान हमारे चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर और कोरोना के कारण चीन से जो व्यापार बाहर निकले, वह हमारे पास नहीं आए बल्कि बांग्लादेश और वियतनाम के पास चले गए। अपने निर्यात (गारमेंट मैन्यूफेक्चरिंग) के दम पर हमारे पड़ोसी प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में हम से आगे निकल गए, जबकि हम 2014 से लगातार पिछड़ रहे हैं। निर्यात में हमने बीते 6 साल में शून्य वृद्धि की है। यह अपनी जगह इसलिए बनी रही क्योंकि इस क्षेत्र के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी कहीं अधिक है। भारत में तो इस बात पर ज्यादा जोर है कि कौन किससे विवाह कर रहा है, न कि इस पर कि लोग काम क्यों नहीं कर रहे हैं। वैसे भी महिलाओँ के मामले में भारत सबसे खतरनाक जगह साबित होता जा रहा है। थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेंशन की रिपोर्ट तो यही कहती है। 2011 में हम में इस सूची में चौथे स्थान पर थे, लेकिन 2018 में हम सूची के आखिर में पहुंच चुके हैं। श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी कम होने के कई कतिपय कारण हो सकते हैं, लेकिन इसमें और गिरावट को रोकने में मौजूदा सरकार नाकाम साबित हुई है।

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2021 भी रहेगा कुछ ऐसा ही, फिर भी लग रहे हैं जयकारे

2021 में भी हमें कुछ-कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है। अर्थव्यवस्था में तो सुधार नहीं होने वाला, हां सरकार की तरफ से ढोल-नगाड़े जरूर बजाए जाएंगे कि वह कितना शानदार काम कर रही है। हाल ही में इकोनॉमिस्ट की रिपोर्ट से पता चला है कि 2020 के दौरान मुकेश अंबानी की दौलत में 350 फीसदी का इजाफा हुआ है और गौतम अडानी की दौलत 700 फीसदी बढ़ गई है। इस सबके बीच देश में बेरोजगारी की दर रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी है और करीब 9 फीसदी है। और ये आंकड़े और भी भयावह हो सकते हैं क्योंकि करोड़ों लोगों ने खुद को जॉब मार्केट से अलग कर लिया है। दरअसल ऐसे लोग जिनके पास रोजगार नहीं है और वे नौकरी खोज भी नहीं रहे हैं उन्हें बेरोजगार नहीं माना जाता है। इस तरह देखें तो असली आंकड़े 15 फीसदी के आसपास होंगे। बैंक क्रेडिट ग्रोथ, ऑटोमोबाइल सेल या किसी भी क्षेत्र क आंकड़े देख लीजिए, कहीं भी भारत की विकास गाथा नजर नहीं आएगी, एक ऐसी गिरावट देखने को मिलेगी जिसने शायद हमें दशकों पीछे धकेल दिया है।

इस सबके बावजूद जयकारों की गूंज जारी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के खाते में बंगाल की करीब आधी सीटें चली गईं और अगर वह इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव को भी जीत जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। कॉर्पोरेट इंडिया द्वारा मोदी के पक्ष में आने से इलेक्टोरल बॉन्ड्स के जरिए बीजेपी के पास जो अथाह संसाधन जमा हुए हैं, उसका मुकाबला कोई भी दूसरा अकेल राजनीतिक दल तो दूर, सारे दल मिलकर भी नहीं कर सकते। ऐसे में अगर एक और राज्य बीजेपी की झोली में जाता है तो इसमें आश्चर्य कैसा। इस बार नहीं तो अगली बार तो निश्चित ही तौर पर बीजेपी के पास होगा बंगाल।

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प्रतिरोध करना होगा समाज में उतारे जा रहे विष का

इस सबके बीच समाज में इस तरह का दोफाड़ हो चुका है जिसे दुरुस्त करना बेहद कठिन होगा। और ऐसा मैं हताशा या निराशा में नहीं कह रहा हूं, बल्कि हकीकत यही है। शीर्ष स्तर से जो विष समाज में गहरे तक उतारा गया है उसे खत्म करने के लिए प्रतिरोध की जरूरत है, लेकिन कहीं प्रतिरोध नजर ही नही आ रहा।

आर्थिक मोर्चे से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तक और बेरोजगारी से लेकर सामाजिक तनाव तक, भारत हर मोर्चे पर पिछड़ चुका है, और जिस रास्ते पर भारत ने 2014 में चलना शुरु किया उसकी परिणति होनी भी ऐसी थी। और इसी सबके बीच मोदी की लोकप्रियता बरकरार है और उनके दैनंदिन प्रवचन भी, कि किस तरह आज हालात बहुत बेहतर हैं, और उनसे पहले कितने बदतर हुआ करते थे।

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