विचार

खरी-खरी: चिंतन करे मुस्लिम समाज, सब्र से काम लेते हुए उच्च शिक्षा और स्किल ट्रेनिंग पर करे फोकस

मुस्लिम समाज में चिंतन का समय आ गया है। मौजूदा हालात का कोई राजनीतिक समाधान अभी कई दशकों तक संभव नहीं नजर आता है क्योंकि हिन्दू वोट बैंक की धमक अब विपक्ष पर भी ऐसी बैठ गई है कि हर राजनीतिक दल मुस्लिम समाज से दूरी में ही अपना लाभ समझता है।

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आखिर इस देश की मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी जाए, तो जाए कहां और करे, तो करे क्या? गौ मांस के शक पर मॉब लिंचिंग, अजान की आवाज जरा ही ऊंची-नीची, तो उस पर बवाल, रमजान के महीने में मस्जिद के आगे पांच वक्त हनुमान चालीसा पाठ, कभी खुले स्थानों पर जुमे की नमाज पर पाबंदी, अब हनुमान जयंती-रामनवमी के नाम पर दंगे। सांप्रदायिक दंगे तो उसका मुकद्दर थे ही। हद यह है कि उसने गुजरात जैसा नरसंहार झेला ही। कर्फ्यू की उसको आदत हो चुकी है। ऐसे मौकों पर वह अपने घर का दरवाजा बंद कर अपने को सुरक्षित महसूस करता था। लीजिए, अब उसके घर की सुरक्षा का ही भरोसा नहीं बचा।

आप जानते ही हैं कि मध्य प्रदेश के खरगोन इलाके में दंगों के बाद क्या हुआ। वहां सरकारी अमले ने एक दर्जन मुसलमान ‘दंगाईयों’ के मकान बुलडोजर से गिरा दिए। प्रदेश के गृह मंत्री ने यह बयान भी दे दिया कि पत्थर चलाने वालों के ऐसे ही सिर कुचल दिए जाएंगे। अर्थात बीजेपी सरकार जब चाहेगी मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में घुसकर ‘अवैध इमारत’ को बुलडोजर से गिरा देगी। इस संबंध में सरकार कानून भी बना चुकी है। जैसे पिछले सप्ताह अपने लेख में लिखा था कि उत्तर प्रदेश का ‘बुलडोजर मॉडल’ अब हर बीजेपी शासित प्रदेश में लागू होगा। कारण यह है कि हिन्दू वोट बैंक इसी प्रकार संगठित होता है और इसी से चुनाव जिताता है।

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हमारे एक पत्रकार सहयोगी का कहना है कि अब तो मुसलमान के खिलाफ बीजेपी ने ‘आर्थिक जिहाद’ भी छेड़ दिया है। अर्थात उसका केवल मकान ही नहीं गिराया जाएगा बल्कि वह अभी तक सड़क के किनारे रेहड़ी-पटरी पर जो खोंचा या छोटी दुकान लगाकर अपनी जिंदगी गुजर करता था, वह खोंचा भी गिरा दिया जाएगा। खरगोन में यही हुआ। ऐसा केवल खरगोन में नहीं हुआ बल्कि यह अभियान उत्तर प्रदेश जैसे और प्रदेशों में भी चल रहा है। अर्थात हम तुम्हारे सिर छुपाने की जगह छीन लेंगे, तुम्हारी रोजी-रोटी का ठिकाना भी तबाह कर देंगे। अब वह खुले आसमान के नीचे करे, तो क्या करे। फिर वही सवाल कि इस हालात में वह जाए, तो जाए कहां।

यह वह सवाल है जिस पर मुस्लिम समाज में चिंतन का समय अब आ गया है। इस सवाल का अभी कोई सीधा जवाब कठिन है। कोई राजनीतिक समाधान अभी कई दशकों तक संभव नहीं नजर आता है क्योंकि हिन्दू वोट बैंक की धमक अब विपक्ष पर भी ऐसी बैठ गई है कि हर राजनीतिक दल मुस्लिम समाज से दूरी में ही अपना लाभ समझता है। एक राहुल गांधी और गांधी परिवार के सदस्य संघ के खिलाफ हैं, तो मीडिया उनके पीछे पड़ा रहता है। पर हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से समस्या हल तो होने वाली नहीं है।

