विचार

रमजान: उपवास नहीं संयम, सब्र और सादगी के आचरण का वक्त

सभी धर्मों में उपवास के लिए कुछ ख़ास दिन मुक़र्रर किये गए हैं - चाहें वो ईसाईयों के लेंट्स हों, हिन्दुओं के नवरात्र और श्रावण माह या फिर यहूदी धर्म का ‘तानिस’। लेकिन उपवास क्यों जबकि इसका मकसद सिर्फ खुद को भूख और प्यास से पीड़ा देना है?

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया सिर्फ उपवास नहीं है रमजान

रमजान का पाक महीना आ पहुंचा है। इस मौके पर महात्मा गांधी के उन शब्दों को याद करना वाजिब जान पड़ता है जब उन्होंने एक किस्सा सुनाया था कि किस तरह एक मुस्लिम गांव के लोगों ने रमजान के मौके पर उनके लिए खाना पकाया था जबकि पूरे गांव में चूल्हा नहीं जला था। गांधी जी ने भावुक होकर कहा था, “इस बात ने मुझे बहुत गहरे द्रवित किया है और मैं बहुत कृतज्ञ महसूस कर रहा हूं कि उस वक्त जब रमजान के मौके पर मुस्लिम घरों में से एक में भी चूल्हा नहीं जला था, हमारे लिए यहां खाना पकाना पड़ा। मेरी वो उम्र अब गुज़र चुकी है जब मैं भी आपके साथ उपवास कर सकता जैसा कि दक्षिण अफ्रीका में मैंने उन मुस्लिम लड़कों के साथ किया था जो मेरी देख-रेख में थे। मुझे खान साहब की भावनाओं की भी कद्र करनी थी जो दिन-रात मेरी सेहत का ख्याल रख रहे हैं। अगर मैं उपवास रखता तो वे शर्मिंदा महसूस करते। मैं सिर्फ आपसे माफ़ी मांग सकता हूं।”

जिस शख्स ने उपवास नहीं रखा उसकी विनम्रता और जिन लोगों ने उपवास रखते हुए भी उनके लिए खाना पकाया उनकी उदारता आज याद करना प्रासंगिक ही नहीं है, बल्कि उसका आचरण भी करना चाहिए। उपवास का मकसद ही होता है हमें ये एहसास दिलाना कि हम धर्म के रक्षक नहीं है, बल्कि धर्म ही हमें ये जीवन ख़ूबसूरती और शांति से जीने की राह दिखता है। धर्म हमारी रक्षा का मोहताज नहीं।

इसलिए एक बार फिर हमें यह याद करना चाहिए कि रमजान का मतलब महज़ उपवास करना ही नहीं होता, बल्कि अपने दिलोदिमाग को अनुशासित करना भी होता है। दरअसल सभी धर्मों में उपवास के लिए कुछ ख़ास दिन मुक़र्रर किये गए हैं - चाहें वो ईसाईयों के लेंट्स हों, हिन्दुओं के नवरात्र और श्रावण माह या फिर यहूदी धर्म का ‘तानिस’। लेकिन उपवास क्यों जबकि इसका मकसद सिर्फ खुद को भूख और प्यास से पीड़ा देना है? तो क्या इसका मतलब ये है कि धर्म का लक्ष्य भी पश्चाताप में खुद को यातना देने के ज़रिये आस्था को मज़बूत करना है?

