विचार

मेरे घर आके तो देखो / मुहब्बत ही मुहब्बत है...

मुसलमान रोज बिरयानी-कोरमा नहीं खाते, वो भी रोजमर्रा की जिंदगी में हमारी तरह ही खाना खाते हैं। उनके घरों में वेस्टर्न स्टाइल का लिविंग रूम और डाइनिंग टेबल भी है। वे भी हमारी तरह ही किताबें पढ़ते हैं और टीवी देखते हैं और उन्हें संगीत से कोई परहेज नहीं है।

इस अभियान को नंदिता जैसे अभिनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं का समर्थन मिल रहा है
इस अभियान को नंदिता जैसे अभिनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं का समर्थन मिल रहा है 

जाने-माने पत्रकार सईद नकवी ने एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम के दौरान सभागार में मौजूद लोगों से एक बार पूछा था कि हिंदू छात्र या शिक्षक कभी किसी मुस्लिम सहकर्मी के घर गए हैं या मुसलमानों को करीब से जानने की कोशिश की है। जवाब में कुछ लोगों ने कहा कि मुसलमान मीट करी बहुत अच्छा पकाते हैं और वे अच्छी बिरयानी खाने के लिए मुस्लिम इलाकों में जाते हैं। मुसलमानों के बारे में उनका ज्ञान और समझ इतनी ही थी। हद तो यह कि एक ही मोहल्ले और सोसायटी में रहते हुए भी एक-दूसरे से दूर रहते थे।

कुछ ऐसा ही मेरा भी हाल था। मेरा जन्म और पालन-पोषण एक ऐसे सिख परिवार में हुआ, जिसने देश के विभाजन के दौरान नरसंहार देखा। चूंकि मेरे दादा-दादी को अपनी संपत्ति, घर-बार आदि छोड़कर पाकिस्तान से भारत आना पड़ा था, इसलिए हमारे घर में मुसलमानों को लेकर कुछ अलग किस्म का रुख था। एक ऐसी शिकायत थी, जो जुबां पर तो नहीं आती थी, लेकिन हमने अपने पलायन के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया था। मेरी दादी किसी मुस्लिम नौकर को अपने घर में घुसने नहीं देती थीं, खासकर रसोई में तो बिल्कुल नहीं।

Published: undefined

स्कूल में मेरे मुस्लिम सहपाठी थे। लेकिन उनसे मेरा मेलजोल और बातचीत सिर्फ क्लास तक ही सीमित थी। मुझे कभी उनके घर जाने का मौका नहीं मिला। जैसे-जैसे मैं कॉलेज गई और धीरे-धीरे पारिवारिक संबंधों से मुक्ति मिली, साथ ही पत्रकारिता में करियर के दौरान अपने दोस्तों का दायरा बढ़ाया, तो मुझे मुस्लिम सहकर्मियों को करीब से जानने और समझने का अवसर मिला।

मालूम हुआ कि मुसलमान रोजाना बिरयानी और कोरमा नहीं खाते, वो भी रोजमर्रा की जिंदगी में हमारी तरह ही खाना खाते हैं। उनके घरों में वेस्टर्न स्टाइल का लिविंग रूम और डाइनिंग टेबल भी है। वे भी हमारी तरह ही किताबें पढ़ते हैं और टीवी देखते हैं और उन्हें संगीत से कोई परहेज नहीं है।

मुसलमानों के बारे में यह भी बताया जाता था कि वह आबादी बढ़ाने की मशीन हैं, उनकी चार-चार पत्नियां होती हैं। पिछले कई दशकों से मैंने अपने दोस्तों में किसी भी मुस्लिम को चार बीवियों के साथ नहीं देखा है। वे भी अपने बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाने के लिए उतने ही परेशान रहते हैं जितने कि हम।

Published: undefined

अपने अतीत में झांकते हुए मुझे अक्सर एहसास होता है कि मैंने मुसलमानों के बारे में कितनी गलतफहमियाँ पाल रखी थीं और उन्हें ही हकीकत समझती थी। ऐसा लगता है कि एक बहु-जातीय और बहु-धार्मिक देश होने के बावजूद, भारत में लोग, विशेष रूप से शिक्षित और स्व-घोषित उदारवादी और प्रबुद्ध मध्यम वर्ग, एक खोल में रहते हैं। चरमपंथियों की तो बात ही अलग है। दिल और दिमाग में एक-दूसरे के बारे में भ्रम छिपे हुए हैं और वे उन पर ही विश्वास करते आए हैं। हम दशकों से नस्लीय भेदभाव के तहत जी रहे हैं और हम इसे पहचानते भी नहीं हैं।

