विचार

यूपी में अपने फायदे के लिए दलित समुदाय की अस्मिता को संघ की चौखट पर नीलाम कर गई बहनजी!

अपनी विचारधारा, अपनी पार्टी, अपने वोटबैंक की बलि चढ़ा कर मायावती हाथी से उतर कर कमल खिलाने लगीं और इल्जाम मुसलमानों पर लगा दिया गया

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उत्तर प्रदेश में इस दफा भारतीय जनता पार्टी के विजयी विधायकों से ज़्यादा बहुजन समाज पार्टी के उस विधायक की चर्चा रही जिसने जीत हासिल कर पार्टी की नाक बचाई। इस दफा बसपा के मामले में राजनीतिक पंडितों का आकलन था कि बसपा ने अगर कम-से-कम सीटें भी हासिल कीं तो भी वह 20 से 40 के बीच सीटें जीतने में कामयाब होगी। लेकिन पार्टी को ऐसी हार मिली जिसकी उम्मीद किसी को भी नहीं थी। पार्टी सुप्रीमो मायावती इसका ज़िम्मेदार मुसलमानों को बता रही हैं। वह यह भी बोल रही हैं कि मुसलमानों ने इस इलेक्शन में वोट देने में गलती की।

बसपा के हिस्से सिर्फ एक सीट बलिया ज़िले की रसड़ा विधानसभा आई, जहां से दो बार के विधायक रहे उमाशंकर सिंह जीते हैं। चुनाव दर चुनाव बसपा का वोट बैंक दरकता चला गया। साल 2017 की अपेक्षा इन चुनावों में पार्टी को दस फीसदी कम वोट मिले जबकि 2017 में पार्टी को 22 फीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे। मुसलमानों के सिर हार का ठीकरा फोड़नेवाली मायावती की चुनाव लड़ने की गंभीरता इस बात से समझी जा सकती है कि वह चुनाव से मात्र 8 दिन पहले चुनावी रैली के लिए घर से निकलीं। सिर्फ साल 1993 से लेकर साल 2007 में ही पार्टी ने वोट लेने में बढ़त हासिल की उसके बाद लगातार पार्टी का वोट बैंक दरकता चला गया। कहा तो यह भी जा रहा है कि बहन जी ने अपने फायदे के लिए पूरे दलित समुदाय की अस्मिता को संघ की चौखट पर नीलाम कर दिया। मनुवादी विचारधारा के तथाकथित दुश्मन बहस का विषय मुसलमान को ही क्यों बना रहे हैं? बाकी जातियों और धर्मों के लोगों की आखिर इन्हें चिंता क्यों नहीं है? देखा जाए तो मायावती इलेक्शन भर तो ब्राह्मण वोट जुटा रही थीं अब उनको लेकर शिकायत क्यों नहीं है?

मायावती का ये प्रलाप ना चुनावी विश्लेषण है, ना कोई दर्द, ना शिकायत है, बल्कि यह दलितों के मन में संघ द्वारा रोपी गई एंटी मुस्लिम मानसिकता को मायावती जी से वैलिडेट करवाने की सियासत है। यानी कि दलित समुदाय के मन में मुसलमानों के लिए खटास पैदा करना। बहनजी संघ के कम्यूनल एजेंडा को तो बारीकी से चला ही रही हैं साथ ही वह एससी और ओबीसी के बीच भी नफरत की खाई खोदने में लगी हैं ताकि दलित राजनीति के वैचारिक उभार से ब्राह्मणवादी वर्चस्व और आर्डर को जो खतरा पैदा हुआ था वो हमेशा के लिए खत्म हो सके। हमें उनकी इस साज़िश को समझने और बेनकाब करने की ज़रूरत है।

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसाइटी ने हाल ही में एक आंकड़ा जारी किया है। मायावती जब 2007 में चुनाव जीती थीं उस वक्त 85% जाटव, 71% वाल्मीकि और 57% पासी जाति के लोगों ने बसपा को वोट दिया था। 2012 में जाटव 62%, पासी 51% साथ रहे लेकिन वाल्मीकि जाति की तरफ से 42% वोट ही मिले। ये पहली बार था जब मायावती के कोर वोटर का उनसे मोहभंग हो रहा था। यानी की बहनजी का कोर वोटर ही उनसे छिटक गया। हालांकि मैं व्यक्तिगत तौर से इस स्ट्डी से सहमत नहीं हूं, मैंने जो पूरे राज्य में ज़मीनी स्तर पर देखा है जाटव जिन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश में हरिजन या चमार जाति के नाम से जाना जाता है, को छोड़कर पासी, खटीक और दूसरी एससी जातियों का समर्थन बहुजन समाज पार्टी को व्यापक रूप से कभी भी हासिल नहीं हो सका। इस बार वो कोर वोटर भी बहनजी के साथ खड़ा नहीं रहा।

अपनी विचारधारा, अपनी पार्टी, अपने वोटबैंक की बलि चढ़ा कर वह हाथी से उतर कर कमल खिलाने लगीं। मायावती से मुसलमान नहीं छिटके बल्कि वह खुद अपने ही वोटबैंक से छिटक गई हैं। दर्शन से लेकर टिकट और रैलियों तक की बोली लगाने वाली बहनजी पूरी दलित राजनीतिक विचारधारा को आखिरकार हाशिए पर पहुंचाने में कामयाब रहीं।

पैदल और साइकिल से पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक पार्टी विचारधारा को मज़बूती देने वाले कांशीराम की रखी नींव में बहनजी ने घुन लगा दिया और दोष मुसलमानों को दे रही हैं। मुसलमान यह जानते हैं कि उन्हें वोट कहां देना है और क्यों देना है। मायावती के कहने के मायनों पर जाएं तो मुसलमानों ने ही उनकी पार्टी को जिताने का ठेका लिया हुआ है। जबकि उत्तर प्रदेश समेत देश भर में मॉब लिंचिंग, सीएए, एनआरसी, टारगेट एनकाउंटर, हिजाब और गोश्त के कारोबार पर गिरी गाज, मस्जिदों में लगे स्पीकरों के विवाद, लव जेहाद जैसे ज्वलंत मुद्दों पर बहनजी खामोश रहीं। इन मुद्दों पर उनका हाथी पालथी मारे बैठा रहा।

अपनी जीत के लिए केवल मुस्लिम वोटबैंक पर निगाह रखने वाले सांप्रदायिक राजनीति का बीज रोप कर रहे हैं। ध्रुवीकरण को मज़बूत कर रहे हैं। मुसलमानों को यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि वह किसे वोट दें बल्कि ज़रूरत इस बात की है कि बहनजी अपने असल छिटक गए वोटरों को पहचानें और उनका वोटर अपनी पार्टी को पहचाने। वह देश का बड़ा खतरा, महंगाई, बेरोजगारी, जर्जर स्वास्थ्य सेवा, गरीबी को माने न कि मुसलमान को। मुसलमानों पर संकट की घड़ी में आप उनके साथ नहीं थे तो फिर हारने के बाद ठीकरा मुसलमानों के सिर कैसे? कहीं न कहीं यह उनके मन में मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक भावना का प्रकटीकरण भी है। जिसे अब मुसलमान ठीक से पहचान चुके हैं। एक बार उन्होंने बयान भी दिया था कि मुसलमान कट्टर होते हैं। तो मुसलमानों से वोट की उम्मीद क्यों?

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