विचार

अमेरिका पर भरोसा नहीं कर सकता भारत, जरा ट्रंप के इन बयानों पर करें गौर

चीन ने साफ कहा है कि वह पाकिस्तान की मदद करेगा जबकि भारत के पक्ष में इस तरह खुलकर स्टैंड किसी ने नहीं लिया।

फोटो: Getty Images
फोटो: Getty Images 

डॉनल्ड ट्रंप का अमेरिका के राष्ट्रपति कार्यकाल में काम करते सौ दिन हो गए हैं। इन सौ दिनों में वह तमाम मोर्चों पर ‘युद्ध’ करते रहे हैं। इनमें से एक पोलस्टर्स के साथ ‘युद्ध’ भी है जिसमें ट्रंप पिछड़ रहे हैं। उनकी स्वीकृति रेटिंग में गिरावट आई है और केवल 38 फीसद अमेरिकियों ने अर्थव्यवस्था को संभालने के उनके तरीके का समर्थन किया, और उससे भी कम लोगों को लगा कि वह महंगाई और टैरिफ के मामलों को सही तरह से संबोधित कर रहे हैं। ऐसे में ट्रंप अभी उत्तेजित हैं, और भारतीय उपमहाद्वीप में कोई भी टकराव उनकी प्राथमिकता में नहीं रहने वाला। 

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वैसे, इसका अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है कि 22 अप्रैल के पहलगाम हमले को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच के ताजा तनाव को लेकर ट्रंप क्या सोचते हैं। उन्होंने दुश्मनों से दोस्ती करके और दोस्तों से दोस्ती तोड़कर अमेरिकी विदेश नीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है। जरा ट्रंप के बयानों पर गौर करें।

ट्रंप की शुरुआती प्रतिक्रिया यह थी कि अमेरिका ‘आतंकवाद के खिलाफ भारत के साथ मजबूती से खड़ा है’। फिर, 27 अप्रैल को वेटिकन में पोप फ्रांसिस के अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए उड़ान भरते समय उन्होंने पत्रकारों से कहा, ‘मैं भारत के बहुत करीब हूं और पाकिस्तान के भी बहुत करीब हूं। जैसा कि आप जानते हैं, वे कश्मीर में एक हजार साल से लड़ रहे हैं। वे किसी न किसी तरह इसका हल निकाल लेंगे। मैं दोनों नेताओं (नरेन्द्र मोदी और शाहबाज शरीफ) को जानता हूं।’

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अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने रॉयटर्स से बातचीत में कहा: ‘यह एक आकार ले रही स्थिति है और हम घटनाक्रम पर बारीक नजर रखे हुए हैं। हम कई स्तरों पर भारत और पाकिस्तान की सरकारों के साथ संपर्क में हैं। अमेरिका सभी पक्षों को एक जिम्मेदार समाधान की दिशा में मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है।’ यह बयान विवेक से काम करने की तरफदारी करता दिखता है। 

इसके उलट, चीनी समाचार एजेंसी ‘शिन्हुआ’ ने अपने विदेश मंत्री वांग यी के हवाले से साफ शब्दों में कहा- चीन ‘पाकिस्तान की संप्रभुता और सुरक्षा हितों की रक्षा करने में उसका समर्थन करता है।’ ‘यूरेशियन टाइम्स’ के मुताबिक, जिस रफ्तार से चीन ने अपनी पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) वायु सेना के स्टॉक से पीएल-15 एयर-टू-एयर मिसाइलें पाकिस्तान को दी हैं, वह भारत को रोकने के लिए बीजिंग के दृढ़ संकल्प को दिखाता है। तुर्की के सी-130 सैन्य परिवहन विमान भी युद्धक साजो-सामान के साथ पाकिस्तान में उतरे जिससे पता चलता है कि अंकारा के साथ भी इस्लामाबाद ने बेहतर रिश्ते बना लिए हैं। 

वहीं, भारत को हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता रूस यूक्रेन के साथ उलझा हुआ है और भारतीय सशस्त्र बलों को की जाने वाली आपूर्ति में पिछड़ रहा है। इसके अलावा मौजूदा समय में रूस की चीन पर निर्भरता पहले से कहीं अधिक है जबकि मॉस्को-नई दिल्ली का समीकरण, भारत-सोवियत के दिनों के परस्पर भरोसे पर आधारित होने की जगह लेन-देन पर ज्यादा आधारित हो गया है। रक्षा विश्लेषक प्रवीण साहनी का मानना ​​है कि चीन की पी.एल.ए. ‘सैनिकों अथवा परंपरागत हथियारों के इस्तेमाल बिना लक्ष्यों को पाने की अपनी व्यापाक क्षमताओं और कलपुर्जों, गोला-बारूद, मिसाइलों आदि की नियमित आपूर्ति के साथ पाकिस्तानी सेना की मदद करेगी.... भारतीय सेना के पास युद्ध-जीतने वाली यह बढ़त नहीं होगी.... पी.एल.ए. पाकिस्तानी सेना को विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम में श्रेष्ठता बनाने में भी मदद करेगी।’ 

