विचार

मृणाल पाण्डे का लेखः गलत सवालों के सही जवाब कैसे मिलें?

चले थे हिंदू राष्ट्र बनाने और बंगाल से असम तक हिंदू भी सड़कों पर उतर कर मुर्दाबाद कर रहे हैं। अब गृहमंत्री बहुसंख्य हिंदुओं को गगनचुंबी राममंदिर का जितना स्वर्णिम सपना दिखाएं, बेरोजगारी, सांप्रदायिक तनाव और घाटे की अर्थव्यवस्था पर वह भी चादर नहीं डाल सकते।

 इलेस्ट्रेशन: अतुल वर्धन
इलेस्ट्रेशन: अतुल वर्धन 

सही सवाल का गलत जवाब दिया जा सकता है, पर अगर सवाल ही सिरे से गलत हो, तो आप लाख द्रविड़ प्राणायाम कर लें, उसके सही जवाब नहीं खोज सकते। यह विचार एनडीए की ताजा बदहवासी को देखकर मन में उठ रहे हैं। 2019 में भारी बहुमत से जीतने के बाद से ही बीजेपी के धड़ों के बीच पहला निशाना मुस्लिम बहुल कश्मीर बना। राष्ट्रीय एकता तथा सुरक्षा के नाम पर गवर्नर की सलाह पर राष्ट्रपति का स्टांप लगवा कर रातोंरात जम्मू और कश्मीर तथा लदाख को दो केंद्रशासित सूबों में बांट दिया गया। साथ ही कश्मीर घाटी के सारे बड़े क्षेत्रीय दलों के नेताओं को नागरिकों सहित अनिश्चित समय के लिए घर कैद देते हए बाहरी दुनिया से उनका संपर्क जिस हद तक काटा जा सकता था, काट डाला गया।

इसके बाद नंबर आया असम का। वहां राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण शुरू किया गया जिसके नतीजों की मार्फत करीब बीस लाख लोगों को बाहरिया पाया गया। अब इस फेहरिस्त से बाहर रह गए लोगों को उनके देश वापिस भेजने या शरणार्थी कैंपों में डालने की प्रक्रिया शुरू हुई तो इसमें लगभग 60 फीसदी बांग्लादेशी हिंदू बंगाली निकले। अब? फिर नागरिकता संशोधन बिल संसद में लाया गया। ताकि धर्म के आधार पर नागरिकता का प्रावधान करने वाले इस बिल के कानून बनने के बाद सिर्फ मुसलमान घुसपैठियों को छानकर अलग किया जा सके। पर इसके नतीजे भी अनपेक्षित निकले।

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तमाम तरह की जनजातियों के कढ़ाव रहे पूर्वोत्तर के सारे राज्यों में अपनी खास संस्कृति, भाषा और जमीन के घालमेल को लेकर हिंदू बंगालियों, या अन्य मैदानी लोगों को लेकर भी उतनी ही आपत्ति थी जितनी मुसलमानों से। हिंदू, सिख, ईसाई शरणार्थियों के हित संरक्षित करने का प्रावधान देखते हुए असम से अरुणाचल तक, स्थानीय आग भड़क गई। नेहरू को बीजेपी लाख पानी पी-पी कर कोसती हो, लेकिन भारत की मूल आत्मा की अतल गहराइयों में 55 साल की उम्र तक झांकने के बाद ‘भारत एक खोज’ के लेखक इस तरह के जटिल सवाल बखूबी समझते थे। जभी उनका निष्कर्ष था कि एक संघीय गणराज्य के रूप में भारत की एकता उसकी अनेकता के संरक्षण से ही संभव है।

इसलिए हमको पाकिस्तान की तरह अपने अल्पसंख्य समूहों पर रंदा चलाते हुए सब नागरिकों की भाषा-संस्कृति को एक जैसा मान कर धर्माधारित राष्ट्र कायम करने की अहमकाना जिद त्यागनी पड़ेगी वर्ना देश बिखरने लगेगा। भारत ने कभी एक निशान, एक विधान, एक प्रधान का सपना नहीं पाला। उसका सुर हमेशा समावेशी रहा। पूर्वोत्तर चूंकि सीमावर्ती इलाका रहा है, इसलिए वहां लगातार जातियां-जनजातियां पड़ोसी देशों से आती रहीं, पर दुर्गम इलाका होने से उनकी तादाद कम रही। अपनी खास कबीलाई पहचान को लेकर इस उग्र और आक्रामक इलाके का मिजाज तो मुगलों ने बीजेपी से बेहतर समझा था और जभी इनको ‘गैर ममुकिन’ क्षेत्र घोषित कर दिया, जिनको अपने कबीलाई नियमों-पंचायतों के तहत स्वायत्तता का हक प्राप्त था। यह क्रम अंग्रेजों ने भी जारी रखा।

