विचार

सिर्फ कोरोना नहीं, हर उस वायरस से मुक्ति चाहिए, जो मानवता को तहस-नहस और प्रकृति को तबाह कर रहा है

विकास के नाम पर चलता सारा कारोबार प्रकृति को रौंदता आया है। उसने प्रकृति में शामिल हम जीवितों को भी रौंदा जो चुपचाप अपने काम करते हुए जीते रहे। हमें खाद्य, विज्ञान के साथ-साथ विकास की मर्यादा, तकनीक की चुनौती, प्रकृति और मानव के बीच रिश्ते का ध्यान रखना होगा।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

पिछले दिनों से दुनिया में एक अनोखा रस फैल गया है। उसका न स्वाद है, न गंध, न किसी को समझ आ रहा है, न कहीं उसके दर्शन ही मिल पा रहे हैं। बाकी रस का असर कुछ ऐसा है कि प्रतिसाद और प्रचार-प्रसार के एक नहीं, अनेक वायरस मीडिया पर छाए हुए हैं। उनका प्रभाव ही नहीं, दबाव भी पूरी मानव जाति को या तो ‘देववादी’ बनाएगा या फिर डरपोक।

एक संभावना यह भी है कि इंसान अंतर्मुखी हो जाए और धर्म, जाति या वर्ग में बंटे प्राणी स्वयं को हताशा में पाकर विनम्र हो जाएं। खुद के साथ अकेले रहने से अंदर की कुछ आवाज उसे सुनाई दे सकती है और हो सकता है कि वह सोचे कि उससे क्या गलती हुई है कि उसे आज प्रकृति के सामने झुकना पड़ रहा है, आशा-निराशा के खेल में जिंदगी पर विश्वास खोना पड़ रहा है।

Published: undefined

इन्हीं विचारों के साथ घूमते हुए लगा कि जो चक्र आज रुका है, उसके एक-एक आरे पर काटे गए हाथों के खून के जो निशान हैं, उनकी ओर जरा नजर डालें। आज तक हमारे पड़ोस में हो रहे हमलों ने कइयों की जान ली है। दिन-रात मेहनत करके देश और दुनिया को खिलाने वाले, हर जीवाणु से संघर्ष की शक्ति देने वाले किसान ही नहीं, खेत-मजदूर और हर प्रकार का उत्पादन, वितरण और सेवा में जुटे श्रमिक अपनी बदहाली से कहां छुटकारा पा सकते हैं?

उनके पास निजी अस्पताल में जाने की हिम्मत नहीं है। ये ही भुगतते हैं डायरिया और टीबी से हर रोज होती मौतें! इन्हीं के बच्चे कुपोषण से हर दिन गुजरते हैं! शराब तो हर अवयव पर आक्रमण करते हुए शरीर को खोखलेपन से मृत कर देती है और साल भर में 10 लाख लोग मौत की कगार पर धकेले जाते हैं। इस तरह के सारे असर किसी अचानक उभरे या दूर देश से पधारे जीवाणु से नहीं बल्कि अपने ही घर की गंदगी या बेरहमी से पाले-पोसे जा रहे कीटाणुओं से हैं।

Published: undefined

सभी भारतीय जानते हैं कि गैरबराबरी कितने भयानक रूप से छाई हुई है! इसी से तो जानें जा रही हैं! बीमारी से बच भी गए तो कर्ज से किसान स्वयंस्फूर्त जान दे रहे हैं! क्या हमारा देश इन लोगों को अपनी कार्यांजलि नहीं दे सकता? अपनी नीतियां बदलकर, दूरियां पाटकर, समता को अपना कर? सत्ता चक्र की धुन में खोए सत्ताधीशों को ही नहीं, अपने आप को भी देखें कि आज हमारे मन में कितनी संवदेना जीवित है? हम इन वंचितों के लिए कौन-सा और कितना कर्तव्य हथेली पर लेकर खड़े हैं?