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अब इस देश में जिंदा रहने के लिए मुस्लिम समाज को स्वयं हजरत मोहम्मद साहब के बताए मार्ग को अपनाने पर सोचना चाहिए। वह मार्ग है सब्र, अर्थात संयम का मार्ग। मुस्लिम भलीभांति जानते हैं कि जब हजरत मोहम्मद पर मक्का में हालात इतने असह्य हो गए, तो उन्होंने सब्र का रास्ता अपनाया। दस वर्षों तक उन पर कूड़ा तक फेंका गया लेकिन उन्होंने उफ तक नहीं की। आपकी मस्जिद के आगे रामनवमी का जुलूस आता है। आने दीजिए। उनको पानी पिलाइए। नारे लगाते हैं, लगाने दीजिए। वह उनका धर्म है, उनको करने दीजिए। आखिर हजरत मोहम्मद साहब ने किसी के खिलाफ दस वर्षों तक उंगली उठाई थी? आप उनसे सबक लेकर अपनी राह लीजिए। मुंबई में मस्जिदों के आगे हनुमान चालीसा का पाठ हो रहा है। सब चुप हैं। इसी राह में आपकी भलाई है। केवल सब्र और सब्र ही बस एक मार्ग है जिससे बचाव है। इसलिए सब्र से काम लीजिए और जीवन सुरक्षित रखिए।

वैसे, इसमें दो राय नहीं और यह सच तो है ही कि इस समय देश के मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय का वही हाल है जो सन 1930 के दशक में जर्मनी एवं दूसरे यूरोपीय देशों में यहूदियों का था। कुछ लोगों की यह राय है और इस पर भी विचार करना चाहिए कि स्थिति न सुधरी और हालात और खराब होते गए, तो भारतीय मुसलमानों को उनसे सबक सीखना चाहिए। भारतीय मुसलमानों में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसमें पढ़ा-लिखा वर्ग बहुत ही छोटा है। कट्टर हिन्दुत्ववादी संगठन इनका उदाहरण देकर और इन्हें निशाना बनाकर इनके खिलाफ कदम उठाते रहेंगे। आखिर, जिनके पास डिग्री नहीं है, वे करें भी क्या?

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इस मामले में यहूदियों से सबक लेना चाहिए। भारी मुसीबत के समय में यहूदी वर्ग ने तालीम का रास्ता अपनाया। यह वह रास्ता है जो हर समय हर देश में कारगर है। अतः उस मुस्लिम समुदाय को जिसमें अभी तक तालीम नहीं है, उस वर्ग को अपने बेटे-बेटियों दोनों को स्कूलों में दाखिल करवाना चाहिए। भूखे मरिए या पेट काटिए, कुछ भी कीजिए, तालीम बच्चों को जरूर दिलवाइए। यह स्कूलों में दाखिले का समय है। कुछ भी कीजिए, पर स्कूल जरूर भेजिए। लेकिन स्कूल में दाखिले के लिए भी कुछ जरूरी कागजात की दरकार होती है। इसके लिए भी पढ़े-लिखे लोगों का एक समूह बनाकर गैर पढ़े-लिखे की मदद करनी चाहिए। पर यह बच्चे-बच्चियां जो दसवीं-बारहवीं पास कर गए हैं, उनको यह याद रखना चाहिए कि यह दौर बीए-एमए की डिग्री का नहीं है। यह ‘स्किल’ का जमाना है। उदाहरण के लिए, यदि किसी बारहवीं पास व्यक्ति के पास किसी सरकारी संस्थान से ड्राइवरी का सर्टिफिकेट है, तो उसके लिए कनाडा एवं आस्ट्रेलिया ही नहीं, हर जगह के रास्ते खुले हैं। अधिकांश सिख इसी माध्यम से विदेश गए। यदि एक लड़की नर्सिंग का कोर्स करती है, तो वह संसार में कहीं भी जा सकती है। इक्कीसवीं सदी ‘ई-सदी’ है। इस दौर में हर चीज कंप्यूटर के माध्यम से है। अतः कंप्यूटर लिटरेट बनिए। उसमें कोई डिग्री लीजिए एवं भविष्य उज्ज्वल कीजिए।

