विचार

राम पुनियानी का लेख: क्या अब मथुरा की बारी है? कृष्ण जन्मभूमि मुद्दे को पुनर्जीवित करने की कोशिश

आम लोगों की निगाह में मुस्लिम राजा मंदिरों के ध्वंस और इस्लाम में धर्म परिवर्तन के प्रतीक बन गए हैं। मुस्लिम राजाओं का दानवीकरण और उनके प्रति नफरत ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा का आधार है और नफरत और ध्रुवीकरण ही संघ परिवार का प्रमुख हथियार हैं।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं। जमीनी स्तर की स्थिति पर नजर रखने वाले अधिकांश राजनैतिक विश्लेषकों का मत है कि राज्य में मोदी और योगी की लोकप्रियता में जबरदस्त गिरावट आई है। इसका कारण हैं वे परेशानियां जो आम लोगों को भुगतनी पड़ी हैं। कोरोना के कारण पलायन, किसानों का आंदोलन, बेरोजगारी में जबरदस्त इजाफा और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली जनता में असंतोष के अनेक वजहों में कुछ हैं। इन सबके चलते आम लोग साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के उस दलदल से बाहर निकल रहे हैं, जिसमें वे पिछले कुछ दशकों से फंसे हुए थे। उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के हालिया बयान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

अपनी सरकार में कानून और व्यवस्था की ‘बेहतरीन’ स्थिति का वर्णन करने वाले अपने एक ट्वीट में उन्होंने समाज को बांटने की अपनी प्रवृत्ति का भरपूर परिचय दिया। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश की सरकार ने लुंगी वालों और जालीदार टोपी पहनने वालों द्वारा किए जाने वाले अपराधों, जिनमें जमीनों पर कब्जा और फिरौती के लिए अपहरण शामिल हैं, से उत्तर प्रदेश की जनता को मुक्ति दिलाई है। एक अन्य ट्वीट में उन्होंने कहा कि अयोध्या और काशी में भव्य मंदिरों का निर्माण कार्य जारी है और अब मथुरा की बारी है।

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मंदिर-मस्जिद मुद्दे को भाजपा ने सबसे पहले 1984 में उठाया था। सन् 1986 में विश्व हिन्दू परिषद ने यह संकल्प लिया कि भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या, भगवान कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा में इन दोनों देवों के और वाराणसी भगवान शिव के भव्य मंदिर बनाए जाएंगे। बाबरी मस्जिद को ढहाते समय संघ परिवार के कार्यकर्ताओं का नारा था कि यह तो केवल शुरूआत है और आगे काशी और मथुरा की बारी है। यह इस तथ्य के बावजूद कि सन 1991 के धर्मस्थल अधिनियम के अनुसार सभी आराधना स्थलों पर 15 अगस्त 1947 की स्थिति बनाए रखी जाना है।

मंदिर-मस्जिद का मुद्दा संघ और भाजपा के लिए वोट कबाड़ने का जरिया बन गया है। राम मंदिर आंदोलन, जिसकी परिणति बाबरी मस्जिद के ध्वंस और राममंदिर के निर्माण में हुई, ने संघ परिवार को चुनावों में जबरदस्त फायदा पहुंचाया। बाबरी मस्जिद मामले में संघ परिवार के सभी दावे खोखले थे। उच्चतम न्यायालय तक को यह कहना पड़ा कि सन 1949 में मस्जिद में रामलला की मूर्तियों की स्थापना एक अपराध था और सन 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस भी एक अपराध था। न्यायालय ने यह भी स्वीकार किया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राम मंदिर के मलबे पर किया गया है और भगवान राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था - ये दोनों दावे अप्रमाणित हैं। पर इस सबके बावजूद इस मुद्दे ने भाजपा को वोटों से मालामाल कर दिया।

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यह दावा कि मुस्लिम शासकों ने देश में अनेक मंदिर गिराए थे, इतनी बार दुहराया गया कि लोग उसे ध्रुव सत्य मानने लगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुस्लिम राजाओं ने मंदिर गिराए, परंतु हिन्दू राजा भी मंदिर गिराने में पीछे नहीं थे। सोमनाथ मंदिर के ध्वंस को महमूद गजनी से जोड़ा जाता है, परन्तु उसने धार्मिक कारणों से सोमनाथ पर हमला नहीं किया था। उसका उद्देश्य मंदिर की अथाह संपत्ति लूटना था।