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जब भारत आजाद हुआ तो फिर संघीय गणतंत्र में इन इलाकों की पहचान का जटिल सवाल लेकर 1960 में असमिया नेता कैप्टन संगमा की अगुआई में खासी, जयंतिया, गारो, उत्तरी कछार, मिकिर, मिजो जिलों के सयानों का समूह मणिपुर तथा त्रिपपरा के कबीलाई नेताओं सहित पहली बार तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू से मिला। इतिहास के खोजी अध्येता नेहरू इलाकाई स्वाभिमान और स्वायत्तता की सीमाएं भली तरह पहचानते थे। इसलिए आपसी बातचीत से कांग्रेस शासन ने भी उनकी अलग इलाकावार पहचान और उसकी रक्षा का पूरा सम्मान सनिुश्चित किया। इसके बाद भी यह इलाका 1985 के असम समझौते तक हमेशा एक धीमी आंच में सुलगता रहा।

लेकिन भिन्न वजहों से आज का जलता पूर्वोत्तर और सड़क पर उतरा शेष देश मौजदा केंद्र सरकार की नागरिक अर्हता की नई कानूनी परिभाषा की विफलता ही नहीं जताता। वह इस बात का भी प्रमाण है, कि घुसपैठियों की पहचान का तरीका और उसके पीछे छुपा भेदभाव गले से उतारना इस बहुलतावादी देश की आत्मा के लिए एकदम नाममुकिन है। बांटो और राज करो की राजनीति का पिछले 70 सालों में बनी धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आजादी के उन संस्कारों से कोई लेना देना नहीं, जिनके तहत भारत ने प्रजातंत्र का ककहरा सीखा। इसी बहुलतावादी संस्कार के प्रताप से देश के हर हिस्से के हर जाति, हर धर्म के लोगों ने आज का भारत रचा है।

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योजना आयोग, सार्वजनिक उपक्रमों के विशाल गढ़ और बैंकिंग संस्थाएं, उच्च शिक्षा के संस्थान और पंचसाला योजनाएं इनके रचनाकारों के नाम याद कर जाइए बात साफ हो जाएगी कि किस तरह समवेत कोशिशों से हमको भीख का कटोरा थामने की पीड़ा से मुक्ति मिली। जबकि धर्माधारित पाकिस्तान सेना के बूटों तले रौंदा जाकर भाषा-संस्कृति के मसले पर दो टुकड़ों में बंट गया।

पिछले छ: सालों में केंद्र सरकार ने यह सचाई बार-बार नजरअंदाज की है। योजना आयोग भंग करने, रिजर्व बैंक की चेतावनियां अनसुनी करने, अप्रिय सरकारी डेटा को दरी तले सरकाने, विश्वविद्यालय परिसरों से लेकर बौद्धिक गतिविधियों के कई संस्थानों की उदारतावादी जड़ों में जो बारबार मट्ठा डाला गया, उसका नतीजा सामने है। चले थे हिंदू राष्ट्र बनाने और बंगाल से असम तक हिंदू भी सड़कों पर उतर कर मुर्दाबाद कर रहे हैं। अब गृहमंत्री बहुसंख्य हिंदुओं को गगनचुंबी राममंदिर का जितना स्वर्णिम सपना दिखाएं, मंदी, बेरोजगारी, सांप्रदायिक तनाव और घाटे की अर्थव्यवस्था पर वह भी चादर नहीं डाल सकते।

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संघीय गणराज्य के मूल सिद्धांतों को बीजेपी नेतृत्व के बहस विमुख, असहिष्णु और गर्वीले रुख ने इतना आहत किया है कि 2019 में अभूतपूर्व बहुमत से चुनी गई केंद्र सरकार तब से साल के अंत तक कई राज्यों के विधानसभा चुनाव हार गई है। जहां जोड़-तोड़ से गठबंधन साधे भी गए उनकी जड़ों में पैसे और क्षेत्रीय दलों में करवाए गए भितरघात की ताकत जनता को साफ दिखती रही है। इसने बहुप्रचारित हर नए कदम से आर्थिक और शासकीय मोर्चों पर सरकार को कदम-कदम पर सुनाम की बजाय अपयश ही दिलाया है। जिस तरह मीडिया और विपक्ष को हर नए प्लान या संशोधन पर बहस से बाहर रखा गया, उससे लगता है कि शायद सरकार के भीतर कहीं पारंपरिक हिंदू कुटुंब का यह पुरातनपंथी सोच जड़ जमाए हुए है, बेटा हो या कि जिजमान या चाकर, एक जबर्दस्त लाठी से हर तरह का विरोध हंकाला जा सकता है।

