विचार

विष्णु नागर का व्यंग्यः राम अब बेबस हैं, लाचार हैं, चुनावी औजार से मंदिर की जमीन पर कमीशन खाने का बहाना बन गए!

ये ऐसे राम हैं, जिनके रामराज में हिन्दू-मुसलिम एक दूसरे से नफरत के सूत्र में बंधे हों। उन्हें अब अपने नाम पर दंगा कराने, चंदा खाने वालों से परहेज नहीं रहा। उन्हें सिंहासन पर बैठने वालों की ऐसी सीढ़ी बनना पसंद है, जिन्हें न संविधान की परवाह हो, न कानून की।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

जब से राम, जय श्री राम हुए हैं, कुछ और बना दिए गए हैं। राम अब धर्म के नाम पर व्यक्तिगत और सामूहिक दुश्मनी निकालने का कवच ह़ैं। दंगा कराने की आड़ हैं। राम अब बाल्मिकी और तुलसी के नहीं, आडवाणी और मोदी के राम हैं। राम अब राम रहे नहीं, वह सांप्रदायिक राजनीति हैं, रामजन्मभूमि मंदिर, रामशिला और रामरथ हैं। ये राम अब लोगों को उनके कपड़ों से पहचानने लगे हैं।

राम अब ऐसे 'देशभक्त' बन चुके हैं कि कोई दाढ़ी-टोपी वाला इनकी मर्जी से जय श्रीराम नहीं बोले तो उसे सबक सिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। ये राम, अब सीतापति राम नहीं, सीताराम भी नहीं, जय श्री राम हैं। राम अब पिता को दिया वचन निभाने वाले पुत्र नहीं, सुप्रीम कोर्ट को वचन देकर उसकी धज्जियां उड़ाने वाले राम हैं। राम अब चुनाव जीतने का औजार हैं। मंदिर की जमीन पर मोटा कमीशन खाने का बहाना हैं!

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पहले वे बाल्मीकि के राम थे, तो किसी मनुष्य की तरह आसानी से पहचान में आ जाते थे। फिर उन तुलसी के राम हुए, जिन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कोई उन्हें धूर्त (धूत) कहता है या अवधूत, राजपूत कहता है या जुलाहा। उन्हें किसी की बेटी से अपना बेटा ब्याह कर किसी की जाति तो 'बिगाड़ना' नहीं था, तो वह किसी की परवाह क्यों करते! वह राम के ऐसे गुलाम थे, जो मस्जिद में जाकर भी सो सकते थे, मांग कर खा भी सकते थे। वह किसी के लेने-देने में नहीं थे।

अब राम ऐसों के हत्थे पड़ गए हैं, जिन्हें हरेक के हरेक मामले में टांग फंसाना है। ये तय करेंगे कि कौन क्या खाए, किससे दोस्ती करे, शादी करे, कैसे कपड़े पहने, किसका नाम ले, क्या सोचे, किसकी जय-जयकार करे। ये धूर्त हैं, जिन्हें अवधूत मानने की गलती कोई कर नहीं सकता।इनकी जाति ही नहीं, उपजाति भी है। इन्हें अपनी लड़की-लड़के की न धर्म के बाहर शादी करना है, न जाति के बाहर, न लड़के या लड़की की इच्छा से। ये महलों में रहने वाले लोग हैं, फकीर नहीं, अवधूत नहीं। ये मस्जिद तोड़ और तुड़वा सकते हैं मगर मस्जिद में सोने और भीख मांगने की कल्पना नहीं कर सकते।

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इन्हें लेना-देना भले नहीं है किसी से मगर बदला नेहरू जी से भी लेना है, जो 1964 में इस संसार से कूच कर चुके हैं। बदला लेना है, क्योंकि उन्होंने इस देश को धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनने दिया। हिन्दू पाकिस्तान नहीं बनने दिया। विभाजन के बावजूद हर नागरिक को यहां ससम्मान जीने की आजादी दी। उन्होंने ऐसे संविधान का पालन किया और करवाया, जिसके कारण इतने वर्षों तक इनका सत्ता का रास्ता कठिन बना रहा।

इन्हें यूं तो चीन से भी बदला लेना है, मगर जानते हैं, ले नहीं सकते! हां पाकिस्तान से लेते रह सकते हैं। बदला यहां के मुसलमानों, किसानों, मजदूरों, औरतों, छात्रों-लेखकों-बुद्धिजीवियों से भी लेना है। बहाना मिल जाए तो ठीक, वरना बहाना ढूंढा जा सकता है! जनतंत्र से तो इन्हें ऐसा बदला लेना है कि उसकी हड्डी-पसलियों तक का पता न चले!

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इन्होंने इसलिए ऐसे राम की सर्जना की है, जो कि पिछले बीस-पच्चीस साल से मुस्कुराना छोड़ चुके हैं। इनके बनाए राम की एकमात्र आकांक्षा अब अपनी कथित जन्मभूमि पर मंदिर बनाना है और 'वहीं' बनाना है। ये पैदल चलना भूल कर, रथ पर सवार रहने वाले राम हैं। वह भी पेट्रोल-डीजल के 'रथ' पर! ये अपना 'वहीं' मंदिर बनाने के लिए हर हिंदू घर से 'रामशिलाएँ' इकट्ठा करवाने वाले हैं!

ये ऐसे राम हैं, जिनके रामराज में हिन्दू-मुसलिम एक दूसरे से नफरत के सूत्र में बंधे हों। उन्हें अब अपने नाम पर दंगा कराने, चंदा उगाहने, चंदा खाने वालों से परहेज नहीं रहा। उन्हें नफरतियों की सत्ता के सिंहासन की सबसे आसान सीढ़ी बनने में संकोच नहीं रहा। उन्हें सिंहासन पर बैठने वालों की ऐसी सीढ़ी बनना पसंद है, जिन्हें न संविधान की परवाह हो, न कानून की। जिनके लिए भाईचारा और समता पराये मूल्य हों!

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राम का नाम नफरत और लूट के इतने काम आएगा, इसकी जरा भी कल्पना अगर बाल्मीकि या तुलसी दास को रही होती तो या तो वे महाकाव्य न रचते या रचते तो राम को उसका विषय न बनाते। या रचते तो मन ही मन में रचते, मन ही मन गुनगुनाते। किसी को सुनाते नहीं, मगर अनजाने में हो गई गलती उनसे, अब करें क्या? चिड़िया खेत चुग गई। अब पछताने से होगा क्या? राम अब बेबस हैं, लाचार हैं!

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