विचार

आकार पटेल का लेख: नारे और जुमलेबाज़ी की आड़ में राष्ट्रीय सुरक्षा पर आए संकट में पीठ दिखा रही है सरकार

हैरान करने वाली बात है कि इतने गंभीर मुद्दे को इतने लापरवाह और बेढंगे तरीके से निपटाया जा रहा है, लेकिन इस सरकार से आखिर उम्मीद भी क्या की जा सकती है। यह तो धुंधली उपलब्धियों और जुमलेबाजी की आड़ लेकर नेशन फर्स्ट और इंडिया फर्स्ट के नारे उछालती रही है।

Photo by Mikhail Svetlov/Getty Images
Photo by Mikhail Svetlov/Getty Images Mikhail Svetlov

भारत की कोई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति नहीं है। अगर कुछ है तो इसे बीजेपी के 2014 के घोषणापत्र में इस्तेमाल शब्द ‘इंडिया फर्स्ट’ और 2019 के घोषणापत्र में इस्तेमाल ‘नेशन फर्स्ट’ से समझने की कोशिश की जा सकती है। लेकिन इन दोनों का दरअसल अर्थ है क्या, इसे पार्टी ने नहीं समझाया है।

घोषणा पत्र में अमित शाह ने लिखा था, “मित्रों, यह चुनाव सिर्फ सरकार चुनने के लिए नहीं है, बल्कि यह चुनाव देश की राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए है।”

राष्ट्रीय सुरक्षा शीर्षक के तहत बीजेपी के घोषणा पत्र में दो बाते हैं। एक – देश की मारक क्षमता बढ़ाने के लिए आधुनिक हथियारों की खरीद और रक्षा उपकरणों का स्थानीय उत्पादन। इसमें भारत को किसी सुरक्षा चुनौती का जिक्र नहीं है। पीएम मोदी के नेतृत्व में भारत का फोकस आंतकवाद विरोधी, और खासतौर से कश्मीर पर केंद्रित रहा है, और संभवत: इसे ही देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी समस्या माना गया है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल भी अपने भाषणों में इसका जिक्र करते रहे हैं।

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उनकी मान्यता है कि पाकिस्तानजनित आतंकवाद एक सामरिक खतरा है और इससे आक्रामकता के साथ ही निपटा जा सकता है। सितंबर 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक और फरवरी 2019 की एयरस्ट्राइक इसी का नतीजा हैँ। ये दोनों स्ट्राइक भारतीय सेना पर हमले और सीआरपीएफ कैंप पर आत्मघाती हमले के बाद की गई थीं। डोवाल की सुरक्षा का सिद्धांत यही है कि इन दो स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देना बंद कर देगा। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इन स्ट्राइक के बाद कोई फर्क नहीं पड़ा है। 2016 में जहां कश्मीर में हिंसा में 265 लोगों की जान गई थी वहीं, 2017 में .ह बढ़कर 357 हो गई तो 2018 में 452।

राष्ट्रीय सुरक्षा पर डोवाल नीति को गहराई से देखने की जरूरत है, लेकिन औपचारिक तौर पर ऐसा कभी हुआ नहीं है। सेनाध्यक्ष एम एम नरवणे और सीडीएस जनरल बिपिन रावत, दोनों ही आतंकविरोधी ऑपरेशन के विशेषज्ञ हैं। ऐसे में चीन की तरफ से आई चुनौती को लेकर भारत की प्रतिक्रिया की कोई स्पष्ट नीति नहीं दिखी है।

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इसके अलावा एक और समस्या है और वह यह कि देश का राजनीतिक नेतृत्व राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। सेना ने अपना मत दिया है कि वह दो मोर्चों पर युद्ध के लिए तैयार है। क्या यह देश की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति है? हमें ऐसा इसलिए मानना पड़ रहा है क्योंकि इस मुद्दे पर बीजेपी की कोई नीति ही नही हैं। क्या भारत की सुरक्षा को पाकिस्तान से खतरा है? जवाब हां ही लगता है, हालांकि इस समय खतरा दूसरी तरफ से है।

