तो बीजेपी के नेताओं की वृहत्रयी, चुनावी महापंडितों, और टीवी समीक्षकों को झुठलाते हुए ममता ने एक हुंकारती महिषासुर मर्दिनी बनकर तृणमूल पार्टी की धमाकेदार जीत दर्ज करा दी। इस जीत के पीछे बीजेपी का अति आत्म विश्वासी तेवर, चुनाव आयोग का विस्मयकारी बर्ताव तो था ही लेकिन हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान के नारे से बंगाली राग-विराग उपजाने की बेशर्म कोशिशों का योगदान भी कम न था। लंबे समय से राज्य सरकार के कामकाज पर केंद्र से जिस तरह टोकाटाकी हो रही थी और शीर्ष नेता जिस तरह बीजेपी की तैयारियों को बार-बार रेखांकित करते हुए कुशासन ग्रस्त इलाके में ‘शोनार बांगाल’ वापिस लाने की गर्जना कर रहे थे, उससे जाहिर था कि केंद्र सरकार बंगाल को अपने मुकुट का सबसे बड़ा कोहिनूर बनाने को तत्पर है। बंगाल की खाड़ी से उठे इस बवंडरी जुनून के बीच महामारी से तड़पते देश को तो कई बड़े नेताओं ने राम भरोसे छोड़ाऔर खुद बंगाल में डेरा डाल दिया। पांच साल पुराने नारदा-सारदा घोटाले की जांच की बासी कढ़ी में यकायक उबाल लाकर सीबीआई मुखिया नागेश्वर राव अपने कार्यकाल के आखिरी दिन जाते-जाते आगे की घटनाओं का सूत्रपात कर ही गए थे, अब जिस तरह पानी की तरह प्रचार कार्यों और रैलियों में पैसा बहाया जा रहा था, उसे देखते हुए चुनाव का नतीजा इतनी बड़ी जीत बनेगा, यह अकल्पनीय सा लगने लगा था।
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पर धनबल ही सब कुछ नहीं होता। एक संघीय गणतंत्र में किसी भी राज्य में हस्तक्षेप या नेतृत्व के खिलाफ केंद्र द्वारा कोई संगीन कार्रवाई करने के भी कुछ निश्चित नियम-कायदे भी होते हैं। बंगाल की याददाश्त तेज है। मतदाता भूले न थे किलोकसभा चुनाव से एक महीना पहले यकायक बिना बंगाल के उच्च न्यायालय को सूचित किए, बिना वारंट या पूर्व सूचना के रविवार के दिन सूबे के पुलिस प्रमुख के घर की घेरेबंदी की ऐसी कैसी हड़बड़ी थी? क्या वजह थी, कि इन चार सालों के बीच बिना कारण बताए तृणमूल तंज कर बीजेपी के चरण गह चुके इसी घोटाले के दो कथित दोषियों को पहले तामझाम से दल में शामिल कर, उनको चुपचाप सीबीआई की फेहरिस्त से हटा दिया गया?
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पर बापू की तरह ही दीदी भी हैं उस्ताद पुरानी। चुनाव मैदान की इस लेडी माराडोना ने ‘खेला’ के लिए भगवदीय किक का अभ्यास तेज कर रखा था। नोएडा के स्टूडियो में उन्मादित बंटा हुआ मीडिया यह बुनियादी बात न पकड़ पाया, जबकि इसकी गूढ़ पूर्व सूचना थी। 2019 में ही अभिराम छवियों का मोह तज कर बिफरी ममता दीदी ने अपने आधिकारिक ट्विटर पेज पर इस छापे के मुख्य लक्ष्य कोलकाता के पुलिस कमिश्नर की भूरि-भूरिप्रशंसा करते हुए यह दर्ज कर दिया था कि यह छापा बंगाली स्वायत्तता के खिलाफ बीजेपी के शीर्ष नेताओं द्वारा लिया जा रहा निकृष्टतम किस्म का राजनीतिक प्रतिशोध है। बंगाली बनाम पछांह के अबंगाली वाली यह स्टोरी लाइन बातून बांग्ला समाज में काफी चल गई। और दो बरस बाद 2021 में दीदी को इसका विधानसभा चुनावों में और भी भारी फायदा मिला है। 1905 के प्रस्तावित बंग भंग और 1947 के पार्टीशनकी आग से गुजरा बंगाल बंटवारे से ऐसे बिदकता है जैसे लाल कपड़े से सांड! सो दीदी ने चुनावी लड़ाई को केंद्र अधीन पुलिस बलों की मदद से बंगाल की ‘अस्मिता’ और राज्य के विश्वविद्यालयों और लोकतांत्रिक संस्थानों की स्वायत्तता को बरबाद करने के खिलाफ एक तरह का स्वतंत्रता आंदोलन बनाया! केंद्र से इसी किस्म का बरताव झेलते दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल जी ने तुरंत जंग में कूद कर ममता दी से सहानुभूति जताते हुए उनके साथ खड़े रहने का इरादा भी व्यक्त कर दिया। फिर तो झड़ी लग गई।
