विचार

मृणाल पाण्डे का लेखः अपने पैर कुल्हाड़ी मारने वाली सरकारी जिद और भौंचक्का खड़ा देश

वर्तमान में देश में सत्तारूढ़ सरकार की शुरुआत में कई बार यह जुमला सुना गया था कि हम उस युग की तरफ बढ़ रहे हैं जहां जनजीवन में सुशासन को ही प्राथमिकता मिलेगी और सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम होगा, पर इधर जो हो रहा है, वह उस दावे को खोपड़ी के बल खड़ा करता है।

इलस्ट्रेशनः अतुल वर्धन
इलस्ट्रेशनः अतुल वर्धन 

भूतपूर्व हलचलों वाला साल 2019 विदा ले रहा है। अफसोस यह नहीं, कि साल का अंत भारत की जनता को इतना संसाधनविहीन, असहाय और भौंचक्का छोड़े जा रहा है, बल्कि यह, कि सारी दुनिया में ही मानो लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे को बेदर्दी से तोड़े जाने की शुरुआत हो गई है। विश्व के सबसे ताकतवर दो देशोंः अमेरिका और रूस में दो बदजुबान और दबंग शासक अपनी-अपनी तरह से उस विश्व व्यवस्था की जड़ में मट्ठा डाल रहे हैं, जो दो-दो भीषण विश्व युद्धों के खात्मे के बाद दुनिया को साझा हित स्वार्थों का एक तंत्र रचकर सामूहिक येन-केन आत्महत्या से बचाए रही।

मानो यही कम न था। अमेरिकी राष्ट्रपति के नाना विवादास्पद कामों से आजिज होकर उनके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव ला रखा गया जिसे सबको चौंकाते हुए हाउस ने पारित कर दिया। यद्यपि मामला बाद को उस सेनेट तक जाएगा जहां राष्ट्रपति की पार्टी का बहुमत है। लेकिन फिलवक्त बंदूक और धन को कुलदेवता की तरह पूजने वाले महाबली ट्रंप अमेरिका में महाभियोग तले खड़े तीसरे राष्ट्र प्रमुख बनने का शर्मनाक ठप्पा पा गए हैं, जो लगता नहीं अगले बरस के चुनावों तक उनका साथ छोड़ेगा।

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इसी बीच ब्रिटेन में दोबारा ब्रेक्जिट के उत्कट समर्थक दक्षिणपंथी बोरिस जॉनसन अपना चूल्हा अलग कर यूरोपीय साझा संघ के विघटन की शुरुआत करने जा रहे हैं। मध्य एशिया में बुश (पिता-पुत्र) ने जो भीषण गृहयुद्ध के प्रेत जगा दिए थे, वे और भी भयावह खूनी रूपों में वहां बार-बार गठित लोकतांत्रिक सरकारों को आतंकी समूहों की मदद से जिबह करते जा रहे हैं। अमेरिका और रूस अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय पटल पर इन छोटी लड़ाइयों में या तो सीमित हस्तक्षेप कर रहे हैं या हाथ खींच चुके हैं। फिर भी हथियारों की लॉबी मालामाल है क्योंकि इन दोनों देशों में बनने वाले हथियारों से जुनूनी कट्टरपंथिता से निबटते हुए सीरिया से तुर्की तक के चुने गए शासक भी लैस रहना चाहते हैं।

मध्य एशिया में मखमली इंटरनेट क्रांति की विफलता, हांगकांग से चीनी मुस्लिम बहुल प्रांतों तक नृशंस राजकीय दमनकारिता और जन भागीदारी वाले मीडिया पर रोक की ऐसी कई और दास्तानें आप कहीं और पढ़िए। लेकिन व्यक्तिश: यह लेखिका विस्मित है कि आजकल खुद हमारे मुल्क के राजकीय गलियारों में लोकतंत्र और मीडिया के साथ क्या सुलूक हो रहा है? सत्तारूढ़ सरकार की शुरुआत में कई बार यह जुमला सुना गया था कि हम उस युग की तरफ बढ़ रहे हैं जहां जनजीवन में सुशासन को ही प्राथमिकता मिलेगी और सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम रहेगा (मैक्सिमम गवर्नेंस- मिनिमम गवर्नमेंट)। पर इधर जो हो रहा है वह उस दावे को खोपड़ी के बल खड़ा करता है।