कल्हण की ‘राज तरंगिणी’ हमें बताती है कि 11वीं सदी के कश्मीर के शासक हर्षदेव के दरबार में एक अधिकारी का काम केवल सोने और चांदी की मूर्तियों को मंदिरों से उखाड़कर राजकोष में पहुंचाना था। जाने-माने अध्येता रिचर्ड ईटन के अनुसार हिन्दू राजा अपने प्रतिद्वंद्वियों के कुलदेवता की मूर्ति खंडित करते थे और औरंगजेब ने गोलकुंडा में स्थित एक मस्जिद को इसलिए गिरा दिया था क्योंकि वहां के शासक तानाशाह ने कई सालों से बादशाह को वार्षिक नजराना नहीं दिया था।

ये सारी जानकारियां ऐतिहासिक दस्तावेजों में उपलब्ध हैं। अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की अपनी नीति के तहत इतिहास के चुनिंदा पक्षों का इस्तेमाल किया। इससे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नफरत पैदा हुई। आज स्थिति यह बन गई है कि शाखाओं, स्कूलों और मीडिया संस्थानों के अपने जाल के जरिए साम्प्रदायिक संगठनों ने मुस्लिम राजाओं पर मंदिरों के विध्वंसक होने का ठप्पा लगा दिया है। हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि तर्क और तथ्यों की बात करने वालों को अजीब निगाहों से देखा जाता है।

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आंद्रे त्रुश्के की पुस्तक ‘औरंगजेब’ कहती है, “औरंगजेब के शासनकाल की शुरूआत में मुगल साम्राज्य में जो दसियों हजार हिन्दू और जैन मंदिर थे उनमें से सभी नहीं परन्तु अधिकांश औरंगजेब के शासनकाल के अंत में भी खड़े थे। त्रुश्के आगे लिखते हैं, “राजनैतिक घटनाक्रम के कारण औरंगजेब को कुछ हिन्दू मंदिरों पर हमला करना पड़ा। औरंगजेब ने 1669 में काशी विश्वनाथ मंदिर और 1670 में मथुरा के केशवदेव मंदिर को ढहाने का हुक्म दिया, परंतु इसके पीछे मंदिर से जुड़े लोगों के राजनैतिक कार्यकलाप थे और इसका उद्देश्य मुगल साम्राज्य के आगे उन्हें झुकाना था।”

रिचर्ड ईटन के अनुसार औरंगजेब के शासनकाल में जिन मंदिरों को गिराने के लिए शाही फरमान जारी किए गए उनकी संख्या 1 से 12 के बीच थी।

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त्रुश्के लिखते हैं, “सन् 1670 में औरंगजेब ने मथुरा में वीर सिंह बुंदेला द्वारा 1618 में निर्मित कृष्णादेव मंदिर को नेस्तोनाबूद करने का हुक्म दिया। इसके पीछे राजनीतिक कारण थे...हो सकता है कि मथुरा के ब्राम्हणों ने आगरा के किले से भागने में शिवाजी की मदद की हो।”

इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि राजाओं का लक्ष्य सत्ता और संपत्ति था। अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक इतिहास लेखन द्वारा राजाओं को उनके धर्म से जोड़ा। इस कुटिल चाल के जरिए मुस्लिम शासकों की हरकतों के लिए आज के मुसलमानों को दोषी ठहराया गया। ब्रिटिश काल से जारी अनवरत प्रचार का ही यह नतीजा है कि आम लोगों की निगाह में मुस्लिम राजा मंदिरों के ध्वंस और इस्लाम में धर्म परिवर्तन के प्रतीक बन गए हैं। मुस्लिम राजाओं का दानवीकरण और उनके प्रति नफरत ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा का आधार है और नफरत और ध्रुवीकरण ही संघ परिवार का प्रमुख हथियार हैं।

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मथुरा में कृष्णा जन्मभूमि और शाही ईदगाह का एक-दूसरे के अगल-बगल में होना हमारी वास्तविक संस्कृति को दर्शाता है। भारत में हिन्दू और मुसलमान सदियों से मिलजुलकर रहते आए हैं और एक-दूसरे के त्यौहारों पर खुशियाँ मनाना उनके जीवन का भाग रहा है। मुंबई के दादर में एक ट्रेफिक आईलैंड है जिस पर एक मंदिर, एक मस्जिद और एक चर्च तीनों बने हुए हैं। मुम्बई में सन् 1992-93 की भयावह साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान भी इनमें से एक भी आराधना स्थल को तनिक भी नुकसान नहीं पहुंचाया गया। सभी धर्मों के लोग इस पर बहुत श्रद्धा रखते हैं। क्या हम ऐसे भारत की कल्पना कर सकते हैं जिसमें ऐसे स्थानों के प्रति सम्मान का भाव हो।

लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं

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