कांग्रेस सत्ता में रहे या नहीं, कांग्रेस-विरोधी भावना पहेलीनुमा ढंग से मजबूत और सक्रिय राजनीतिक एजेंडे के तौर पर बनी रहती है। बीजेपी प्रवक्ता और टीवी एंकर हर वक्त कांग्रेस पर सवाल उठाने की जरूरत महसूस करते हैं। तब भी जबकि पार्टी के पास लोकसभा में इतना भी संख्याबल नहीं कि उसे मुख्य विपक्षी दल का दर्जा दिया जा सके और बीजेपी और एनडीए में उसके सहयोगियों का संसद के दोनों सदनों में लगभग पूर्ण नियंत्रण है। वैसे, यह भी विडंबनापूर्ण ही है कि कांग्रेसवाद विरोध पर जोर देते हुए बीजेपी कांग्रेस नेताओं या पार्टी की नीतियों पर कोई खास दुर्भावना नहीं रखती, वास्तविक वाद-विवाद में अपना विष वह सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार के लिए बचाए रखती है।
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बड़े और सच्चे कांग्रेस नेता वल्लभभाई पटेल की दुनिया भर में सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित करने में बीजेपी को कोई दिक्कत नहीं हुई। संघ परिवार कांग्रेस नेताओं और पूर्व प्रधानमंत्रियों- लाल बहादुर शास्त्री और पीवी नरसिंह राव के प्रति गहरा आदर रखता है। शास्त्री जी निश्चित तौर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू के उत्तराधिकारी थे। और हालांकि राव के आर्थिक उदारवाद की नीतियों की बीजेपी विरोधी थी और उस वक्त उसने उनकी निंदा की थी, लगभग 25 साल बाद उनकी नीतियों की प्रशंसा करने में उसे कोई समस्या नहीं है।
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बीजेपी को कांग्रेस कार्यकर्ताओं और ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर राधाकृष्ण विखे पाटिल-जैसे नेताओं- चाहे वे स्थानीय हों या राष्ट्रीय- को अपनी पार्टी में शामिल करने में कोई समस्या नहीं है। कांग्रेस छोड़कर आने वाले लोगों को बीजेपी अपने वरिष्ठ नेताओं की कीमत पर भी चुनाव लड़ने के लिए टिकट बांटते समय तवज्जो दे देती है। लेकिन कांग्रेस की कठोर आलोचना और कांग्रेस-मुक्त भारत के इसके नारे में कभी कोई कमी नहीं आती। इस तरह के पाखंड और असंगति की क्या व्याख्या है?
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सच्चाई यह है किये लोग कांग्रेस नहीं बल्कि जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस की नेहरूवादी परंपरा से विद्वेष रखते हैं और उसके विरोधी हैं। बीजेपी ने श्रीमती इंदिरा गांधी की पुत्रवधू श्रीमती मेनका गांधी और उनके पुत्र को भी बीजेपी में रखा हुआ है- इस तथ्य के बावजूद कि 1970 के दशक में जनसंघ के मुख्य राजनीतिक निशाने पर संजय गांधी और मेनका थे। इसी तरह, बीजेपी ने नेहरू उपनाम होने के बावजूद अरुण नेहरू को अपना लिया और सिर्फ यही अलिखित शर्त थी कि वे नेहरूवादी परंपरा को तोड़ेंगे या उसकी निंदा करेंगे।