ऐसा नहीं है। धर्म का तो सर्वोपरि लक्ष्य होता है हमारे भीतर विनम्रता लाना और इंसानी कमजोरियों का एहसास भी।

‘तू दयालू दीन हौं, तू दानी, हौं भिखारी/ हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज हारी।’ (‘विनयपत्रिका’ तुलसीदास)

कुरान की एक आयत भी है जिसका अर्थ है - अल्लाह तुम्हारी मुश्किलें आसान करना चाहता है (क्योंकि) इंसान को कमज़ोर ही बनाया गया है।

इसलिए पश्चाताप और सुधार की गुंजाइश है, उम्मीद है। लेकिन हमारे लिए अब उपवास के मायने बिलकुल बदल गए हैं। नवरात्रि के मौके पर हमारा ध्यान इस बात पर नहीं होता कि हमें उपवास कैसे करना है, बल्कि इस बात पर होता है कि उस दौरान क्या-क्या चीज़ें खा सकते हैं। रमजान के दौरान भी फ़ोकस कमोबेश उपवास से हट कर इफ़्तार पर हो गया है। ध्यान से देखें तो एहसास होगा कि अब हमने धर्म पर आस्था रखने की बजाय उसका प्रदर्शन करना अधिक शुरू कर दिया है। कांवड़ यात्रा के दौरान डरा देने वाले जुलूस, नवरात्रि के मौके पर शोरगुल भरे जगराते और रमजान की आलीशान इफ़्तार पार्टियां अब फैशन में हैं। जबकि वास्तविकता ये है कि सभी धर्म इन उपवासों के ज़रिये संयम और आत्मचिंतन को प्रोत्साहित करते हैं; यहां केंद्र में अपनी धार्मिक पहचान के बाहरी और भड़कीले प्रचार नहीं, बल्कि आत्मविश्लेषण और चिंतन है।

महात्मा गांधी ने एक बार रमजान में उपवास के महत्त्व पर लिखा था और वो शब्द आज के उग्र धार्मिक माहौल और बढ़ती असहिष्णुता के माहौल में बहुत सटीक और प्रासंगिक लगते हैं, “हमने समझा है कि महज़ उपवास रखना ही रमजान का ठीक से पालन करने के लिए काफी नहीं है। उपवास का अर्थ शरीर के साथ-साथ मन को भी अनुशासित करना है। इसका मतलब ये कि अगर सारे साल नहीं तो कम से कम रमजान के महीने के दौरान सदाचार के सारे नियमों का पालन करना चाहिए, सत्य का आचरण करना चाहिए और क्रोध के सभी लक्षणों पर काबू पाना चाहिए।”

“हम सोचने लगते हैं कि रमजान का पालन सिर्फ खाने पीने से परहेज़ तक ही सीमित है। इस पाक महीने के दौरान छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा करना गाली-गलौज करने के बारे में तो हम सोचते भी नहीं। अगर उपवास तोड़ने के वक्त खाना परोसने में पत्नी से ज़रा सी देर हो जाए तो बेचारी पत्नी को हम कोसने लगते हैं, उससे मार-पीट करने लगते हैं। यह रमजान का पालन नहीं, बल्कि उसका उपहास उड़ाना है। अगर आप वाकई अहिंसा का पालन करना चाहते हैं तो आप कसम खाएं कि आप अपने परिवार के सदस्यों पर ना तो गुस्सा करेंगे ना ही उन पर रौब चलाएंगे। इस तरह से आप अपने रोज़मर्रा के छोटे-छोटे मौकों का इस्तेमाल अहिंसा को पोषित करने के लिए कर सकते हैं और फिर यही आप अपने बच्चों को भी सिखा सकते हैं।”

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वह कोई भी धर्म हो, उपवास की परंपरा का उद्देश्य दरअसल यही है। और आज जब धर्म का मतलब सिर्फ एक सतही प्रोपगेंडा और दिखावे के अलावा कुछ नहीं, यह बात ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है। यह एक विडम्बना है कि आज हमारे धार्मिक-दार्शनिक सरोकार मंदिर या मस्जिद बनाने या नमाज़ की जगह मुक़र्रर करने जैसे मामूली मुद्दों तक ही सीमित रह गए है।

पहले से कहीं ज्यादा आज ये ज़रूरी हो गया है कि हम रुकें और सोचें कि उपवास क्यों ज़रूरी है, संयम, सब्र और सादगी क्यों अहम हैं।

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