विचार

नीतीश कुमार ने तो भविष्य ही खत्म कर दिया जेडीयू का, अपने गिरते सियासी रुतबे तक का अनुमान नहीं

विडंबना है कि जिस व्यक्ति को कभी प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था, वह अब सिर्फ और सिर्फ प्रशांत किशोर पर भरोसा करता है, वह भी इसलिए कि प्रशांत किशोर के बीजेपी में गहरे संबंध हैं। त्रासदी यह है कि नीतीश कुमार को अपने कद में हुई गिरावट का अंदाज़ा तक नहीं है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पार्टी उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर

लालू यादव, मुलायम सिंह यादव और (अब स्वर्गीय) करुणानिधि – इन तीनों नेताओं के भी बाकी सभी राजनीतिज्ञों की तरह अपने-अपने दल आरजेडी, समाजवादी पार्टी और डीएमके के विकास को लेकर कुछ निहित स्वार्थ रहे हैं। चूंकि इन तीनों नेताओं की पार्टियों में उनका परिवार शामिल रहा है, इसलिए हर हाल में इन्होंने अपनी पार्टियों के जिंदा रखा है।

इसके बरअक्स, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का अपने राजनीतिक दल जेडीयू से कोई भावनात्मक रिश्ता है ही नहीं, इसलिए जेडीयू के भविष्य को लेकर उन्हें कोई चिंता भी नहीं रहती है। उनके परिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में है नहीं, इसलिए उनके लिए पार्टी सिर्फ स्वंय के अस्तित्व को बचाने भर की कवायद है न कि अपनी पार्टी के भविष्य को लेकर कोई चिंता। वह वक्त दूर नहीं है जब पार्टी के नेता-कार्यकर्ता भी इस तथ्य को समझ लेंगे और आवाज़ उठाएंगे।

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एक तरह से देखा जाए तो जेडीयू का भविष्य कुछ-कुछ तमिलनाडु की पार्टी एआईएडीएमके जैसा नजर आता है, जो इसकी सुप्रीमो जयललिता की मृत्यु के बाद अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है।

चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को जेडीयू का उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद निश्चित रूप से जेडीयू में ऊपर से नीचे बेचैनी नजर आई है कि आखिर हो क्या रहा है और आने वाले वर्षों में जेडीयू का क्या होगा।

नीतीश कुमार कुछ भी हों, लेकिन अपने अंतर्मन में वह अपनी सीमाएं जानते हैं। जन नायक होने का उनका दावा तो 2014 के लोकसभा चुनाव में ही ध्वस्त हो चुका है। इस चुनाव में उनकी पार्टी के हिस्से में महज 16 फीसदी वोट ही आए थे, जबकि जेडीयू ने 40 में से 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें से सिर्फ 2 सीटें ही उनके उम्मीदवार जीत पाए।

किसी ने भी उनकी पार्टी के इस दावे को नहीं माना था कि अगर नरेंद्र मोदी की लहर नहीं होती तो उनकी पार्टी का प्रदर्शन शानदार होता।

उस समय सबसे बड़ा सवाल यही उठा था कि, अगर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और ओडिशा में नवीन पटनायक नरेंद्र मोदी लहर को रोककर उनका विजयरथ थाम सकते थे, तो फिर नीतीश कुमार क्यों नाकाम हुए? जबकि, दावे तो वे यही करते रहे कि उन्होंने बिहार के लिए बहुत कुछ किया है। बंगाल में ममता किला बचाने में कामयाब हुई थीं, तो जबरदस्त भगवा लहर के बावजूद ओडिशा में तो बीजेपी सिर्फ एक ही सीट हासिल कर पाई थी।

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2014 के चुनावी नतीजों ने नीतीश कुमार की सारी महत्वाकांक्षाओं को तहत-नहस कर दिया था, और उसके बाद तो वे सिर्फ और सिर्फ अपने अस्तित्व को बचाए रखने और प्रासंगिक बनाए रखने को लेकर ही लालायित रहते हैं। उन्होंने पार्टी को मजबूत करने के लिए कभी कुछ किया ही नहीं। पहले महागठबंधन का हिस्सा बनकर लालू यादव से हाथ मिलाया और उन्हें धता बताकर खुद की सरकार चलाने के लिए बीजेपी से हाथ मिला लिया।

जनता दल यूनाइटेड को अभी खारिज कर देना थोड़ा जल्दबाज़ी होगी, लेकिन जेडीयू में ऐसे नेताओं और कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है जो समझने लगे हैं कि नीतीश कुमार पार्टी की मजबूती के बजाए खुद की मजबूत में लगे हुए हैं।

यह भी सत्य है कि पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखने वाली जेडीयू के राज्यसभा सांसद आर सी पी सिंह कभी लोकप्रिय नेता नहीं बन सकते। वे नौकरशाह थे और नौकरशाह की तरह ही उनका व्यवहार रहा है। फिर भी, प्रशांत किशोर के मुकाबले उनका पलड़ा कुछ भारी लगता है। वह नीतीश कुमार की ही जाति कुर्मी समुदाय से हैं और उनके ही गृह जिले नालंद के रहने वाले हैं।

बिहार में कुर्मी और कुछ हद तक कोएरी समुदाय को भी, जेडीयू का वोट बैंक माना जाता रहा है। बिल्कुल उसी तरह जैसे यादवों को आरजेडी का समर्थक माना जाता है। दूसरी तरफ प्रशांत किशोर एक ब्राह्मण हैं और वह भी उत्तर बिहार के मिथिलांचल से नहीं, जिसका सियासत में कुछ दखल रहा है।

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नीतीश कुमार जब 2005 के नंवबर में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तो शुरुआत काफी अच्छी थी। 16 जून 2003 तक बीजेपी से रिश्ता तोड़ने तक उनका ग्राफ ऊपर जाता रहा। लेकिन जिस तरह उन्होंने बीजेपी के बड़े नेताओं के लिए आयोजित डिनर को रद्द कर नाता तोड़ा था, उसके बाद से वे ऐसे नेता बन गए हैं जिसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।

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जेडीयू में जनाधार वाले नेताओं को शामिल करने या अगली पीढ़ी को बढ़ावा देने के बजाए नीतीश कुमार एक के बाद एक सिर्फ राज्यसभा जाने वाले नेताओं को ही पार्टी में लाते रहे।

इनमें 15वें वित्त आयोग के मौजूदा चेयरमैन एन के सिंह, पूर्व नौकरशाह पवन वर्मा और आर सी पी सिंह, पूर्व संपादक और मौजूदा राज्यसभा उप सभापति हरिवंश, संजय झा और के सी त्यागी ही हैं। और अब इन्हें भी धता बताकर प्रशांत किशोर को नंबर दो बना दिया है।

यह विडंबना है कि जिस व्यक्ति को कभी प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था, वह अब सिर्फ और सिर्फ प्रशांत किशोर पर भरोसा करता है, वह भी इसलिए कि प्रशांत किशोर के बीजेपी में गहरे संबंध हैं। त्रासदी यह है कि नीतीश कुमार को अपने कद में हुई गिरावट का अंदाज़ा तक नहीं है।

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