हवाई मार्ग से कोरोना की खबर पहुंचते ही हमारे अस्पताल खुल गए, नए बिस्तर लग गए और संभावित मरीजों के लिए शासकीय रेस्ट हाउस तक आरक्षित हो गए, लेकिन कानून के बावजूद गरीबों, तड़पते मरीजों के लिए कहां, कितने बिस्तर आरक्षित होते हैं? शासन सफाई के साथ-साथ सुरक्षा के कितने निर्णय धड़ल्ले से ले रहा है? दिल्ली के पूर्वी हिस्से में जाफराबाद हो या चांदबाग जहां पीढ़ियों की आजीविका पर कोई छोटा-मोटा, अदृश्य जीवाणु नहीं, हट्टे-कट्टे इंसान हमला कर रहे थे, तब कहां थे हमारे शासनकर्ता? क्या तब किसी ने कानून और व्यवस्था बनाए रखने का कोई ऐलान किया? क्या कभी लॉकडाउन घोषित हुआ? नहीं!

Published: undefined

आज जब कार्यालय ही नहीं, कारखाने और बाजार भी बंद हैं, श्रमिकों के स्वयं के रोजगार ठप्प हैं, ऐसी ‘हाउस-अरेस्ट’ जैसी स्थिति में क्या कोई उन्हें खाना खिलाएगा? मजदूरों को खेतों तक पहुंचने से रोकने वाले क्या किसान और मजदूर- दोनों की आमदनी पर हुए असर का हिसाब लगाकर मुआवजा देंगे? न तो अब तक नोटबंदी के दौरान हुई मौतों की भरपाई मिली है और न ही ‘डिटेंशन कैंपों’ में गई जानों की। ऐसी तमाम मुश्किलें भुगतने वाले करोड़ों लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे सब कुछ भूलकर अपने मकबरों की ईटें निकालकर सहारा खड़ा करने में लग जाएं।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टाइनर के प्रेरणादायी जीवन को मंजिल मानने वाले कोलमन का भाषण बता रहा है कि स्पेन में 1918 में आए वायरस से आज के कोरोना वायरस तक, रेडियो-एक्टिविटी और वायरस का संबंध है। शरीर पर बढ़ती मात्रा में धातु की चीजें धारण करने वाले इन बदलती नई उत्सर्जक स्थितियों को सहन नहीं कर पाते हैं। इस बार वुहान (चीन) शहर ‘5-जी’ की लहरों को सबसे पहले प्रसारित कर पाया था कि यह वायरस निकल आया। हमारे हाथ, गले, जेब में कई प्रकार के उत्सर्जन के स्रोत बने रहते हैं। उनके शरीर पर, मन पर क्या-क्या असर हो रहे हैं, इस बहु-आयामी शोध की जरूरत मात्र कोरोना से या किसी अणु ऊर्जा पर बढ़ती चर्चा से नहीं निपट सकती।

Published: undefined

पहले से पांच गुना बढ़ते ‘जी’ का प्रभाव, हवा ही नहीं, शरीर की तैयारी और मर्यादा के मद्देनजर पूरी प्रकृति पर क्या होता है, क्या नहीं, इसे ऊर्जा के स्रोतों के तुलनात्मक अध्ययन के साथ जोड़कर ही जानना होगा। ‘इलेक्ट्रो एक्टिविटी’ की ‘फ्रीक्वेंसी’ यानी गतिमानता, उसका शरीर पर असर और संचार के लिए एक लाख उपग्रह छोड़कर संचार के बाजार की कितनी और कैसी कीमत हम चुका रहे हैं, इसका अध्ययन करना तो जरूरी है ही।

शरीर-शास्त्र और पर्यावरण के बीच के रिश्ते-नातों की बात भी कोरोना के परिप्रेक्ष्य में नया रूप लेकर सामने आई है। मनुष्य अपनी ऊर्जा, अपनी सोच, अपने सपने और उन्हें साकार करने के सारे तत्रं-मंत्र प्राकृतिक संसाधनों की पूंजी पर धूमधाम से लगाते जा रहा है। उसमें न केवल जमीन, पानी, पहाड़, नदी, रेत है, बल्कि ऐसे जीव-जंतु भी हैं जिन्हें मनुष्य जाति खाद्य के अलावा कदाचित ही देखती है।

Published: undefined

विकास के नाम पर चलता सारा कारोबार प्रकृति को रौंदता आया है। उसने प्रकृति में शामिल हम जीवितों को भी रौंदा, जो चुपचाप अपने-अपने कार्य करते हुए जीवन को बरकरार रखते रहे। कौन थे ये लाखों-लाख धरती के ही पुत्र या मित्र? न केवल बांध या बाघ, बल्कि बीज-प्रसार, भू-संरक्षण, वायु प्रदषूण से मुक्ति जैसे ढेरों कार्य करने वाले, ऑक्सीजन की पूर्ति और कार्बन डाइ-ऑक्साइड से मुक्ति दिलाने वाले जीव, जंगल और पेड़ इनमें शामिल थे। इन सबको छीनता या उजाड़ता मनुष्य अब कोरोना के डर से रुक गया है। ऐसे में जरा सोचें कि कितना और किसका, किसके लिए निर्माण हो रहा है, कितना संचार चल रहा है, कितना पर्यटन, विस्थापन हो रहा है?

इन दिनों मीडिया पर दिखाई दे रहा है कि एयरपोर्ट के भर-बीच जहां इंसान को भी चलने नहीं देतेे, वहां पंछियों का परिवार चल रहा है! डॉलफिन भी मनुष्य के किनारा छोड़ते ही गर्दन उठाकर पहुंच गए हैं। कितने जीव जो अंदर थे, अपना अस्तित्व जाहिर करने बाहर हो गए हैं। पेड़-पौधे, जैव-विविधता के विनाश से कराहती आवाज तो हम नहीं सुन सकेंगे, लेकिन क्या इसे जानना, समझना इतना कठिन है? बच्चे और युवा ‘नेट’ से और बुजुर्ग अपने अनुभवों के जाल से खोजें तो इतिहास और भविष्य को जोड़ने वाला खजाना मिल सकेगा।

Published: undefined

कोरोना के प्रभाव में हम भूले तो नहीं हैं न कि पूरा देश रोजगार खत्म करने वाले निजीकरण, वैश्वीकरण को भुगतने की स्थिति में है? श्रम कानून हों या पर्यावरणीय कानून- सभी में हम जनविरोधी परिवर्तन भुगतने जा रहे हैं। इनमें कितने प्रकार के विदेशी वायरस हम खोज पाए हैं? क्या कोरोना हमें घर में समय बिताने, दूसरों से स्वतंत्र होकर स्वदेेशी का संदेश भी नहीं दे रहा है?

यह सब करना है तो ताली या थाली बजाकर हमारे जनसेवकों पर विश्वास नहीं जमेगा। जनता और जनसेवकों के बीच जरूरी है दूरी का खत्म होना। हमें खाद्य, विज्ञान के साथ-साथ विकास की मर्यादा का, तकनीक की चुनौती का, प्रकृति और मानव के बीच रिश्ते का ध्यान रखना होगा। हमें चाहिए, हमारे आपसी रिश्तों में मानवीयता के बंधन को सुरक्षित रखने वाली हस्तांदोलन या आलिंगन की क्रिया। आंदोलन को भी दबा रही है यह कोरोना की बंदिश लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक से तो बिखर जाएगी जनतंत्र की तस्वीर! हमें चाहिए भयमुक्ति, हर वायरस से बचने के लिए...जिसके लिए जरूरी है हमारी आवाज का फिर वायरल होना। सोचिए जरूर!

(सामाजिक कार्यकर्ता और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर का यह लेख सप्रेस से साभार)

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined

  • बड़ी खबर LIVE: पश्चिम बंगाल में कोलकाता समेत कई जगहों पर महसूस किए गए भूकंप के तेज झटके, घरों से बाहर निकले लोग

  • ,
  • भारतीय टीम को लगा बड़ा झटका, चोटिल शुभमन गिल दूसरे टेस्ट से बाहर, अब ऋषभ पंत संभालेंगे टीम इंडिया की कमान

  • ,
  • मध्य प्रदेश: बस में नेशनल शूटर से छोड़खानी, क्लीनर समेत 2 ड्राइवर गिरफ्तार, भोपाल से पुणे जा रही थी बस

  • ,
  • पश्चिम बंगाल के कोलकाता से लेकर त्रिपुरा तक हिली धरती, बांग्लादेश और पाकिस्तान में भूकंप के तेज झटके

  • ,
  • उत्तर प्रदेश का ये शहर बना सबसे प्रदूषित, राज्य के कई शहरों में बिगड़े हालात, गंभीर श्रेणी में हवा की गुणवत्ता