मनमोहन सिंह के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन ने 2012 में देश के लिए एक विदेश और सामरिक नीति बनाने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए एक समूह को अधिकृत किया था। इस समूह में इतिहासकार सुनील खिलनानी, लेफ्टिनेंट जनरल प्रकास मेनन, सैन्य विद्धान श्रीनाथ राघवन, डिप्लोमैट श्याम शरण और नंदन निलेकणी शामिल थे। इस समूह ने जो दस्तावेज तैयार किया था उसे गुट निरपेक्ष 2.0 का नाम दिया गया था और इसमें सीमा प्रबंधन, साइबर सुरक्षा, रक्षा उद्योग के साथ ही पड़ोसियों के साथ रिश्तों को भी रेखांकित किया गया था।

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इस दस्तावेज के एक अध्याय में चीन के साथ संभावित टकराव का भ जिक्र है। इसमे कहा गया है, “चीन कुछ भौगोलिक इलाकों पर बलपूर्वक अपना दावा ठोक सकता है (खासतौर से अरुणाचल और लद्दाख क्षेत्र में)। ऐसी आशंका है कि चीन क्षेत्रीय कब्जा करने की कोशिश करे। इस किस्म के टकराव में एलएसी के कुछ हिस्से हो सकते हैं जहां दोनों तरफ के दावे भिन्न हैं। इन जगहों की जानकारी सर्वविदित है।”

दस्तावेज में इस मुद्दे पर सैन्य सौच का जिक्र करते हुए कहा गया है कि, “चीन द्वारा जमीन कब्जा करने की कोशिशों का जवाब देना का सही तरीका यही होगा कि हम भी एलएसी के पार जाकर ऐसी ही कार्रवाई करें। यह जैसे को तैसा जवाब देने की रणनीति है। ऐसे कई इलाके हैं जहां स्थानीय रणनीतिक और ऑपरेशनल एडवांटेज हमारे पक्ष में हैं। इन इलाकों की पहचान की जानी चाहिए और निशानदेही कर सीमित ऑफेंसिव ऑपरेशन किए जाने चाहिए।”

यानी इस दस्तावेज में चीन जमीन पर तुरत फुरत कब्जा करने का सुझाव दिया गया है, इससे चीन पर कूटनीतिक दबाव बनेगा और वह हमारी जमीन छोड़ने को मजबूर होगा। दस्तावेज में इसके लिए क्विक यानी फौरी शब्द का इस्तेमाल किया है। एलएसी पर चीन की घुसपैठ के तीन महीने होने को आ रहे हैं, लेकिन हमने अभी तक ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है। सीधा सा अर्थ है कि पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार के दौर में राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को नजरंदाज कर दिया गया है। इतना ही नहीं हमने तो समस्या को ही मानने से इनकार कर दिया है। और स्थिति ऐसी बन गई है कि देश के रक्षा मंत्री चीनी रक्षा मंत्री के साथ उस स्थिति पर बात कर रहे हैं जो प्रधानमंत्री के मुताबिक है ही नहीं।

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पूर्व सैन्याधिकारी और विश्लेषक सुशांत सिंह ने करण थापर के साथ एक इंटरव्यू में कहा था कि होन तो यह चाहिए था कि प्रधानमंत्री मोदी समस्या की जिम्मेदारी लेते और सीधे शी चिनफिंग से बात करते। लेकिन हुआ यह कि सरकार ने कह दया कि सेना को खुली छूट दी गई है कि वह कोई भी ऑपरेशन कर ले। इस मुद्दे पर सरकारी उलझन और अव्यवस्था स्पष्ट हो चुकी है। सरकार इस बात से इनकार कर रही है कि कोई समस्या है, लेकिन सेना को समस्या के समाधान के लिए खुली छूट भी दे रही है।

यह हैरान करने वाली बात है कि इतने गंभीर मुद्दे को इतने लापरवाह और बेढंगे तरीके से निपटाया जा रहा है, लेकिन इस सरकार से आखिर उम्मीद भी क्या की जा सकती है। यह सरकार तो धुंधली उपलब्धियों और जुमलेबाजी की आड़ लेकर नेशन फर्स्ट और इंडिया फर्स्ट के नारे उछालती रही है। और जब राष्ट्रीय सुरक्षा पर असली संकट है तो पीठ दिखा रही है।

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