अगर चुनाव अभियान और टेलीविजन की बहसों से फैसला करें, तो लगेगा कि अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या शरणार्थी ही राष्ट्रीय राजधानी की सबसे बड़ी समस्याएं हैं। खतरनाक वायु प्रदूषण और पेयजल संकट की गिनती इसमें नहीं होती। सत्ताधारी पार्टी के कामकाज की तो चर्चा ही नहीं हो रही, हालांकि किसी भी चुनाव में इसकी सबसे ज्यादा उम्मीद करनी चाहिए।
आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही इन अवैध लोगों के नामों को मतदाता सूची में डालने को लेकर आरोप-प्रत्यारोप में व्यस्त हैं। बेशक मतदाता सूची संदेह के घेरे से बाहर नहीं है लेकिन इसका कारण रोहिंग्या को मतदाता सूची में शामिल करना नहीं है जैसा कि समझाया जा रहा है।
दिल्ली के लेफ्निेंट गवर्नर वीके सक्सेना ने पिछले महीने दिल्ली में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों के खिलाफ अभियान चलाने को कहा था। दो हफ्ते की कसरत के बाद पुलिस सिर्फ 170 ऐसे लोगों को शक के दायरे में ले पाई। इनमें से भी तीन दर्जन से कम लोगों को पकड़ा गया जिनमें सिर्फ आठ को वापस बांग्लादेश भेजने की तैयारी चल रही है। ऐसा ही एक अभियान साल 2022 में चला था। तब सिर्फ एक हजार अवैध बांग्लादेशियों का पता चला था।
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दिल्ली में रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या 1,100 के आस-पास बताई जाती है। दिल्ली के चार इलाकों में रह रहे रोहिंग्या के पास तो आमतौर पर वोट देने का अधिकार भी नहीं है। इनमें से कुछ अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या मतदाता सूची में अपना नाम डलवाने में कामयाब भी हो गए, तो भी दिल्ली की 3.3 करोड़ आबादी में यह संख्या बहुत सूक्ष्म ही रहेगी जो किसी भी तरह से चुनाव के नतीजों को प्रभावित नहीं कर सकती। लेकिन दिल्ली के चुनावी विमर्श सुनने पर ऐसा लगता है कि चुनाव का रुख इस बार यही दोनों समूह तय करेंगे।
प्रदूषण, ट्रैफिक जाम, जल संकट, कूड़ा प्रबंधन जैसी समस्याओं को ताक पर रखकर हवा में सिर्फ कट्टर ईमानदार बनाम कट्टर बेईमान या शीश महल बनाम राजमहल जैसी बातें ही गूंज रही हैं। यही बताया जा रहा है कि कौन महाभ्रष्टाचारी है और कहां भ्रष्टाचार की प्रयोगशाला बन गई है। मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश किसने दिया? पुजारी-ग्रंथी सम्मान योजना अचानक कहां से आ गई? मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना जैसी रेवड़ियां क्यों बंट रही हैं। इन सबका इस्तेमाल जनता का ध्यान हटाने के हथियार के तौर पर हो रहा है। चुनाव का ऐसा सनसनीखेज नैरेटिव बनाया जा रहा है कि लोग अपनी समस्याएं भूल भावना में बह जाएं।
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यह सब उस समय हो रहा है जब दिल्ली की आबादी भयानक प्रदूषण से जूझ रही है। सर्दियों के मौसम में दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडैक्स सुरक्षित स्तर से 12 गुना तक बढ़ जाना आम बात है। कैंसर का कारण बनने वाले कण तो दिल्ली की हवा में हर समय विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बताए गए स्तर से काफी ज्यादा होते हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि इस खराब हवा ने दिल्ली के 22 लाख से ज्यादा बच्चों को ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं दे दी हैं जो हमेशा उनके साथ रहेंगी। पिछले साल यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो ने एक शोध में अनुमान लगाया था कि प्रदूषण के कारण दिल्ली के लोगों की उम्र 11.9 साल कम हो गई है। दो साल पहले अमेरिकी संस्था हैल्थ एफैक्ट इंस्टीट्यूट ने पूरी दुनिया के सात हजार शहरों का सर्वे करने के बाद प्रदूषण के मामले में दिल्ली को दुनिया का पहले नंबर का शहर घोषित किया था।
साल 2001 में शीला दीक्षित सरकार के समय दिल्ली में एक कोशिश हुई थी। बहुत महत्वाकांक्षी योजना के तहत पूरी दिल्ली के सार्वजनिक परिवहन को पेट्रोल डीजल के बजाय सीएनजी पर आधारित कर दिया गया था। इससे दिल्ली की हवा में सल्फर डाईआक्साइड और कार्बन मोनोआक्साइड का स्तर काफी कम हो गया था। दो दशक बाद अब दिल्ली कहीं ज्यादा प्रदूषण की गिरफ्त में है।