21वीं सदी में दुनिया कुटुंब कबीलों की नहीं, व्यापारिक गुटों और साझा ग्लोबल बाजार से बनती और चलती है, और नेट के कारण पलक झपकते देश का हर भीतरी घटनाक्रम तुरंत चर्चा या उपहास या दोनों का विषय बन जाता है। पुलिसिया दमनकारिता, नेट पर प्रतिबंध और सेना के फ्लैग मार्च से कायम की गई शांति घर या बाहरी दुनिया में किसी को आश्वस्त नहीं करती है। इसी कारण जापान के प्रधानमंत्री और बांग्लादेश के दो मंत्रियों ने असम के आंदोलन से अपना दौरा रद्द कर दिया, और अमेरिका तथा कनाडा ने अपने नागरिकों को भारत के पूर्वोत्तर की यात्रा से आगाह तो किया ही है, अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट ने राजनयिक मुलायमियत की मर्यादा के भीतर भारत को गंभीर चेतावनी भी दे दी है कि भारत अपनी संविधान स्थापित मर्यादाओं की रक्षा करे। थोड़ा कहा बहुत जानें।

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प्रधानमंत्री अपनी और दल की वैदेशिक छवि को लेकर हमेशा सतर्क रहते हैं इसलिए उनकी हर विदेश यात्रा का खाका किसी रॉक कॉन्सर्ट की तरह रचा और प्रसारित किया भी जाता है। यह अच्छी बात है। पर अंतत: किसी भी देश की अंतरराष्ट्रीय छवि इस बात पर निर्भर करती है कि वहां नागरिकता और नागरिक अधिकारों की संवैधानिक रक्षा की व्यवस्था कितनी चाक-चौबंद है? यह सही है कि सरकार द्वारा राजनीतिक दबंगई और संसदीय बहुलता के बल पर यह कानून संसद से आनन-फानन में पास करा लिया गया, पर हिंदुओं, सिखों, पारसी, जैन, बौद्ध या ईसाई शरणार्थियों की तरह धार्मिक उत्पीड़न के नाम पर मुसलमान नागरिकता पाने का हक नहीं रखेंगे यह बात हमारी अंतरराष्ट्रीय पटल पर बहुत मेहनत से बनी सर्व धर्म समभाव और उदारवादी पहचान को खारिज करती है।

घरेलू रूप से यह भारत में पीढ़ियों से बसी रही दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी को तो विचलित कर ही रही है। गृहमंत्री भले ही कहते रहें कि घुसपैठियों और शरणार्थियों में अंतर है, लेकिन यह साफ है कि एक बार नए कानून के सहारे किसी भी सूबे में नागरिकों का पंजीकरण शुरू हुआ तो मुसलमान आबादी को अपनी नागरिकता साबित करने को तरह-तरह के कागजात पेश करने होंगे। नाकामयाब रहे, तो उनको शरणार्थी शिविरों में अनंत काल के लिए भेज दिया जाएगा। क्या भारत के राजनेता और पार्टी प्रचारक एक-दूसरे की बाबत लगातार झूठ बोले बिना काम नहीं चला सकते?

व्यवस्था के पतन के क्षणों में सरकार के साथ सहकार करते रहे दल तथा प्रोफेशनल लोग भी अपने धंधे की आन बचाने के लिए भी सच को क्यों छुपाते फिरते रहे? नोटबंदी के बाद के चार बरसों में सत्तारूढ़ दल के कितने लोगों ने सरकार में रहते समय आम नागरिक को दुर्लभ सरकारी डेटा के आधार पर नोटबंदी, कालेधन की वापसी, बैंकिंग व्यवस्था में भगोड़े कर्जदारों के किए कुठाराघातों, मौद्रिक कमी और किसानी के विनाश पर पूरा सच बोलने का साहस दिखाया? संसद में गृहमंत्री जी ने पूछा, उनसे डरने की क्या वजह हो सकती है भला? कौन कहता है कि आमजन उनसे डरता है? जैसा कि हमने शुरू में कहा, सही सवाल का गलत जवाब दिया जा सकता है, पर गलत सवाल का सही जवाब क्या हो?

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