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यह घटना क्रम देश के संघीय संविधान की लंबी अवहेलना का नतीजा है। व्हील चेयर से टूटी टांग लिए चुनाव लड़ती ममता ही नहीं, अधिकार प्रिय केंद्र ने साम, दाम, दंड, भेद से तमाम तरह के भेदभाव गहराते हुए कश्मीर से कन्याकुमारी तक विपक्ष शासित सभी राज्यों को एक तरह की अंधी गली में ला खड़ा किया था, जहां चुनावों में केंद्र या चुनाव आयोग से न्याय की कोई उम्मीद नहीं बचती। इस बीच विपक्षियों ने यह आशंका भी जताई, कि कोविड के लिए जरूरी उपचार और वैक्सीन उपलब्ध कराने से लेकर राज्यपालों-उपराज्यपालों के हस्तक्षेप की सीमाएं तय कराने से जुड़े सर्वोच्च न्यायालय में लाए गए मामलों में भी केंद्र ने स्थिति को लगातार उलझाए रखा है। बहरहाल यह निर्विवाद है कि खुद ममता ने जीतती हुई नंदीग्राम की सीट चाहे जिस भी वजह से अंतिम क्षणों में गंवा दी हो और जिन भी वजहों से चुनाव आयोग ने दोबारा मतगणना कराने से इनकार कर दिया हो, चुनाव ही नहीं प्रचार युद्ध का पहला राउंड भी तृणमूल पार्टी जीत गई है। क्योंकि सर्वसत्तावान केंद्र द्वारा चुनावों के आगे महामारी की बढ़त से निबटने की उपेक्षा का दंश देश का हर नागरिक आज झेल रहा है। इस बहुमत के बाद कम-से-कम दीदी ने तो साफ कर दिया है कि बंगाल की नेत्री से केंद्र की बातचीत होगी तो तटस्थता और अदब के साथ।
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तमिलनाडु, केरल और बंगाल तीनों बड़े राज्यों में बीजेपी की हार और प्रांतीय क्षत्रपों की जीत से यह भी साफ होता जा रहा है कि देश की आत्मामूलत: संघीय गणतंत्र के साथ है। देख लें, आज लगभग सारी दमदार भारतीय पार्टियां प्रांतीय हैं : तृणमूल से लेकर बीजद, द्रमुक, एलडीएफ, या तेदेपा तक। और उनका केंद्र के कठोर रुख के खिलाफ ममता की जीत पर हर्ष जताना आगे के लिए गहरे मायने रखता है। यह जरूरी भी है। भारत का संघीय गणतंत्र बुनियादी तौर से मजबूत करने की पहली शर्त यही है कि बीजेपी या कांग्रेस के अलावा कुछ ताकतवर प्रांतीय दल भी इस विशाल देश की जनता की कई-कई तरह की दमदार स्थानीय आवाजें बनें और फिर सारा मानापमानभाव तज कर एकजुट हों, ताकि केंद्र की निरंकुशता पर लगातार लगाम लगी रहे।
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कुछ नादान अखबारी संपादक और प्रवक्ता नंदीग्राम की हार पर इतना उछल रहे हैं, मानो दीदी को और उनके विधायकों को वे बुरी तरह पराजित कर चुके हों। इस बीच संघीय लोकतंत्रएक फटे हुए फुटबॉल की तरह कभी सीबीआई, कभी ईडी तो कभी चुनाव आयोग के बीच मैदान में लथेड़ा जावे तो उनको यह बात आपत्तिजनक नहीं लगती। गणतंत्र के महत्वपूर्ण चुनावी खेल के जिंदा रखने की उनको कोई फिक्र नहीं। चुनाव की पूर्व संध्यापर उनको बस एक उन्मादी रक्त पिपासु युद्ध नजर आता है जिसके उनकी नजर में कोई नियम नहीं होते। असम में शायद एक हद तक बीजेपी की विचारधारा जीती है, पर बची-खुची शर्म के चलते मीडिया तो अब विश्वमंच पर भारत को विश्वगुरु और भारत को विश्वका सबसे बड़ा लोकतंत्र बताना छोड़ ही दे।
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