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पश्चिमी ताकतें भारत की ओर प्रेम से नहीं बल्कि आर्थिक हितों के कारण आकर्षित होती हैं। फ्रांस भारत को राफेल लड़ाकू विमान बेच सकता है, लेकिन वह चीन द्वारा पाकिस्तान को दी जा रही सैन्य मदद जैसा कुछ नहीं करने जा रहा। ब्रिटेन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का समर्थन कर सकता है, लेकिन वह पाकिस्तान के खिलाफ भारत की आक्रामकता को बर्दाश्त नहीं करेगा, चाहे वह आत्मरक्षा में ही क्यों न हो।

11 मार्च को बलूच राष्ट्रवादियों द्वारा क्वेटा से पेशावर जाने वाली ट्रेन पर घात लगाकर किए गए हमले ने पाकिस्तान में अटकलों को हवा दे दी कि सरकार इसे बर्दाश्त नहीं करेगी क्योंकि उनका मानना ​​है कि भारत बलूच अलगाववादियों की मदद कर रहा है। 15 अप्रैल को पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर के बयान में इसी गुस्से की झलक दिखी। भारतीय एजेंसियों ने या तो पाकिस्तानी मूड को समझा नहीं या उसे अनदेखा कर दिया।

इसमें संदेह नहीं है कि 1971 में भारत के साथ अपमानजनक शिकस्त खाने और अपने पूर्वी हिस्से को बांग्लादेश के रूप में एक आजाद मुल्क के तौर पर बनते देखने के बाद पाकिस्तान ने 1989 से खास तौर पर मुस्लिम बहुल भारतीय कश्मीर में विद्रोह को भड़काना शुरू कर दिया था। भारत ने 1990 के दशक से पलटवार करना शुरू किया। हिंसक प्रतिशोध का यह चक्र जारी रहा और 2008 में पाकिस्तानी आतंकवादियों ने मुंबई हमले में एक ब्रिटिश नागरिक सहित लगभग 165 लोगों की हत्या कर दी। मोदी के सत्ता में आने के बाद, भारतीय सैन्य प्रतिष्ठानों- उरी, पठानकोट और अन्य- पर हमले संघर्ष की खासियत बन गए।

अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों का मानना ​​है कि पहलगाम हमले का बदला लेने के जुनून में मोदी ने अगर पाकिस्तान के भीतर कार्रवाई कर दी तो शायद सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर के लिए इस क्षेत्रीय उल्लंघन को बर्दाश्त करना मुश्किल होगा। कारण, प्रधानमंत्री इमरान खान के सत्ता से हटने के बाद भी उनकी जबर्दस्त लोकप्रियता के मद्देनजर मुनीर सेना की सर्वोच्चता बहाल करने को बेताब हैं। तनाव बढ़ने का खतरा इसीलिए है। 

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तमाम विशेषज्ञ मानते हैं कि पारंपरिक युद्ध में भारत को बढ़त हासिल है। फिर भी, 1999 के कारगिल युद्ध में भारत ने पाकिस्तान से ज्यादा सैनिक खोए। सैटेलाइट इमेजरी से पता चलता है कि मोदी की 2019 की जवाबी कार्रवाई में कुछ भी ठोस नहीं हुआ था। दोनों वायु सेनाओं के बीच हुई हवाई लड़ाई में पाकिस्तान ने भारत के एक लड़ाकू विमान को मार गिराया और उसके पायलट को पकड़ लिया। वाशिंगटन ने भारत के इस दावे का समर्थन नहीं किया कि उसने अमेरिका निर्मित पाकिस्तान वायु सेना के एफ-16 लड़ाकू विमान को मार गिराया था। इसलिए पारंपरिक युद्ध के मामले में भी भारतीय सशस्त्र बलों को 1965, 1967 (नाथू ला) और 1971 के स्तरों पर पहुंचने के लिए अपने हालिया प्रदर्शन में अच्छा-खासा सुधार करना होगा।

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