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इसीलिए इन लोगों की शत्रु कांग्रेस नहीं बल्कि इसकी नीतियां और पंडित जवाहरलाल नेहरू के सिद्धांत हैं। ये लोग कांग्रेस-मुक्त नहीं बल्कि नेहरू-परंपरा-मुक्त भारत चाहते हैं। यहां तक किये लोग महात्मा गांधी की भी परवाह नहीं करते जिनसे इन लोगों ने आजादी के आंदोलन के दौरान सबसे अधिक घृणा की। गांधीजी स्वच्छ भारत अभियान में लोगों या प्रतीक के तौर पर उपयोग किए गए अपने चश्मे के साथ उनके ब्रांड एम्बेसेडर तक बन गए हैं। गांधी जी को पाखंडपूर्ण तरीके से आत्मसात करना नेहरू को नीचा दिखाने की धूर्त रणनीति है। आजादी के छह महीने के दौरान (और भारतके गणतंत्र बनने से दो साल पहले) इन्हीं हिंदुत्ववादी शक्तियों ने गांधी जी की हत्याकर दी थी। लेकिन अगले लगभग 60 साल तक नेहरूवादी विचार ही था जो भारतीय राजनीति में प्रबल रहा।
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वामपंथियों, खास तौर पर कुछ कम्युनिस्टों ने भी नेहरू की निंदा की जबकि समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने इस भावना का समर्थन किया और घृणा की ऐसी सख्त, नेहरूवादी-विरोधी राजनीति को मजबूत किया जिसे वामपंथी-बौद्धिक स्वीकारोक्ति मिली। कई बौद्धिकों, लेखकों और एनजीओ ने अपनी स्वायत्तता प्रदर्शित करने के लिए फर्जी और अवसरवादी नेहरू-विरोधी लाइन का चयन किया। इसने उन्हें यह ढोंग करने मंे मदद दी कि वे कांग्रेस, लुटियन्स दिल्ली और नेहरू के आकर्षण से दूरी बनाकर रखते हैं।
वे लोग कई दफा यह स्वीकार करने में अनिच्छुक रहते हैं कि खुद नेहरू वैज्ञानिक तेवर के साथ अत्यंतसंशयी, समाजवादी तरीके पर दृढ़ आस्था रखने वाले थे और उन्होंने खुद को भी कभी नहीं छोड़ा। दक्षिणपंथियों ने उन्हें सोवियतसंघ का समर्थक और समर्पित समाजवादी कहा जबकि कम्युनिस्टों और समाजवादियों ने पूंजीवाद के चतुर छद्म आवरण में मिश्रित अर्थव्यवस्था के लिए उनके विचार की आलोचना की।
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कांग्रेसवाद विरोधी राजनीति की आधारशिला और उसकी रणनीतिक रूपरेखा राम मनोहर लोहिया ने 1967 में रखी। उनके निधन के बाद भी लोहियावाद गूंजता रहा और 1970 के दशक में यह प्रबल राजनीतिक दौर बन गया। 1967 और 1972 के बीच इस आधार पर विभिन्न गठबंधन और मोर्चे बनते रहे। कम्युनिस्ट बांग्ला कांग्रेस और फॉरवर्ड ब्लॉक के सहयोगी बने, अकालियों ने जनसंघ के साथ हाथ मिलाए, समाजवादी राम राज्यपरिषद और आर्यसमाजियों के साथ आए। इस तरह की और भी बातें हुईं। अपने आंतरिक विरोधाभासों के भार में ये सभी बिखर गए।
जनसंघ, स्वतंत्रपार्टी, समाजवादियों और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से टूटेधड़े- कांग्रेस (संगठन) जिसे ओल्ड गार्ड (सिंडिकेटभी) कहा गया, के तथाकथित महागठबंधन ने 1971 लोकसभा चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को चुनौती दी। यह ऐसा पहला मध्यावधि चुनाव जो राज्य विधानसभा चुनावों से अलग हुआ। तब तक, सचमुच, एक देश-एक चुनाव होता था- 1952, 1957, 1962 और 1967 में ऐसा ही हुआ था। पांच साल का यह चक्र तब टूटा जब कथित कांग्रेस विरोधी मोर्चे की सरकारें उत्तर प्रदेश और बिहार से लेकर मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल तक विभिन्न राज्यों में गिर गईं और मोर्चा बिखर गया। तब से, राज्यों और केंद्र में चुनावी चक्र अलग-अलग समय पर चलने लगे।