अगस्त का महीना भारत और पाकिस्तान दोनों की आजादी का महीना होता है। इसी मौके पर जब प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री नंदिता दास, रत्ना पाठक और कुछ अन्य लोगों ने "मेरे घर आकर तो देखो" अभियान शुरू किया, तो मुझे लगा कि यह समय की जरूरत है। अपने घर के दरवाज़े अन्य समुदाय के सदस्यों के लिए खोलना और उन्हें भोजन और बातचीत में शामिल करना स्वतंत्रता दिवस मनाने का इससे आदर्श तरीका नहीं हो सकता।

Published: undefined

इस अभियान के तहत, एक समुदाय के सदस्य दूसरे समुदाय के सदस्यों को अपने घरों में आमंत्रित करेंगे और एक-दूसरे की संस्कृति और समानताओं को समझने की कोशिश करेंगे। यह अभियान अगले साल जनवरी तक जारी रहेगा, जिसमें सिर्फ हिंदू, मुस्लिम या सिख ही नहीं बल्कि ट्रांसजेंडर भी हिस्सा लेंगे।

सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी का कहना है कि 2002 के दंगों के जहर को फैलने से रोकने की कोशिश के तहत उन्होंने 2017 में गुजरात में इसी तरह का एक अभियान चलाया था। इन दंगों ने गुजरात में हिंदू और मुसलमानों के बीच एक चौड़ी खाई पैदा कर दी थी। उनके अभियान से काफी हद तक सांप्रदायिक सद्भाव को फिर से स्थापित करने में मदद मिली। इस बार अभियान राष्ट्रीय स्तर पर चलाया जाएगा।

Published: undefined

एक दशक पहले जब मैं सिख धार्मिक स्थलों के दर्शन के लिए पाकिस्तान गई तो मुझे एक सुखद अनुभव हुआ। मैं इस्लामाबाद के जिन्ना मार्केट में असली पाकिस्तानी पंजाबी भोजन की तलाश में घूम रही थी, तभी मेरी उम्र के दो लड़के मेरे पास आए। उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि मैं एक भारतीय यात्री हूं। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं एक अच्छे पाकिस्तानी पंजाबी होटल की तलाश में हूं, तो उन्होंने मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया। मैंने अनिच्छा से निमंत्रण स्वीकार कर लिया, लेकिन इस निमंत्रण ने वह कर दिखाया जो भारत और पाकिस्तान के बीच सहिष्णुता के विषय पर एक दर्जन किताबें पढ़ने और हजारों व्याख्यान सुनने से नहीं हो सका था।

जैसा कि भारत और पाकिस्तान आजादी की 77वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, जश्न मनाने से परे अपने घरों के दरवाजे खोलकर अपने पड़ोसियों और अन्य समुदायों के सदस्यों को जानने के लिए समय निकालने की जरूरत है। मैं इस साल अगस्त में स्वतंत्रता दिवस समारोह का आनंद लेने के लिए यही कर रही हूं। मेरी तरह, मैं नहीं चाहती कि मेरा बेटा भी उन्हीं गलतफहमियों या धार्मिक पूर्वाग्रहों से पीड़ित हो जैसा दशकों पहले था।

(इस अभियान के लिए शायर और सामाजिक कार्यकर्ता गौहर रज़ा ने एक नज्म लिखी है, जिसे अपूर्वा गौरी ने गाया और कम्पोज किया है। इसका वीडियो भी बनाया गया है जिसे साहिर रज़ा ने निर्देशित किया है। इस वीडियो को आप नीचे दिए लिंक में देख सकते हैं)

Published: undefined

इस नज्म को आप यहां पढ़ सकते हैं:

मेरे घर आके तो देखो

मुहब्बत ही मुहब्बत है,

अमन है, दोस्ती है

प्यार की साझी विरासत है

ये गलियां राह तकती हैं

ये कूचे राह तकते हैं

मेरे घर के ये दरवाजे खुले हैं

राह तकते हैं

मेरे घर में तुम्हारे वास्ते

उल्फत ही उल्फत है

मेरे घर आके तो देखो

मुहब्बत ही मुहब्बत है

अमन है दोस्ती है

प्यार की साझी विरासत है

कुछ लोगों की साजिश है

कि नफरत आम हो जाए

गली कूचों में नफरत हो

वतन बदनाम हो जाए

मगर हम सबके ख्वाबों में

मुहब्बत ही मुहब्बत है

मेरे घर के आके तो देखो....

(रोहिणी सिंह, दिल्ली स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। उनका यह लेख सबसे पहले डॉयचे वेले की उर्दू सर्विस में प्रकाशित हुआ था।)

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined