जब आप किसी समस्या को स्वीकार ही नहीं करते तो उससे क्या हासिल होता है? और, क्या हो अगर ऐसा करने से कुछ नुकसान हो जाए?
आखिरकार प्रधानमंत्री ने मान लिया कि मणिपुर में हिंसा हो रही है, हालांकि 79 दिनों तक वे इसे मानने को ही तैयार नहीं थे। जब दो महीने पुराना एक वीडियो सामने आया और उसे लेकर लोगों का गुस्सा उबल पड़ा तो उन्हें बोलने के लिए मजबूर होना पड़ा। देश के मुख्य न्यायाधीश ने भी इस बारे में बेहद आक्रोशित शब्दों का इस्तेमाल किया और अभी तक हाथ पर हाथ धरे बैठी मणिपुर पुलिस भी हरकत में आई और उसने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया।
आखिर इस सबमें इतना वक्त क्यों लगा? वह इसलिए क्योंकि प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे को इतना अहम समझा ही नहीं और इस तरह बाकी बीजेपी और सत्ता की गोदी में बैठी मीडिया को भी इशारा कर दिया कि इस बारे में बात नहीं करनी है। जब यह घटना और इस जैसी अन्य भयावह घटनाएं हो रही थीं, तो वे बेंग्लोर में रोड शो कर रहे थे। उन्होंने वहां अपना एक रोड शो जरूर कैंसिल किया था, लेकिन मणिपुर के लिए नहीं बल्कि इसलिए कि उस दिन परीक्षाएं थीं और वे नहीं चाहते थे कि इससे छात्रों को दिक्कत हो। बाकी तो उन्होंने किए ही।
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इसके बाद वे दो बार विदेश चले गए, जहां उन्होंने भव्य आयोजनों और परेड आदि में हिस्सा लिया। भारत में रहते हुए भी उन्होंने ट्रेनों को हरी झंडी दिखाने, लोगों को जन्मदिन पर शुभकामनाएं देने जैसे कामों में व्यतीत किया। लेकिन मणिपुर को लेकर एक शब्द उनके मुंह से नहीं निकला। सवाल फिर वही है कि आखिर जीती जागती समस्या की अनदेखी कर कोई क्या हासिल करता है, भले ही वह समस्या हर किसी को नजर आ रही हो?
पहला तो शायद यह संकेत देना कि यह समस्या मेरी नहीं है। अगर मेरा घर जल रहा होगा तो मैं इसे बचाने के लिए दौड़ पड़ूंगा। अगर मेरे परिवार पर हमला होगा, तो मैं उसकी रक्षा के लिए सामने आ जाऊंगा। अगर में न सिर्फ कुछ न करूं, बल्कि ऐसा दिखाऊं कि कुछ हुआ ही नहीं, तो मैं मान ही नहीं रहा हूं कि यह मेरी समस्या है। इसलिए मैं इसे हल करने के लिए भी कुछ नहीं करूंगा।
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एक दूसरा लाभ भी है: मैं कठिन परिस्थितियों से तुरंत निपटने को टाल देता हूं और हो सकता है कि समस्या खुद ब खुद ही खत्म हो जाए। मैंने अपने पिछले लेख में इस बारे में बात की थी कि कैसे प्रधानमंत्री ने कोविड महामारी की दूसरी लहर के दौरान इसी तरीके को अपनाया था। आम तौर पर वह हर दिन किसी न किसी कार्यक्रम में दिखाई देते हैं, चाहे शारीरिक रूप से या आभासी रूप से, वह अपनी बंगाल रैलियों को रद्द करने के बाद 20 दिनों के लिए गायब हो गए थे। जबकि उसी दौरान हजारों लोग बिना ऑक्सीजन के मर रहे थे और श्मशानों में दाह संस्कार के लिए शवों की कतारें लग गई थीं।
तीन सप्ताह बाद जब हालात सुधरना शुरु हुए तो वे अवतरित हुए थे और उन्होंने दिखाया कि वे उच्च स्तरीय बैठकें कर रहे हैं। उसी साल बीजेपी के एक प्रस्ताव में कोरोना को मात देने के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी, लेकिन बाद में उस प्रस्ताव को बीजेपी की अधिकारिक वेबसाइट से हटा दिया गया था। इसके बाद जब कोरोना की लहर थम गई, तो वे फिर से इसे पूरी तरह भूल गए थे।
