प्रधानमंत्री ने अभी हाल ही में बिजनेस अखबार इकोनॉमिक टाइम्स को एक अद्भुत इंटरव्यू दिया है। देखने में यह इंटरव्यू पूर्ण आत्मविश्वास और एक आकर्षक लहजे से भरा हुआ था, लेकिन हकीकत का इससे दूर-दूर तक लेना-देना नहीं था।
इंटरव्यू के दौरान पीएम मोदी ने माना कि उन्होंने कोरोना काल का प्रबंधन बहुत अच्छे से किया, बल्कि कई देशों के मुकाबले उन्होंने कुछ अलग ही काम किया। उनके मुताबिक उन्होंने लोगों की जानें बचाईं। उन्होंने कहा, “मैं कोई स्वास्थ्य विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन मेरा आंकलन संख्याओं पर आधारित है। मुझे लगता है कि हमें अपने कोरोनो वायरस का मूल्यांकन करना चाहिए और आंकड़ों के आधार पर देखना चाहिए कि हम कितने जीवन को बचाने में सफल हुए हैं।"
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उन्होंने कोई संख्या या आंकड़ा नहीं दिया, जरूरत भी नहीं थी क्योंकि आंकड़े तो सार्वजनिक हैं। कोरोना संक्रमितों की संख्या के मामले में भारत का स्थान दुनिया में दूसरा है, और मौतों के मामले में भारत का स्थान तीसरा है। आबादी के पैमाने पर अगर किसी एक देश से भारत की तुलना हो सकती है तो वह है चीन है। चीन ने एक झटके में महामारी पर नियंत्रण कर लिया। सिर्फ 12 फरवरी को वहां सर्वाधिक केस सामने आए थे, यानी पीक हुआ था और उसके बाद संक्रमण को फैलने से रोक दिया गया।
हमारे आस-पास के पड़ोसी देशों, बांग्लादेश और पाकिस्तान जो सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से हमसे मिलते हैं अगर प्रति लाख संक्रमण और मौतों के आंकड़े देखे जाएं तो उन्होंने भी हमसे बेहतर बल्कि दोगुना काम किया। तो फिर हम किस आधार पर मान सकते हैं कि मोदी सरकार ने तुलनात्मक रूप से अच्छा काम किया है? उन्हें लगता है कि हमें भारत की तुलना ब्राजील, इटली और अमेरिका से करनी चाहिए। पर क्यों?
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उन्होंने दावा किया कि दुनिया का दूसरा सर्वाधिक संक्रमित देश भारत पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श एक मॉडल साबित हुआ है कि बिना किसी जोर जबरदस्ती और बल प्रयोग के लोगों ने इस मुहिम में हिस्सा लिया। लेकिन हकीकत यह है कि भारत में सबसे सख्त लॉकडाउन किया गया और केंद्र सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम के जरिए इसे लोगों पर थोपा। बिना खाने-पानी के घरों को लौट रहे बेरोजगारों को जेलों में डाला गया। पुलिस से बचने के लिए रेल पटरी पर जा रहे लोग ट्रेन से कुचले गए। अगर यह सब लोगों ने अपनी मर्जी से किया तो तो फिर शायद फिर गुजरात में ही जन भागीदारी की परिभाषा अलग होगी।
मनमाने तरीके से बिना तैयारी के लागू किए गए लॉकडाउन के चलते जानें नहीं बचीं, ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जो साबित करे कि इससे जानें बचीं, हां इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था का कबाड़ा जरूर हो गया। प्रधानमंत्री ने पूरे भरोसे के साथ कहा कि अगस्त और सितंबर के आंकड़ों से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था "वापस पटरी पर" लौट रही है। वापस ट्रैक पर कहाँ? भारत की जीडीपी में कोरोना महामारी शुरु होने से दो साल पहले से ही गिरावट का दौर चल रहा था। यह जनवरी 2018 से 10 तिमाहियों में इसमें लगातार गिरावट दर्ज हो रह थी। कोरोना से पहले ही विकास दर 3 फीसदी पर पहुंच गई थी। ऐसे में आखिर हम किस ट्रैक पर वापस आ रहे हैं?
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इसके अलावा, अगर पीएम मोदी को लगता है कि हम वहीं वापस आ जाएंगे जहां फरवरी थे, तो शायद उनके आसपास गलत सलाहकार हैं। जीडीपी में एक चौथाई की गिरावट तो अप्रैल और जून के बीच ही हो गई थी। जुलाई-सितंबर तिमाही में हम यही आशा करें कि यह और नीचे न गिरी हो। और अगर ऐसा होता है तो भी जीडीपी को पटरी पर लाने में दो साल का वक्त लगेगा। यानी दो साल बाद हम वहां होंगे जहां इस साल फरवरी में थे। यह पटरी पर वापस आना तो नहीं हो सकता।
प्रधानमंत्री 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की बात अभी भी कर रहे हैं। यह एक अजीब सी बात है। भारत की अर्थव्यवस्था, किसी भी गति से से चले कभी न कभी इस मुकाम पर पहुंच ही जाएगी। बशर्ते नोटबंदी और लॉकडाउन जैसे जादुई तरीके न अपनाए जाएं जो इसकी रफ्तार को धीमा करने के लिए काफी हैं।
लेकिन यह मान लेना कि ऐसा 2024 में होगा, वैसा ही होगा जैसा कि बीते तीन साल में मोदी ने जो कुछ किया है उसे अनदेखा करना। इंटरव्यू में उहोंने कहा, "निराशावादी ज्यादातर लोग संदेह में रहते हैं। यदि आप उनके बीच बैठते हैं, तो आप निराशा और निराशा की बातें सुनेंगे।" नहीं, श्रीमान, इसे हकीकत से रूबरू होना कहते हैं और आंकड़ों को समझने की सक्षमता कहते हैं।
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यह बताना दरअसल कठिन है कि प्रधानमंत्री वास्तविकता का सामना करने में असमर्थ हैं या उनमें इतनी कुशलता है कि वह जो भी कहें उसे मान लिया जाए और उस हकीकत को नजरांज कर दिया जाए जिसको लेकर हमारा अपना नजरिया है। अगर हम मान लें कि चीन ने उस जगह हमारी जमीन पर कब्जा नहीं किया है, जहां हमारी सेना फरवरी तक गश्त कर रही थी, तो यह भी मानना होगा कि चीनी सैनिक वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार करके नहीं आए। यदि हम कोरोना के मामले में खुद की तुलना ब्राजील और इटली से करें और चीन और पाकिस्तान से नहीं, तो हमारे आंकड़े बेहतर ही नजर आएंगे।
अगर हम इंटरव्यू के इन अर्थहीन जुमलों को सही मान लें कि "आत्मानिभर भारत सिर्फ प्रतिस्पर्धा के बारे में नहीं है, बल्कि क्षमता के बारे में भी है, यह प्रभुत्व के बारे में नहीं है, लेकिन निर्भरता के बारे में है, यह भीतर देखने की नहीं बल्कि दुनिया की तलाश करने के बारे में है" तो फिर तो यह उस अर्थव्यवस्था को सुधारने की कोशिश का विकल्प ही माना जाएगा जो बीते 30 महीनों से हिचकोले खा रही है।
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