विचार

राम पुनियानी का लेखः आरएसएस की अमेरिका में लॉबिंग, आखिर क्यों पड़ी अपनी छवि सुधारने की जरूरत?

द प्रिंट और कई अन्य स्त्रोतों ने खबर दी है कि समाचार सेवा "प्रिज्म" द्वारा की गई पड़ताल के मुताबिक इस फर्म को अमेरिकी सीनेट, हाऊस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव्स और अमेरिकी अधिकारियों के बीच आरएसएस की लॉबिंग करने के लिए 3.30 लाख डालर दिए गए हैं।

आरएसएस की अमेरिका में लॉबिंग, आखिर क्यों पड़ी अपनी छवि सुधारने की जरूरत?
आरएसएस की अमेरिका में लॉबिंग, आखिर क्यों पड़ी अपनी छवि सुधारने की जरूरत? फोटोः सोशल मीडिया

आरएसएस के शताब्दी वर्ष में इस संगठन के बारे में एक ऐसा तथ्य सामने आया है जिसकी जानकारी बहुत लोगों को नहीं थी। कई यूट्यूब चैनलों पर चर्चा है कि आरएसएस ने अमेरिका में एक लॉबिंग फर्म की सेवाएं लेना शुरू की हैं। दिलचस्प बात यह है कि यही फर्म पाकिस्तान के लिए भी लॉबिंग कर रही है। स्मरणीय है कि नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तब उन्होंने भी अपनी छवि उजली बनाने के लिए एक फर्म की सेवाएं लीं थीं। "वाशिंगटन स्थित फर्म एपीसीओ वर्ल्डवाईड को अगस्त 2007 में अहम विधानसभा चुनाव के ठीक पहले दुनिया के सामने मोदी की छवि बेहतर बनाने के लिए नियुक्त किया गया था।‘‘

संयोग की बात है कि एपीसीओ, जो एक अमेरिकी कानूनी फर्म की सहायक फर्म है, ने कई तानाशाहों की छवि सुधारने का काम भी किया था। यहां तक कि इस फर्म की सेवाएं लेने वाले देशों के लिए जब-जब जंग फायदे का सौदा नज़र आई, तब उसने जंग के पक्ष में भी अभियान छेड़े थे। ऐसा लगता है कि लॉबिंग छवि को उजला बनाने के अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। लॉबिंग से "सही सामूहिक समझ" निर्मित होती है और "सहमति का उत्पादन" करने में मदद मिलती है। 'सहमति के उत्पादन' का सिद्धांत प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता नोएम चोमोस्की ने प्रतिपादित किया था।

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"द प्रिंट" और कई अन्य स्त्रोतों ने खबर दी है कि समाचार सेवा "प्रिज्म" द्वारा की गई पड़ताल के मुताबिक इस फर्म को अमेरिकी सीनेट, हाऊस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव्स और अमेरिकी अधिकारियों के बीच आरएसएस की लॉबिंग करने के लिए 3.30 लाख डालर दिए गए हैं। इस अमेरिकी समाचार सेवा ने जो जानकारियां जुटाई हैं, उनके मुताबिक 2025 की तीन शुरूआती तिमाहियों के दौरान इस रकम के एक बड़े हिस्से का भुगतान किया गया। प्रिंट द्वारा देखे गए कई सार्वजनिक दस्तावेजों से पता लगता है कि आरएसएस ने 3 मार्च से इस फर्म के सेवाएं लेना शुरू किया"।

इस धनराशि का स्त्रोत क्या है? आरएसएस एक अपंजीकृत संस्था है और उसका दावा है कि उसकी आय का एकमात्र स्त्रोत ‘गुरू दक्षिणा‘ है! एक अपंजीकृत संस्था द्वारा अमेरिका में बड़ी रकम खर्च करना आम घटना नहीं है। आरएसएस के श्री अंबेकर ने इस खबर का खंडन किया है, मगर यह जानकारी कंपनियों की आधिकारिक वेबसाईटों और अमेरिकी सीनेट की वेबसाईट पर भी उपलब्ध है। वह इसलिए क्योंकि अमेरिका में कंपनियों के लिए विदेशी स्त्रोतों से प्राप्त राशि की घोषणा करना अनिवार्य है।

