विचार

आकार पटेल का लेख: कितना बदला है 2014 के बाद का भारत, न उम्मीदें बची हैं, न सद्भाव, नई पीढ़ी का भविष्य निराशाजनक

भारत को दुनिया एक अफरा-तफरी और शोरगुल वाले देश के रूप में देखती थे लेकिन इसे पसंद करते थे। लेकिन अब यह बदल चुका है। उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं। एक भारतीय के तौर पर इस सबको देखना दुखद तो है, लेकिन इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।

फोटो : Getty Images
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किस किस्म के भारत में देश की नई पीढ़ी पल-बढ़ रही है और आने वाले समय में समय में वे क्या कुछ झेलेंगे? मैं 50 से ऊपर का हो चुका हूं और सेहत ठीकठाक है, किस्मत ने साथ दिया तो एकाध दशक और देख लूंगा, लेकिन मैं कितना रचनात्मक रहा हूं, यह मेरे बेहतरीन गुजरे हुए सालों से पता चलता है। भविष्य उन लोगों का इंतजार कर रहा है जो आज बच्चे हैं या युवा व्यस्क हैं। आने वाले समय में उनके लिए क्या है? बीते सात वर्षों का लेखा-जोखा देखें तो आने वाले समय का कुछ-कुछ अनुमान लग सकता है। इस बारे में मैंने अपनी आगामी किताब में विस्तार से लिखा है।

आर्थिक तौर पर देखें तो भविष्य उससे कुछ अलग होगा, जैसा कि मेरे युवावस्था के वक्त या जब मैं नौकरी के लिए बाहर निकला था, समय था। भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में उसी साल सुधार किए थे जब मैं 21 साल का हुआ और कुछ ही सालों में नौकरी के मोर्चे पर शहरों में काफी सुधार आया। यहां तक कि बिना किसी स्पेशलाइजेशन के मात्र स्नातक डिग्री और अंग्रेजी की बुनियादी जानकारी रखने वालों को एयरकंडीशंड दफ्तरों में नौकरियां मिल रही थीं।

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इससे देश के उस मध्यवर्ग को काफी लाभ मिला जिसकी अच्छे स्कूल तक तो पहुंच थी लेकिन काम को लेकर बहुत अधिक विकल्प उसके पास नहीं थे। इसीलिए मां-बाप बच्चों से स्पेशल कोर्सेस जैसे इंजिनियर या डॉक्टर बनने को कहते थे। लेकिन अब सिर्फ बीए या बीकॉम किए हुए व्यक्ति को एक उच्च वर्गीय जीवन जीने का रास्ता मिल गया था। मैं उन लाखों लोगों में से एक था जिन्हें इसका लाभ मिला।

लेकिन फिर भी देश के बहुसंख्य लोगों का इसका लाभ नहीं मिल पाया क्योंकि उनकी न तो शहरों तक पहुंच थी और न ही अच्छी शिक्षा की। लेकिन फिर भी उन्हें उम्मीद थी। देश भर में शुरु हुए निजी शिक्षण संस्थानों को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि इन्होंने जो कुछ शहरों में हो रहा था उसे नगरों और उपनगरों तक पहुंचाया।

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अब यह वक्त गुजर चुका है। भारत में शहरी बेरोजगारी ऐतिहासिक ऊंचाई पर है और महत्वपूर्ण यह है कि देश के श्रमबल में भागीदारी यानी ऐसे लोग जो काम तलाश रहे हैं, वह ऐतिहासिक तौर पर गिरी हुई है। इसका अर्थ है कि कामकाजी आयु (15 और अधिक वर्ष) के लोगों को काम मिलने की उम्मीद ही नहीं बची है। महामारी का प्रकोप शुरु होने से पहले यही स्थिति थी और यह बीते तीन साल से ऐसी ही है। इससे अर्थ निकलता है कि यह कोई चक्रीय बात नहीं है और खुद ही इसमें सुधार नहीं आएगा। काम न मिलने से लोगों में निराशा घर करेगी और इसके दुष्प्रभाव सामने आएंगे। एक प्रभाव तो अपराधों में बढ़ोत्तरी हो सकता है।