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दिल्ली की सरकार कह रही है कि ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन की सारी बसों को इलेक्ट्रिक बसों में बदल देगी। लेकिन दिल्ली के प्रदूषणकारी वाहनों में डीटीसी की बसों की हिस्सेदारी बहुत कम है। चुनाव के पूरे विमर्श में न दिल्ली सरकार और न केन्द्र सरकार, प्रदूषण कम करने का कोई ठोस कार्यक्रम नहीं रख रही।
सर्दियों में दिल्ली में बड़ी आबादी के सामने कड़ाके की ठंड में रात गुजारने की समस्या आती है। शहरी अधिकार मंच ने पिछले साल एक सर्वेक्षण में पाया था कि दिल्ली में तीन लाख से ज्यादा लोग बेघर हैं। इनमें वे शामिल नहीं हैं जो एनसीआर के दूसरे शहरों में रहते हैं। दिल्ली में कुलजमा 197 रैन बसेरे हैं जिनकी क्षमता 7092 लोगों की है। बाकी की सारी बेघर आबादी भीषण कोल्ड वेव में भी फुटपाथ, रेलवे प्लेटफार्म्स, फुटओवर ब्रिज, सबवे, अस्पतालों आदि के बाहर रात गुजारने को अभिशप्त होती है।
सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवलपमेंट के पिछले साल के आंकड़ों के हिसाब से शीत लहर के दिनों में दिल्ली में हर रोज औसतन नौ लोग सर्दी की वजह से मर जाते हैं। समस्या के तत्काल समाधान और दीर्घकालिक समाधान दोनों को लेकर ही केन्द्र और दिल्ली सरकार के पास या तो बाते हैं या वादें, और कुछ नहीं।
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बेघरों की यह समस्या बढ़ने वाली है क्योंकि रोजगार की तलाश में पूरे देश से दिल्ली आने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। दिल्ली सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, साल 2022 में दिल्ली में आने वाले ऐसे लोगों की संख्या 2,21,000 थी जो यहां से वापस नहीं जाने वाले थे। यानी दिल्ली की आबादी में हर रोज 605 से ज्यादा लोग जुड़ जाते हैं। दिल्ली की वर्तमान आबादी 3.3 करोड़ है जिसके अगले 25 साल में 5.5 करोड़ तक पहुंच जाने की संभावना है। फिर दिल्ली के संसाधनों पर इसका जो दबाव बनेगा, वह भी पहले से ही चरमरा रहे इस महानगर के इन्फ्रास्ट्रक्चर को तबाह कर सकता है।
नदियां किसी भी शहर की लाइफ लाइन मानी जाती हैं लेकिन दिल्ली के बीच से गुजरने वाली यमुना प्राणघातक होती जा रही है। यह ऐतिहासिक नदी गंदा नाला भर रह गई है। केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड के अनुसार, इस नदी के 100 मिलीमीटर पानी में 11 लाख तक कोलीफॉर्म बैक्टीरिया हो सकते हैं। यानी यह इस लायक भी नहीं है कि इसमें स्नान किया जा सके। यह शहर अपना 58 फीसद अपशिष्ट इसी नदी में बहाता है। 80 करोड़ लीटर अनट्रीटेड सीवेज हर रोज यमुना में मिलता है। रोज 440 लाख लीटर औद्योगिक कचरा भी इसमें बहाया जाता है। हिमालय से निकल कर दूर प्रयागराज तक जाने वाली यह नदी दिल्ली में ही इतनी प्रदूषित हो जाती है कि फिर पूरे रास्ते यह कहीं भी साफ नहीं हो पाती।
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प्रदूषित गंगा के बारे में बीजेपी और आप के पास एक दूसरे के खिलाफ आरोप तो हैं लेकिन कोई कार्यक्रम नहीं है। केन्द्र और राज्य दोनों के ही पास दस साल का समय था लेकिन इसे साफ करने के लिए कुछ नहीं किया गया। अब भी इसका कोई ठोस कार्यक्रम सामने नहीं आ रहा है।
गाड़ियों की बढ़ती संख्या, ट्रैफिक जाम, खराब सड़कें, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं का नाकाफी होना, दिल्ली की समस्याओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है। लेकिन इस सबसे बड़ी समस्या यह है कि दिल्ली की राजनीति इनसे मुक्ति की कोई उम्मीद नहीं बंधाती। पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दावा करते हैं कि उन्होंने दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव कर दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि आप ने दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था को तबाह कर दिया।
सच जो भी हो, इस तरह के नैरेटिव का इस्तेमाल अक्सर मतदाताओं को मूल समस्याओं से भटकाने के लिए होता है। दिल्ली के राजनीतिक माहौल में फिलहाल इसके अलावा कुछ और नहीं है। यहां के वाशिंदों को सिर्फ वादे मिल रहे हैं जिन्हें पूरा करने की नीयत किसी की नहीं है।
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