इसके पहले इस अपंजीकृत संस्था की जांच आयकर से जुड़े मामलों में की गई थी। इसके प्रकरण की जांच करने वाले न्यायाधिकरण ने कहा था, "गुरू दक्षिणा की परंपरा कृतज्ञता के जिस पवित्र भाव पर आधारित है, उसे महसूस करते हुए न्यायाधिकरणों ने आरएसएस द्वारा इस तरह एकत्रित की गई धनराशि पर कर में छूट दी थी।" किंतु गुरु दक्षिणा का मूल चरित्र उस समय पूरी तरह से बदल जाता है जब ‘गुरू‘ इस निधि का इस्तेमाल एक विदेशी संस्था को एक विदेशी सरकार में अपनी लॉबिंग करने के लिए करता है। ..तब भी जब हम ‘लॉबिंग‘ की व्याख्या विदेशी सरकारी अधिकारियों को ‘शिक्षित‘ करने के रूप में करें‘‘।

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आखिर लोगों को बांटने वाली यह संस्था- जो कुछ साल पहले तक साईलेंट मोड में काम करने में भरोसा रखती थी- को अमेरिकी कंपनी की सेवाएं लेने और किसी मध्यस्थ के जरिए उसे अमेरिकी नीति निर्धारकों और वहां की जनता के समक्ष अपनी छवि बनाने के लिए धनराशि का भुगतान करने की जरूरत क्यों पड़ी? तथ्य यह है कि आरएसएस-भारतीय जनसंघ-बीजेपी की नीतियां मोटे तौर पर सदैव और विशेषकर 1950 और 1960 के दशकों में अमेरिकी नीतियों के अनुरूप रही हैं। इन्होंने अमेरिका के वियतनाम पर हमले का समर्थन किया, दुनिया के विभिन्न स्थानों पर अमेरिकी आक्रमणों को सही बताया और उस दौर में भारत सरकार पर अमेरिका-समर्थक नीतियां अपनाने का दबाव डाला जब भारत गुटनिरपेक्ष था और सोवियत रूस, जिसे पश्चिम अपना पक्का दुश्मन मानता था, समेत कई देशों की मदद से आधुनिक संस्थानों की स्थापना कर लाभान्वित हो रहा था।

कई भारतीय, जो देशभक्त होने का ढोंग करते हैं लेकिन डॉलर के लालच में अमेरिका में बसे हुए हैं, अपने मूल देश के संस्कारों को बचाए रखने और अपनी नई पीढ़ी में ये संस्कार डालने हेतु इस दक्षिणपंथी संस्था के समर्थक हैं और थे। इनमें से कई घोर आरएसएस-बीजेपी समर्थक अमेरिका में उच्च राजनैतिक पदों पर आसीन हैं। ऐसे में इस तरह की लॉबिंग की जरूरत ही क्या है?

बात यह है कि कुछ नए हालात पैदा हुए हैं जिनके चलते यह संस्था ऐसा करने को बाध्य हुई है। पहला यह है कि आरएसएस स्वयं को अमेरिका-समर्थक के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है। यह इस तथ्य के बावजूद कि हाल में भारत कई मामलों में अमेरिकी विदेश नीति का अनुसरण नहीं कर रहा है।

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इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि कई अमेरिकी संस्थाएं, जो सरकार का हिस्सा नहीं हैं या सारे विश्व में मानवाधिकारों की स्थिति की निगरानी करती हैं, भारत में मानवाधिकारों के हनन पर रोशनी डाल रही हैं और आरएसएस के असमानता-समर्थक रवैये की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करा रही हैं। आरएसएस, हिन्दू स्वयंसेवक संघ (एचएसएस) के नाम से अमेरिका में सक्रिय है। भारतीय मूल के हिन्दुओं की एक अन्य संस्था है ‘हिन्दूज़ फॉर ह्यूमन राईट्स' जो उदार मूल्यों की पक्षधर है।