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कुछ लोगों की यह भी राय है और इस पर विचार करना चाहिए कि सन 1930 या उसके आसपास यूरोपीय यहूदियों ने और क्या रणनीति अपनाई थी। यदि उस समय यहूदियों को देखें, तो वे बहुत भारी संख्या में जर्मनी एवं अन्य यूरोपीय देश से हिजरत, अर्थात देश छोड़कर अमेरिका जा बसे। अर्थात जब किसी देश में जीवन इस हद तक असुरक्षित हो जाए कि जीवन संरक्षण का कोई उपाय नहीं समझ में आए, तो उस देश से हिजरत कर नई जगह शरण लो। हालात जब ऐसे हों कि घर-दुकान कुछ भी सुरक्षित नहीं, तो फिर तो हिजरत ही उपाय बचता है। फिर इस्लाम धर्म ने तो ऐसे हालात में हिजरत का रास्ता बताया भी है। स्वयं हजरत मोहम्मद का अपना जीवन उनके नगर मक्का में असहाय हो गया, तो उन्होंने हिजरत का रास्ता अपनाया और मदीना में पनाह ली। इस प्रकार उनका अपना जीवन भी सुरक्षित हुआ और मदीना से ही इस्लाम धर्म आगे फैला। अतः असहाय हालात में हिजरत एक उपाय है और मुस्लिम जनसंख्या को यह रणनीति अपनानी चाहिए। है तो यह बहुत ही दुखद तर्क और अंतिम रास्ता लेकिन लगता है कि इस पर सोचने और अमल करने का वक्त आ गया है।

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लेकिन अब जाएं, तो जाएं कहां? अरब देशों का रास्ता बंद हो चुका है। वहां से तो अब वापसी हो रही है। फिर उन देशों में नागरिकता भी नहीं मिलती है। ऐसी स्थिति में ‘लुक वेस्ट’ अर्थात पश्चिमी देशों की ओर देखने का ही रास्ता बचता है। अब अमेरिका में बसना तो सरल नहीं है। कनाडा एवं आस्ट्रेलिया दो देश ऐसे हैं जो भारी तादाद में भारतीयों को नागरिकता दे रहे हैं। पर वहां जाने का क्या रास्ता हो सकता है। इस काम के लिए मुस्लिम सिविल सोसायटी को आगे आना होगा। अर्थात हर मुस्लिम बस्ती में जो पढ़े-लिखे नौजवान लड़के-लड़कियां हैं, वे एक समूह बनाकर कनाडा, आस्ट्रेलिया एवं अन्य यूरोपीय देशों के दूतावास की वेबसाइट खोलकर इमिग्रेशन (हिजरत) वाले भाग में जाकर पहले स्वयं समझें कि कौन वहां जा सकता है। और उन देशों में जाने के लिए क्या डिग्री एवं अन्य कौन से दस्तावेज चाहिए। फिर अपने इलाके के ऐसे व्यक्ति को चिह्नित कर उसके तमाम कागजात इकट्ठा करवाकर इमीग्रेशन का फार्म भर दें। वह देश समय आने पर स्वयं वीजा भेज देगा। लगता है कि लोगों को इसके लिए भी कमर कस लेनी चाहिए। यह जरूर है कि यह रास्ता केवल पढ़ा-लिखा वर्ग ही अपना सकता है।

निस्संदेह इस देश की मुस्लिम जनसंख्या के लिए यह अत्यंत कठिन समय है। आजादी के बाद से अब तक भारतीय मुसलमान ने ऐसा कठिन दौर नहीं झेला है। दंगे देखे, नरसंहार तक झेला पर उसने आज जैसी कठिनाइयों भरे समय की कल्पना सपनों में भी नहीं की थी। अब जब हालात इतने बुरे हैं, तो इस देश के मुसलमान को नए सफर के लिए समय के साथ कमर कस लेनी चाहिए।

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