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वाजिब कर चुकाने और बैंक को अपना सारा गाहक प्रोफाइल (केवायसी की मार्फत) देने के बाद भी हम बैंक में जमा अपनी कमाई से कितना कैश कब-कब निकालें, किस तरह निकालें, जहां तक संभव हो सिर्फ डिजिटल खरीदारी करें (जिसके लिए कुछ खास कंपनियों का नामोल्लेख भी किया गया है), यहां तक कि कितनी नगदी घर में रख सकते हैं, इस सब की बाबत सरकार नागरिकों को अचानक नित नए आदेश देने लगी है। भय और आतंक का माहौल बनाकर कहा जा रहा है कि राजकीय नियामक संस्थाओं की छापेमारी से कोई नहीं बख्शा जाएगा और इस क्रम में पड़ोसियों को भी खुफियागिरी को प्रोत्साहित कर उनकी निशानदेही पर घरों में घुसकर संदिग्ध जनों पर छापे डाले जा सकते हैं।

सरकार की मौजूदगी को कम करने की बजाय उसको अगर इतना खौफनाक और जनसामान्य के जीवन को दिन-रात ताबड़तोड़ राजकीय हुक्मनामों पर भारी हद तक निर्भर बना दिया जाए, तो राज्य के संस्थागत ढांचे पर अचानक बेपनाह बोझ पड़ेगा ही। पर इस भयदोहन के बाद भी तमाम सरकारी सशस्त्र खुफिया दस्ते, विभागीय छापामारी और मिले माल की कानूनी पड़ताल के संयंत्र पस्त हाल ही नजर आते हैं। नोटबंदी की ही तरह पूर्व तैयारी के अभाव में असम में करोड़ों खर्च करके भारी सरकारी अमले की मदद से बनवाया गया नागरिक पंजीकरण भी एक अमान्य सरकारी कवायद साबित हुआ है, जिसने 20 लाख लोगों को बाहर छोड़ दिया। और नागरिकता की अर्हता मीयाद 1971 से हटाकर 2014 कर देने से बाहरी राज्यों से भारी घुसपैठ से आशंकित असम धरने पर है, और इस कदम से असमिया हितैषी कहती न थकती सरकार भौंचक्की!

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जेएनयू तथा जामिया जैसी केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थाओं की तरह सरकार के सामने अपने संस्थानों के परिसर की रक्षा में लगातार अक्षम साबित हुए कुलपतियों की साख बहाली बहुत जल्द नहीं हो सकेगी जबकि उनके यहां बरसों से तदर्थवादी आधार पर पढ़ाते आ रहे शिक्षक भी लामबंद होकर विरोध जताने सड़कों पर हैं। नोटबंदी के बाद तो यह साफ हो ही गया था कि भारी तादाद में काली कमाई को सफेद बनाकर बैंकों में डाला गया है। यानी कालेधन वालों की जुगाड़ क्षमता कम नहीं हुई, उल्टे विवादास्पद चुनावी बॉन्ड योजना ने भी (आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार) राजनीतिक दलों को उपकृत करने वाले दुनियादार थैलीशाहों ने अपनी कुल काली कमाई को बड़ी सुथराई से रातों-रात सफेद कर लिया है।

सघन सरकारी निगरानी की ऐलानिया घोषणाओं के बाद भी इस साल जीएसटी की मार्फत अपेक्षित से कहीं कम कराधान की एक वजह यह भी है कि कई लोगों ने इस बीच रातोंरात घूस देने के नए ठौर भी खोज लिए हैं। बहुप्रचारित ‘उज्वला’ योजना में भी खुद सरकारी कैग रपट ने कुछेक लाभान्वित परिवारों के पते नदारद होने और कुछ को 20 तक सिलेंडर एकमुश्त दिए जाने जैसे कई छेद उजागर किए हैं, जिनसे साफ लगता है कि गरीब परिवारों को सब्सिडी वाली ऊर्जा के आवंटन में सब कुछ साफ-सुथरा नहीं रहा है।

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प्याज के छिलकों की तरह फिलहाल नागरिकता संशोधन कानून के पारित होने के बाद से शुरू घटनाक्रम में परत के नीचे तमाम उलझाने वाली परतें हैं। बिना विपक्ष से लंबी बातचीत के, पहले बिल के भारतीय संविधान की मूल आत्मा पर पड़ने जा रहे गंभीर फलादेशों पर संसद में कोई गंभीर बहस करने, या उसको पहले स्थायी संसदीय समिति को भेजने के विपक्षी प्रस्ताव का खारिज किया जाना, गृहमंत्री की बंगाल से झारखंड तक मुस्लिम शरणार्थियों की बाबत थर्राने वाली घोषणाएं करना, फिर यह कहना कि नागरिकता रजिस्टर सारे देश में लागू होके रहेगा और उसका कोई विरोध नहीं कर सकता, क्योंकि धर्माधारित पहचान का मुद्दा सदा के लिए सुलझाने वाला कानून बन चुका है, फिर प्रधानमंत्री का कहना कि रजिस्टर तो मूलत: असम के ही लिए बनाया गया था (जो अब उसे खारिज कर रहा है), सहयोगी दल शिवसेना का बीजेपी से गहराता मनमुटाव यह सब चकराने वाले प्रकरण अभी भी जारी हैं।

