विचार

मृणाल पाण्डे का लेख: चुनावकाल में टीकों की राजनीति

यह सही है कि कोविड के ताजा और बेहद संक्रामक संस्करण ओमिक्रॉन की दस्तक सुनकर सरकार टीकाकरण के मामले में तेजी बरत रही है लेकिन अब तक सरकारी गतिविधि निरंतरता की नहीं, अचानक मेले की तरह कुछ दिन के शिविरों के आयोजन कराने और वाहवाही लूटने पर ही ज्यादा केन्द्रित दिखी है।

फोटोः IANS
फोटोः IANS 

मां भारती के पूजक और जनता के प्रधान सेवक हमारे शीर्ष नेता के अपने एक नियमित राष्ट्रीय उद्बोधन- मन की बात कार्यक्रम के बाद यकायक शाम को नामी-गिरामी चैनलों पर अवतरित होने की घोषणा आम जनता के लिए कुछ-कुछ भयकारी थी। वह इसलिए कि जनजीवन को रातोंरात अस्तव्यस्त कर देनेवाली अनपेक्षित नोटबंदी और तालाबंदी-जैसे राजकीय कदमों पर जनता तो छोड़िए, संसद या काबीना तक में कोई संवाद और विमर्श नहीं किया गया। उनकी घोषणा रात गए टीवी पर राष्ट्र के प्रधान सेवक ने हंसते हुए कर दी कि लो, अब देखो, कैसे अनुशासन लाता हूं। इससे पहले कि लोगबाग संभल पाते, मीडिया पर ढोलक बजाकर वाहवाही के पुल बांध दिए गए और चंद घंटों के भीतर नए नियमों को ताबड़तोड़ बाबूशाही द्वारा लागू करा दिया गया। लो कल्लो बात!

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जनता, नेता, विपक्ष, विशेषज्ञ सबकी उपेक्षा का नतीजा यह, कि तब से अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ाई हुई है, महंगाई, बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ गई और न तो वादे मुताबिक काला धन बाहर आया और न ही बैंकों से अनचुकाए लोन सहित बाहर भागे अरबपतियों को पकड़ कर वापिस लाया जा सका। तालाबंदी की बाबत कहा गया कि सामाजिक दूरी बनाने से कोविड की भयावह मार से जनता बच पाएगी। बची क्या? और जब मौत के भयावह नजारे सामने आने लगे और देश-विदेश से आंकड़े मांगे गए तो सबको कह दिया गया कि कोविड मौतों के कोई आंकड़े उपलब्ध ही नहीं। यही नहीं, कुछेक यशस्वी मुख्यमंत्री जिनके राज्य की जलती चिताएं विश्व मीडिया पर उमड़ी रहीं, अब कह रहे हैं कि उनके राज्य में कोविड से कोई मौतें नहीं हुईं। उन जैसा सफल निबटान किसी ने नहीं किया आदि। और विडंबना यह की नीति आयोग उनके दावों को तरह-तरह के तार्किक द्रविड़ प्राणायाम करता हुआ सत्यापित करने में जुटा हुआ है।

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किसी भी लोकतांत्रिक देश का राज-काज तीन पायों पर टिका रहता हैः एक, नीति निर्धारक सत्तारूढ़ नेता और उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी; दो, शिखर से जमीन तक कई श्रेणियों में बांटा गया (काबीना सचिव नीत) प्रशासन तंत्र; और तीन, सामयिक सलाह-मशवरे के लिए बनाए गए विशेषज्ञों के दल जिनमें देश के जाने-माने अर्थशास्त्री, बैंकर, सैन्य प्रतिनिधि, वैज्ञानिक और चिकित्सक सभी शामिल हैं। लेकिन सही लोकतांत्रिक कामकाज के लिए इन तीनों के बीच चुस्त तालमेल और एक-दूसरे की विशेषज्ञता को लेकर आदर भरी सहकारिता होनी जरूरी है। पर आदर और सहकारिता का बढ़ता अभाव अब छुपाए नहीं छुपता।