लंबे समय में क्या स्थिति होगी, इसके संकेत भी वैश्विक स्तर पर अच्छे नहीं हैं। स्थितियां वैसी तो नहीं होगी भविष्य में जिनसे हमने लाभ उठाया था।

सामाजिक तौर पर भी वह भारत बदल गया है जिसमें मैं पला-बढ़ा हूं। भारत में हमेशा इस बात की समस्या रही है कि सैद्धांतिक तौर पर सेक्युलर होने के बावजूद भारत में सांप्रदायित तनाव देखा जाता रहा है। 80 और 90 के दशक में बहुत से ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे। लेकिन सरकारों के प्रयासों से सांप्रदायिक कोशिशों को नाकाम किया जाता रहा है। प्रयास कितने भी कम क्यों न रहे हों, लेकिन एक बात साफ थी कि कम से कम सरकारों की तरफ से इसे बढ़ावा नहीं दिया गया। लेकिन 2014 के बाद से ऐसा हो रहा है। इसके बाहरी और आंतरिक दोनों असर होंगे। देश में देखें तो हमारी राजनीति बहुत ही अंधकारमय हो गई है और चुनावी प्रचार में ताकतवर राजनीतिक दल खुलेआम भारतीय मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं। चूंकि इसके चुनावी नतीजे अच्छे मिलते हैं, इसलिए इसमें इजाफा ही होता रहा है। इसका नतीजा यह हुआ कि समाज को बहुत गहरा नुकसान हुआ और और हिंसा की वारदातें सामने आईं। मिसाल के तौर पर 2015 से पहले देश में बीफ लिंचिंग की एक भी घटना नहीं हुई थी, लेकिन हमने हिंसा की एक नई श्रेणी को ईजाद कर दिया।

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इसके और भी दूसरे प्रभाव हैं, जैसे कि आर्थिक। इसका असर बड़ी आबादी पर होगा लेकिन आज इसके बारे में बात करने से कोई फायदा नहीं। बाहरी तौर पर देखें तो नफरत के लिए हमारी श्रद्धा के चलते पूरी दुनिया की नजर हम पर है। सिर्फ उदाहरण देखना हो तो 14 अप्रैल को यूरोपीय संसद में हुए घटनाक्रम को देख लें:

"सदस्यों ने भारत में मानवाधिकारों के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त और अन्य यूएन प्रतिनिधियों की टिप्पणियों का समर्थन किया। इसमें मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर हमले का भी जिक्र है और कहा गया कि भारत इन लोगों के लिए काम करने लायक जगह नहीं बची है। रिपोर्ट में सीएए का भी जिक्र है जिसे संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त ने पक्षपातपूर्ण और मुसलमानों के खिलाफ एक विभाजनकारी कदम कहा।"

इस प्रस्ताव के पक्ष में 61 वोट पड़े और विरोध में सिर्फ 6। भारत ने अपने तौर पर इसे रोकने की कोशिश की लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। भारत सरकार इस रिपोर्ट को भी अन्य रिपोर्ट्स की तरह खारिज कर देगी। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि जब पूरी दुनिया आपकी तरफ इस तरह देख रही हो तो आपको संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कैसे जगह मिलेगी।

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भारत को बाहर के लोग एक अफरा-तफरी भरे, शोरगुल वाले देश के रूप में देखते थे लेकिन इसे पसंद करते थे। ऐसा उस समय था जब मैं 16 वर्ष की उम्र में पहली बार विदेश गया था। लेकिन अब यह बदल चुका है। उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं। एक भारतीय के तौर पर इस सबको देखना दुखद तो है, लेकिन इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।

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