इस बीच की गईं कई सरकारी पहलों से यह भी लगातार दिखता रहा कि अमीरों से नाराजगी और किसानों को लेकर सत्ता के हियों में घनीभूत पीड़ा होने की बातें सिरे से पोच हैं। फिर अर्थनीति और प्रशासन इन दोनों की ही नाव मंझधार में डुबोने का असल जिम्मेवार जनता किसे माने? गौरतलब है कि मुख्यधारा के मीडिया में मनों कागज और टनों सियाही, दर्जनों घंटे पैनल और बतकही में सरकारी पक्ष को सही साबित करने में खर्च हो रहे हैं, जबकि सोशल मीडिया जो जमीनी छवियां देख और दिखा रहा है, उसके खोजी संगठन जिस तरह अल्पसंख्य समुदाय के खिलाफ हो रही बयानबाजी को शरारतपूर्ण सिद्ध कर चुके हैं।

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अफसोस यह, कि इस बात पर कहीं बहस नहीं कि नागरिकता का रायता फैलाने से पहले के सरकार के शुरुआती अन्य जनहितकारी कार्यक्रमोंः स्वच्छ भारत, गंगा सफाई, स्मार्ट सिटी और मेक इन इंडिया का कोई सिलसिलेवार वैज्ञानिक आकलन अब तक सामने क्यों नहीं आया? इस सबसे आशंका सर उठाएगी ही, कि इन तमाम आकर्षक कार्यक्रमों और योजनाओं के पीछे कोई सुनियोजित सरकारी खाका नहीं, बल्कि मीडिया की मदद से पिछवाड़े से सेंध लगा अपने हाथों में बेपनाह ताकत बटोर लेने की वही पुरानी उद्दाम महत्वाकांक्षा है, जिसकी वजह से वह नियम बहुल अड़ंगेबाज नेता-बाबू-इंस्पेक्टर राज फला-फूला है जिसने सत्ता में काले धन को लगातार पोसा और गरीबों के पेट पर लात मारी है।

मान लें कि भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए सरकारी निगरानी तंत्र के हाथ मजबूत करना जनहित में जरूरी है, लेकिन सवाल है कि क्या बढ़ते सांप्रदायिक तनावों और सीमा की (खुद सरकार द्वारा घोषित) घुसपैठ रोकने के लिए जो सरकार की आंख-कान संस्थाएंः पुलिस, जांच एजेंसियां, दंडाधिकारी और न्यायपालिका के तंत्र में वाजिब सुधार होने जरूरी थे, वे नए अंधड़ छोड़ने से पहले किए गए? क्या लंबे समय से रिक्त पदों को भरा गया? नाकाफी वेतनमानों और कार्यक्षेत्र की बेहतरी के लिए उपलब्ध जांच रपटों के आधार पर कोई बड़े कदम उठाए गए? जवाब है नहीं।

सो एक बीमार तंत्र के सहारे जिसे सर्वोच्च न्यायालय पिंजड़ा बंद तोता कह ही चुका है, एक कमजोर तकनीकी के बल पर (विशेषज्ञों की राय में ब्रॉडबैंड उपलब्धि तथा सर्वरों की हालत हर कहीं एक सरीखी नहीं है, साइबर निगरानी कानून अर्द्धविकसित हालत में है, बैंकिंग व्यवस्था को पूरी तरह ऑनलाइन होना है) जब पढ़े-लिखे गाहकों या सत्ता में भी डिजिटल प्रणाली के लेन-देन तथा साइबर स्पेस की चोरियों तथा हैकर्स से धन की सुरक्षा की कोई गहरी समझ नहीं और अधिकतर गरीब खातेदार अंगूठा छाप हैं, एक बेहद संवेदनशील डिजिटल अर्थव्यवस्था को जबरन धुकाना कैसा? और सबसे बड़ा सवाल यह, कि चाबुक मारकर सारे शिक्षण संस्थानों, देशवासियों की निजी जमा जथा और सरकारी अचारिकताओं को रातोंरात डिजिटल बना देने के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर ‘इंटरनेट’ पर बार-बार रोक लगाने की अपने पैर कुल्हाड़ी मारने वाली सरकारी जिद कैसी?

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