संघीय गणराज्य होने के बावजूद पिछले तकरीबन सात आठ सालों के बीच भारत में सत्ता का बेपनाह केन्द्रीकरण दिल्ली के हाथों में होता गया है। कभी मैत्री भरा आदर अब भय में और सहज सहकारिता और समन्वित प्रयास भी दब्बू आज्ञाकारिता में विलीन होते जा रहे हैं। जैसा तुलसीदास कह गए: सचिव, बैद, गुरु तीन जो प्रिय बोलिहिं भय आस/ राज, धर्म, तनु तीन कर होय बेगिहीं नास। जब सचिव, सलाहकार और चिकित्सक डरकर सिर्फ मीठा बोलने लगें, कड़वा सच न कहें, तो राज्य, धर्म और शरीर तीनों का नाश संभव है। यह आप्त कथन कोविड पर हो रही राजकीय अफरातफरी के बीच सतह पर आ चुका है।

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2020 की शुरुआत में जैसे ही महामारी ने कदम रखा विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी कि चिकित्सातंत्र पर भारी बोझ पड़ने जा रहा है जो फिलहाल खस्ताहाल और कटौतियों तथा ताबड़तोड़ निजीकरण से कमजोर हो चला है। पर चिकित्सातंत्र की दुरुस्ती की बजाय टीवी पर घरों में बंद जनता को ज्ञान दिया गया कि ताली, थाली, शंख, घंट बजाने, मोमबत्तियां जलाने, गिलोय का रस और गोबर, गोमूत्र के सेवन से विदेशी रोग के विषाणुओं का तुरंत नाश हो जाएगा! सत्यापित खबरों से वंचित अलग-थलग पड़ी डरी हुई विश्वासी जनता ने सब किया। गोदी मीडिया ने भक्तिरस में वंदना गाते हुए ओ हो मन में है विश्वास कर सुर में सुर मिलाया। पर जल्द ही जब महामारी ने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू किया तो सबकी घिग्घी बंध गई। उपरोक्त टोटकों की पैरवी करनेवाले कई सूरमा ढेर हो रहे। रही-सही कसर तालाबंदी और कुंभ के नाम पर डॉक्टरों की अनसुनी कर बुलाई भीड़ ने पूरी कर दी और महामारी गांव दराज तक जा पहुंची।

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आज भी राममंदिर, शिव मंदिर के भव्य रूपों, और बिजली की रोशनी में नहाई गंगा महाआरती की जितनी भी नैनलुभाव न छवियां दिखाई जाएं, उसे देखते लोगों की नजरों में कुछ ही माह पहले गंगा में बहती लाशें और प्रियजनों की सूने घाटों पर जलती चिताएं कौंध जाती हैं। कारण यह कि सारे फैसलों की कमान सबने अपने ज्ञात निष्कर्षों के बावजूद चाहे न चाहे शीर्ष राजनेताओं को थमा दी थी। विशेषज्ञों को भी चकरा देने वाले महारोग की सारी कमान चुनाव को एक महाभारत की तरह लड़नेवाले राजनेता थाम लें और कोई माई का लाल यह कहने का साहस न जुटा पाए कि सर, पहले विशेषज्ञ समिति की रपट का इंतज़ार कर लिया जाए ताकि जो भी फैसला हो, व्यवस्थित हो। तंत्र को उसकी मार्फत शोध का बोध और डेटा से बनी एक व्यवस्थित निर्देशावली मिले ताकि ऊपरी स्तर से सारा सरकारी अमला एकदम ग्राम स्तर तक रोग निरोधी मुहिम को जमीन पर ढग से लागू करा सके। इसी तरह जब टीकों की बात की जाए, तो जरूरी है कि पहले सबसे ज्यादा खतरे में पड़े समूहों की पहचान कराई जाए, ताकि उनसे शुरू कर क्रमश: सबको वाजिब दाम पर टीके हर कहीं साफ तौर से चिह्नित जगहों पर उपलब्ध कराए जा सकें। लेकिन इतनी हड़बड़ाहट में, बिना विशेषज्ञ समिति की अंतिम रपट का इंतजार किए (जैसा खुद समिति के प्रमुख ने बाद को कहा) युवाओं के लिए टीकाकरण और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए तीसरा टीका, यानी बूस्टर डोज (जिसे उन्होंने प्रिकॉशनरी यानी एहतियाती खुराक कहा) दिलवाए जाने का ऐलान कर दिया गया। जितना इस फटाफटी ने सबको चौंकाया, उतना ही विस्मयकारी यह भी था कि चिकित्सातंत्र के न तो महामारी के अब तक दर्शकों के बीच परिचित बन गए विशेषज्ञों और न ही स्वास्थ्य मंत्री ने यह जानकारी जनता को दी।