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1971 का लोकसभा चुनाव सिद्धांत और राजनीतिक दस्तूर के तौर पर कांग्रेसवाद-विरोध की वास्तविक परीक्षाबन गया। इस महागठबंधन में समाजवादियों और कांग्रेस के परंपरागत समर्थकों जो बुजुर्गों के विश्वस्त थे, के अलावा आरएसएस-नेतृत्ववाले जनसंघ का राष्ट्रव्यापी नेटवर्क था। जयप्रकाश नारायण से भी ये लोग विचार-विमर्श करते रहते थे। इन लोगों की सोच थी कि इंदिरा गांधी और उनकी नई बनी कांग्रेस के पास न तो धन है, न संगठन, न कार्यकर्ताऔर पूरा मीडिया (तब सिर्फ प्रिंट मीडिया था) उनके प्रतिवैरी-भाव रखता है। पार्टी में टूट के बाद इंदिरा गांधी की सरकार 1971 में एक किस्म की अल्पमत सरकार थी- उनके साथ 150 से भी कम सांसद थे। उनकी सरकार कथित वाम-समर्थन से बची जिसने बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवीपर्स को समाप्त करने का समर्थन किया था। वस्तुतःउनलोगों ने तब इंदिरा गांधी का समर्थन किया था क्योंकि उनकी प्रमुख दुश्मन कांग्रेस टूट रही थी और वे उसके पीछे छूट जाने वाली राजनीतिक जगह भरने की आशा कर रहे थे।
उस वक्त दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूटऑफ पब्लिक ओपिनियन को छोड़कर और कोई जनमत सर्वेक्षण नहीं करता था। इसके सर्वेक्षण ने महागठबंधन को स्पष्ट जीत की बात कही। प्रमुख स्तंभकार पहले पन्ने पर विश्लेषणात्मक कॉलम लिखकर बता रहे थे कि श्रीमती इंदिरा गांधी की तथाकथित लोकप्रिय छवि सिर्फ भ्रम है और जैसे ही परिणाम आएंगे, वास्तविकता सामने आ जाएगी। जब परिणाम आए, तो इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को शानदार भारी बहुमत वाली जीत मिली थी और कांग्रेस विरोधी दलों के पैर उखड़ गए थे। साफ लगा कि कांग्रेस वाद-विरोध सैद्धांतिक जोड़ या राजनीतिक विकल्प के तौर पर नहीं चलेगा।
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यह ध्यान रखने की बात है कि बीजेपी बनने से पहले जनसंघ के जमाने से ही यह भगवा पार्टी हर उस गठबंधन में शामिल हो जाती रही है जहां उसे जरा भी मौका मिलता है। 1971 के बाद 1974 में जेपी आंदोलन में इसने अपना कंधा लगा दिया। 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया और उसके लोग सत्ता में आ गए। जब जनता पार्टी बिखर गई और बीजेपी बनी, तो शुरुआती वर्षों में इनके पास कुछ नहीं था। राजीव गांधी विरोधी आंदोलन में बीजेपी शामिल हो गई और बाद में 1989 में इसने वीपी सिंह सरकार को समर्थन दे दिया। 2008-09 में डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के मुद्दे पर इसने अन्य गैर कांग्रेसी दलों के साथ संसद में अच्छा तालमेल किया। यह कहा जा सकता है कि यह संघ परिवार ही है जिसने कांग्रेस विरोधी और लोहिया, जेपी, जार्जफर्नांडीस, वी.पी. सिंह, नीतीश कुमार, यहां तक कि मुलायम सिंह, कांशीराम और मायावती की समाजवादी- केंद्रित राजनीति का चतुराई के साथ अपने पक्ष में उपयोग किया है।
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नरेंद्र मोदी के खास तौर पर और बीजेपी के आम तौर पर कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार पर आक्रामक रहने की वजह यह है कि वे जानते हैं कि कांग्रेस की वास्तविक ताकत नेहरू की विरासत है। बीजेपी नेतृत्व इस बात से परिचित है कि हिंदुत्व का उसका विचार सिर्फ मुखौटा है। इसका दूरगामी राजनीतिक भविष्य नहीं है और इससे देश का विकास तो कतई संभव नहीं है।
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