बीजेपी और आरएसएस ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ जिस तरह का दुष्पप्रचार चलाया है, वह सबके सामने है। वाट्सएप यूनिवर्सिटी से निकलने वाली ज्ञान की धारा में राहुल गांधी को बदनामी के कीचड़ में लपेटने की कोशिशें होती ही रहती हैं। अफसोस की बात यह है कि पत्रकार तक सूत्रों के हवाले से बेसिरपैर की बातें करते रहते हैं। ऐसी ‘गोलाबारी’ के बीच अडिग खड़े इस शख्स के बारे में जानना जरूरी हैः वह कैसे इंसान हैं, कैसे नेता हैं।
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इस सवाल का जवाब पाने के लिए थोड़ा और बढ़कर यह भी देखने की जरूरत है कि क्या वह ‘पूरी तरह से’ एक नेता हैं और क्या वह मौजूदा हालात में एक नेता के तौर पर कामयाब होंगे? इससे जुड़े कुछ मुद्दे हैं जैसे उन्हें एक ‘हल्के’ व्यक्ति के रूप में पेश करने में मीडिया की भूमिका, बड़े नेताओं का उनके सबकुछ छोड़-छाड़ देने की अटकलें लगाना और सबसे बड़ी बात उन्हें ‘पप्पू’ कहकर उनकी खास तरह की नकारात्मक छवि बनाना। लेकिन जो दो बातें हमें सोचने के लिए मजबूर करती हैं, वे हैं- एक, आखिर क्या बात है कि प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह जैसे नेता राहुल गांधी से इस कदर खौफ खाते हैं कि और क्या बात है कि मीडिया इनके आगे नतमस्तक हो गया है।
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गंभीरता से देखें तो इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी ने इस साल की शुरुआत में संसद में तीन सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए। अपने भाषण में उन्होंने ने कहा कि बेरोजगारी, महंगाई और सामाजिक अशांति से हमारे देश को सबसे ज्यादा नुकसान होने की आशंका है। बेशक सरकार की ओर से जो जवाब दिया गया, उसमें राहुल द्वारा उठाए गए मुद्दों को छोड़कर सब कुछ था। इसमें हमेशा की तरह राहुल, नेहरू परिवार पर हमला किया गया। बाद में राहुल ने यह मुद्दा भी उठाया कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर किस तरह अक्खड़ होते जा रहे हैं। ऐसे में, हर किसी को यह उम्मीद होगी कि मीडिया राहुल से इन मुद्दों के बारे में उनकी राय जानेगा और उन पर सरकार की प्रतिक्रिया लेने की कोशिश करेगा क्योंकि कुछ चुने हुए लोगों को छोड़कर पीएम तो कभी मीडिया से बात करते नहीं हैं, और जिनसे भी बात करते हैं, वे कोई सवाल पूछ नहीं सकते।
मीडिया राहुल के उठाए मुद्दों को जनसंख्या के आधिकारिक आंकड़ों, विभिन्न सरकारी रिपोर्टों, आर्थिक सर्वेक्षण वगैरह के हवाले से विस्तार देकर जनता को बता सकता था कि इन दावों में कितनी सच्चाई है, कितनी नहीं। अगर कोई इस तरह का काम करता तो वह अपना फर्ज ही पूरा कर रहा होता और यह किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं होता।
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इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी ने जनता से जुड़े सर्वधिक अहमियत वाले मुद्दों को ही उठाया है। लेकिन ऐसा क्यों है? लगता है जैसे यह अलिखित नियम बन गया है कि इन जनहित के मुद्दों पर सिर्फ और सिर्फ राहुल ही बोलेंगे और दूसरे नहीं। हाल के समय मेें राजनीतिक बीट की रिपोर्टिंग में भी बदलाव आ गया है और अब यह पार्टी-केन्द्रित न होकर व्यक्ति-केन्द्रित हो गई है। आपके किसी नेता से जितने करीबी रिश्ते, उतनी ही अटकलबाजियां। अखबारों में छपने वाली खबरों में बड़ी संख्या सूत्रों के हवाले से होती है। इसका नतीजा यह होता है कि जनता के मन में किसी नेता को लेकर जो छवि बनती है, वह एकतरफा सूचना के आधार पर होती है।
मीडिया पर जो सवाल है, वह यूं ही नहीं। संसद में राहुल गांधी के भाषण और उस पर प्रधानमंत्री के जवाब का कवरेज भ्रामक था। उससे ऐसा लग रहा था कि प्रधानमंत्री ने सटीक जवाब देकर राहुल के दावों की धज्जियां बिखेर दीं। इसे ऐसे दंगल की तरह पेश किया गया जिसमें एक मंझे हुए बुजुर्ग नेता युवा नेता को ‘कबाब की तरह चबा’ गए।
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फिर, राहुल विदेश यात्रा पर चले जाते हैं और तब मीडिया इस तरह की खबरें चलाने लगता है कि क्या उन्हें विदेश जाने की आधिकारिक मंजूरी मिली थी, उनके साथ कौन-कौन गए थे और उन्होंने विदेश की कितनी यात्राएं की। आज के दौर में नेहरू-गांधी परिवार के एक सदस्य के लिए किसी तरह का विशेषाधिकार पाना खासा कठिन है। हां, यह बात है कि एक सार्वजनिक व्यक्ति के लिए जिम्मेदार और जवाबदेह होना जरूरी है। लेकिन इस संदर्भ में किसी तरह का कोई संतुलन नहीं दिखता, खास तौर पर तब जब किसी बात के लिए राहुल गांधी को निशाना बनाया जाता है।
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अब महामारी के बाद प्रधानमंत्री के विदेशी दौरे शुरू हो गए हैं लेकिन हमें वास्तविक विश्लेषण नहीं मिलता कि ये यात्राएं कितनी महत्वपूर्ण थीं? इनपर क्या लागत आई और इससे भारत को कैसे लाभ हुआ? हां, विदेशी मीडिया ने उस वीडियो को जरूर हाइलाइट किया जिसमें अमेरिकी राष्टट्रपति जो बिडेन हमारे नेता को पूरी तरह से नजरअंदाज कर रहे थे। लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया में इसका जिक्र नहीं हुआ।
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आम लोग अधिक सुसंगत और आक्रामक राहुल को देखना चाहते हैं जो भाजपा का जीना मुश्किल बना रहा हो। लोगों का कांग्रेस पर से जो भरोसा घटा है, उसे वापस लाने का अहम काम राहुल को करना होगा। बेशक हर व्यक्ति को कुछ वक्त अपने लिए चाहिए होता है और उसे भी आराम की जरूरत होती है। लेकिन यह याद रखना होगा कि राजनीति 24 घंटे का काम है और इसके लिए पार्टी को दूसरी पंक्ति के मजबूत नेताओं की टीम बनानी होगी, उन पर भरोसा करना होगा और आज के समय के साथ तालमेल बैठाना होगा। राहुल को कुछ कड़े फैसले लेने होंगे और यह देखने की बात होगी कि क्या वह कांग्रेस पार्टी में नई जान फूंक पाते हैं।
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