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राष्ट्रीय टीवी पर जिस तरह कोविड से जुड़ी तमाम महत्वपूर्ण जानकारियां अब तक खुद प्रधानमंत्री जी ही देते रहे हैं, इस बार भी वही उतरे। ठीक है, राष्ट्र के प्रमुख को मनचाहे मंच से, जब चाहे, जनता तक अपनी बात पहुंचाने का हक है। फिर भी मामला जनता के जीवन-मरण का हो और इतनी मौतों की स्मृति अभी भी पृष्ठभूमि में हो, तो इस तरह बिना किसी शोध, बिना सरकारी समिति की रपट का हवाला दिए, बिना सवाल-जवाब का इंतजार किए बस जानकारी दे दिया जाना कई सवाल छोड़ गया। यह सही है कि कोविड के ताजा और बेहद संक्रामक संस्करण ओमिक्रॉन की दस्तक सुनकर सरकार टीकाकरण के मामले में तेजी बरत रही है लेकिन अब तक सरकारी गतिविधि निरंतरता की नहीं, अचानक मेले की तरह कुछ दिन के शिविरों के आयोजन कराने और वाहवाही लूटने पर ही ज्यादा केन्द्रित दिखी है। विशेषज्ञ और विपक्ष दोनों करीब तीन सप्ताह से मांग कर रहे थे कि जिनको रामराम करके पिछले साल दो डोज टीके की मिल गई, उनको तीसरी डोज दी जाए। साथ ही जिनको टीका नहीं लग पाया, उनको युद्ध स्तर पर पहचान कर उनका टीकाकरण किया जाए। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक दी जाने वाली वैक्सीनों की तीसरी खुराक की उपादेयता की वैज्ञानिक पड़ताल हेतु बनाई गई खुद सरकार की ही विशेष समिति से जुड़े वैज्ञानिक साफ कर चुके हैं कि यह घोषणा उनकी कमेटी की रपट का इंतजार किए बिना हुई है। तब क्या ताजा घोषणा की वजह यही थी कि चुनावी समय में सभी राजनैतिक दलों के लिए कई तरह की आपदाएं अवसर बनने लगती हैं?

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वैसे, दो बरस के नारकीय अनुभवों को झेलने के बाद मुफ्त टीकों के लिए कैंप लगाने और उनके द्वारा रिकॉर्ड बनाने की कूदकाद के साथ दल विशेष की तारीफों की झड़ी और सारे देश में बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स पर सरकार के नेतृत्व की वाहवाही आज भारत में किसी अचंभे को जन्म नहीं देती। कोविड वैक्सीन के निर्माण से लेकर उसकी विभिन्न किस्मों के वितरण, वितरण केन्द्रों का चयन और लक्षित समूहों की चरण-दर-चरण पहचान का काम विशेषज्ञों की बजाय अब सरकारी प्रवक्ताओं, बाबुओं और राज नेताओं ने अपने हाथ में ले लिया है। यह विचलित करने वाली बात है। यह सब समन्वयधर्मी लोकतांत्रिकता और उसके लिए मनोयोग से सात दशकों में बनाए गए ढांचे के खिलाफ है। खुद को सर्वसत्ताधिकारी साबित करने की अदम्य कामना अनचाहे एक कड़वाहट तो छोड़ ही जाती है। यह इस बात पर भी परदा डालती है कि दोनों टीके निजी कंपनियां बना और बेच रही हैं। और सरकार ने बीच-बीच में उनके उत्पादन, निर्यात, आयात और वितरण के जरूरी कामों में राजनीति के तहत नासमझ अड़ंगेबाजी कर उनके प्राण भी कम अकच्छ नहीं किए।