अमेरिका में कार्यरत कई अन्य संगठन भी संघ परिवार की कारगुजारियों पर विस्तृत रपटें जारी कर रहे हैं। द इंडियन रिलीजियस फ्रीडम रिपोर्ट 2024 में भारत में घटती हुई धार्मिक स्वतंत्रता का विवरण दिया गया है। "सन् 2023 में भारत में धार्मिक स्वतंत्रता में कमी आने का क्रम जारी रहा। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने भेदभावपूर्ण राष्ट्रवादी नीतियों को मजबूती दी, नफरती बातों को हवा दी और सांप्रदायिक हिंसा पर रोक नहीं लगाई। इस सांप्रदायिक हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित मुसलमान, ईसाई, सिख, दलित, यहूदी और आदिवासी हुए। गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए), विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए), नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) व धर्मान्तरण और गौवध से संबंधित कानूनों का इस्तेमाल मनमाने ढंग से लोगों को हिरासत में लेने के लिए किया गया। धार्मिक अल्पसंख्यकों और उनके हकों की बात करने वालों को निशाना बनाया गया।" (यूएस कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम– यूएससीआईआरऍफ़ की रिपोर्ट से)।

प्रतिष्ठित रगर्स सेंटर फॉर सिक्यूरिटी ऑफ़ रेस एंड राइट्स ने डेनवर और कोलंबिया विश्वविद्यालयों के अध्येताओं के सहयोग से नफरत, सांप्रदायिक राष्ट्रवाद और हिंसा फैलाने में संघ परिवार की भूमिका पर एक विस्तृत रपट तैयार की है। यह संस्था 9/11 (2001) के हमले के बाद से ही मुस्लिम, अरब और दक्षिण एशियाई समुदायों के हालात पर नज़र रख रही है। ये समुदाय उस हमले के बाद से ही भेदभाव और पूर्वाग्रहों के शिकार रहे हैं। विविधताओं से भरे इन समुदायों के बारे में जानकारी के अभाव के चलते, उनकी गलत छवि प्रस्तुत की जा रही हैं, उन्हें एकसार बताया जा रहा है और उन्हें और इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ा जा रहा है।

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द सेंटर फॉर सिक्यूरिटी, रेस एंड राइट्स, धर्म और नस्ल से परे, अरब, अफ़्रीकी और दक्षिणी एशियाई मूल के लोगों के प्रति नफरत और डर के भाव और इस्लामोफोबिया के मूल में जो संरचनात्मक और प्रणालीगत कारण हैं, उनसे निपटने के लिए काम कर रही है। इसकी रिपोर्ट में अमेरिका में हिंदुत्व की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है, विशेषकर इस दृष्टि से कि हिंदुत्ववादी गतिविधियां किस तरह समानता और बहुवाद के लिए नस्लीय-राष्ट्रवादी खतरा हैं। यह बताती है किस तरह मुसलमानों और अरबों का दानवीकरण हो रहा है और उनके बारे में किस तरह की नफरती बातें कही जा रही हैं।

अमेरिका में भी हिंदुत्व चिंता का विषय है। इस रपट में हिन्दुत्ववादियों की उनके एजेंडा से जुड़ी गतिविधियों को उजागर किया गया है। रपट में बताया गया है कि किस तरह हिन्दू राष्ट्रवादी समूह अमेरिका में हिन्दू धर्म के संकीर्ण और राजनीति पर आधारित संस्करण को बढ़ावा दे रहे हैं।  इसके अलावा, हिन्दुत्ववादी, ऊंची जातियों के वर्चस्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकार हैं और अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णुता का भाव रखते हैं।

यह महत्वपूर्ण रपट, एचएचएस और व्हीएचपीए जैसी संस्थाओं की भूमिका पर प्रकाश डालती है, जो बाल विहार और बाल गोकुलम जैसे समर कैंपों और युवाओं के लिए कार्यक्रमों का इस्तेमाल बच्चों के मन में हिंदुत्व के मूल्य बिठाने के लिए करते हैं। वे उनके मन में गैर-हिन्दुओं के प्रति पूर्वाग्रह पैदा कर रहे हैं और जातिगत ऊंचनीच को मजबूती दे रहे है। इस तरह की रपटों और अमेरिका में हिंदुत्व के बढ़ते विरोध के चलते ही शायद आरएसएस को अपनी छवि सुधारने के लिए लॉबिंग फर्म की सेवाएं लेने की ज़रुरत पड़ी है।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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