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गलवान घाटी के मुद्दे पर भी उन्होंने यही रवैया अपनाया। वहां होने वाली झड़पों को लेकर तीन साल तक कोई सैनिक ब्रीफिंग तक नहीं हुई। इस मुद्दे पर उनका एक छोटा सा बयान सामने आया था और फि इसके बाद लंबी खामोशी।
इस रवैये का तीसरा लाभ है कि अगर मैं ऐसी समस्याओं को स्वीकार नहीं करता हूं तो मैं एक तरह से अपनी छवि को बनाए रखता हूं। मेरे भक्तों और समर्थकों (प्रधानमंत्री के मामले में तो इनकी बड़ी संख्या है) को उस दर्द से नहीं गुजरना होगा कि मैंने किसी ऐसी बात को स्वीकार लिया है कि मेरे नेतृत्व में कुछ गलत हो गया है। इसका एक अन्य लाभ यह भी है कि चूंकि भक्तों की आस्था मुझमें बनी हुई है तो मैं खुद को ही समझा लेता हूं कि मैंने कुछ गलत नहीं किया। अगर इतने लोग मुझ पर भरोसा करते हैं, तो फिर मेरे कृत्य भी सहीं हों, साथ ही समस्याओं पर कुछ न करने वाला मेरा रवैया भी।
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इसके अलावा और क्या? कुछ छोटे-मोटे लाभ और भी हैं। शायद कुछ लोग सिर्फ बड़े-बड़े दावों को हीयाद रखेंगे, न कि बुरी खबरों की अनदेखी को। कितनी बार हमने सुना है कि भारत बहुत तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है? बहुत से लोग ऐसा मान भी रहे हैं, लेकिन जैसा कि अभी 22 जुलाई को ही एक समाचारपत्र ने लिखा, “भारत तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था नहीं है। सऊदी अरब है जो 8.7 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा है, इसके बाद 8 फीसदी के साथ वियतनाम का नंबर है। 2023 की पहली तिमाही में फिलीपींस ने भी 6.4 फीसदी के साथ भारत को पीछे छोड़ दिया था।”
लेकिन अगर मैं ‘तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था’ के बारे में इस मौके पर पूरी तरह बात करना बंद कर दूं तो और कुछ समय या वर्षों बाद फिर से सामने आ जाऊं तो लोग मानेंगे कि मैं तो हमेशा टॉप पर ही था।
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आइए अब बात करते हैं कि इस सबसे क्या नुकसान होता है जब मैं एक नेता के तौर पर समस्याओं को स्वीकारने से इनकार कर देता हूं। पहला तो यही कि समस्या जस की तस बनी रहेगी, जैसाकि मणिपुर के मामले में हुआ, और वह और भी भयावह हो जाएगी। कितने लोगों की मौत हुई, कितनी महिलाओं और लड़कियों पर हमले हुए, कितने घरों को फूंक दिया गया, सिर्फ इसलिए कि भारत सरकार ने इस समस्या की तरफ से मुंह मोड़े रखा? शायद इतिहासकार ही हमें इस बारे में बता पाएंगे, क्योंकि ज्यादातर मीडिया तो इस बारे में तो कुछ बोलेगा नहीं।
दूसरी बात यह कि लोग इसका फायदा उठाएंगे। जब प्रधानमंत्री को ही मणिपुर में कोई दिक्कत नहीं नजर आती तो आखिर मुख्यमंत्री भी क्यों इस्तीफा दें? जब कुछ बाहरी दबाव आया तो मुख्यमंत्री ने इस्तीफा देने का नाटक किया, लेकिन पद पर बने रहे क्योंकि उन्हें पता था कि इससे लोग खामोश हो जाएंगे। और, उन्होंने ऐसा ही किया।
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तीसरी बात राष्ट्र, यह राष्ट्र इस स्तब्धता में बना रह सकता है कि वह महानता की ओर बढ़ रहा है और अपने अंदर जल रही आग से विचलित नहीं होता। हालात की अनदेखी और समस्याओं को टालने का यह रवैया शायद प्रधानमंत्री की प्रतिक्रियाओं और उनकी गणनाओं से ही आता है, या फिर शायद यह सहज अंदरूनी समझ से आता है। पर जो भी सच है, वह यह है कि बीते 10 साल में यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि इससे उन्हें क्या लाभ हुआ और इससे हमें क्या नुकसान हुआ।
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