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विशेषज्ञों और जीवनरक्षक डॉक्टरों, चिकित्साकर्मियों, उपकरण निर्माताओं सबके बीच जो दिक्कतें इस बीच उपजीं, उनको लेकर विनम्र नहीं दमनकारी छवि का बनना नेतृत्व के लिए शुभलक्षण नहीं। फिलवक्त दिल्ली के डॉक्टर हड़ताल पर हैं। उनको अपने नीट कोर्स को लेकर जानकारियां नहीं मिल रहीं। उनकी या एम्स या भारतीय चिकित्सा परिषद सरीखे संगठनों, अथवा दवा निर्माता कंपनियों और भारतीय दवा बाजार के फौरी परिदृश्य या दाम निर्धारण प्रणालियों को खारिज करना आसान भले हो, पर दुनिया का स्वास्थ्य कल्याण तंत्र या फार्मा बाजार हमारी मर्जी से नहीं चले। उनको, उनकी सलाहों, जानकारियों को ठंडे दिमाग से विशेषज्ञों को विनम्रता से सुन कर उनसे डाटा साझी कर ही सहायक बनाया जा सकता है। आज चिकित्सा विज्ञान को खारिज करना एक दर्शन को खारिज करना नहीं, उस सारी जीवन रक्षक प्रणाली को भी खारिज करना है जिसके बड़े पुरोधाओं का शोध और उपकरण दुनिया भर में महामारी को रोक रहे हैं। बाबुओं, मंत्रियों के नकचढ़े अलगाव भरे राजकीय तेवर सिर्फ राज्याश्रयी मीडिया और बाबूशाही ही झेल सकते हैं। या फिर शाही राजनैतिक परिवारों से बीन कर भरे गए सदस्यों वाली कैबिनेटें।

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आप पूछते हैं कि हल क्या है? अभी इस सवाल का जवाब देना संभव नहीं क्योंकि महामारी के नवीनतम रूप से दुनिया अभी आग बुझा ने के स्तर पर ही निबट रही है। बस इतना ही साफ है कि टीकाकरण के कारण इस बार चिकित्सातंत्र पर अमानवीय बोझ और ऑक्सीजन तथा हस्पताली बिछौनों की किल्लत संभवतः न पड़े। पर जब तक सरकार टीकाकरण और मौतों की बाबत खुला ईमानदार खेल खेलने का मन नहीं बनाती, तब तक सरकार बहादुर के शीर्ष की मनमर्जी का एक-सा स्वरूप सब पर लागू कर सफल होना असंभव है, और हिंसात्मक उठापटक से भरी राजनीति की मार्फत उससे नहीं निबटा जा सकता। महामारी न तो राजनीति है, न धर्म। उसका लक्ष्य मनुष्य है- सीधी-सादी जिंदगी या तामझाम से घिरा हर मनुष्य। अमेठी के कालजयी कवि जायसी चित्तौड़ दुर्ग के खंडहरों की तरफ इशारा कर सदियों पहले जीवनयात्रा की कहानी हमें बता गए :

कोई न जगत जस बेचा, कोई न लीन जस मोल/जो यह पढ़ै कहानी, हम संवरे दई बोल।।

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