अमेरिका के टैरिफ वॉर के जवाब में अचानक स्वदेशी प्रेम जाग गया। तब स्वदेशी के विचार और फलसफे को थोड़ा खंगालना बनता है। प्रसिद्ध इतिहासकार बिपन चंद्रा मानते थे कि भारत में अधिनायकत्व के खिलाफ सबसे पहले आर्थिक राष्ट्रवाद के लिए बोध तैयार हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में अंग्रेजों द्वारा लगाए गए तीन हजार गुना अधिक सीमा शुल्क, भारतीय कारीगरी, निर्यात पर गहरा असर कर गया। परिणामतः भारतीय कारीगरी, घरेलू उद्योग ठप पड़ गए। हम केवल कच्चे माल और तैयार माल के आवाजाही केन्द्र बनकर रह गए।
जब हुनरमंद कारीगर बेरोजगार हुए, विशेषकर कपड़ा बुनने वाले, करघा चलाने वाले, तब वे जमीन की तरफ लौटे। पर यहां पहले से ही लगान दरें ऊंची थीं। इंग्लैंड में बैठे भूमि स्वामी की बेगारी करनी पड़ती थी। इस लगान और सीमा शुल्क नीति से बंगाल की मानव निर्मित भुखमरी शुरू हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल की दीवानी यानी महसूल नीति का हक मिलने के पांच ही साल में 1770 की भयंकर भुखमरी में एक तिहाई लोग चल बसे।
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प्रतिरोध में कई किसान, सन्यासी फकीर विद्रोह, आदिवासी विद्रोह हुए और 1857 की जंग भी हुई। यह सैनिक छावनियों से शुरू जरूर हुई, मगर तमाम बेरोजगार हुए कारीगर और भूमिहीन हुए किसान ही सैनिक रूप में आजीविका हेतु भर्ती हुए थे। जब वहां भी भेद हुआ, तो विद्रोह फैल गया। यह विद्रोह असफल रहा, कोई केन्द्रीय नेतृत्व नही था। हिंसा भी बहुत हुई।
फिर करीब तीस साल छोटे-बड़े अन्य विद्रोह जरूर हुए। मगर सब स्थानीय रहे। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, वह भी देश भर के आम जनों की मुहिम नहीं हो पाई थी। उसका एक संगठन के तौर यह शैशव काल था। इस दौरान धीरे-धीरे अभिजात वर्ग में पाश्चात्य शिक्षा के कारण अनेक जागृति आई। स्वाभिमान की झंकार सुनाई देने लगी। असल में भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा तब तक विकसित नहीं हुई थी।
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पारसी समुदाय के व्यावसायिक हित प्रभावित हुए और उन्हें अंग्रेजों की भेदकारी नीति का सामना करना पड़ रहा था। बंबई बंदरगाह था और प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र भी था। पारसी व्यवसायी बहुत कुशल उद्यमी थे। आर्थिक भेद को भांप गए। इसकी परिणति में दादा भाई नौरोजी जैसे प्रखर चिंतक सामने आए और 'पॉवर्टी एंड अनब्रिटीश रूल ऑफ इंडिया' में उन्होंने अंग्रेजी भेद, दमन और लूट को आंकड़ों समेत प्रस्तुत किया।
यह आर्थिक स्वावलंबन, स्वाभिमान राष्ट्रवादिता की ओर बढ़ा। भेदकारी नीति के खिलाफ स्वदेश में उत्पादन की भी सोच जागृत हुई। ऐसे उत्पादक मिल फैक्ट्री अधिनायकत्व को चुनौती देने वाले थे। तमिलनाडु में यहां तक कि वी.ओ.चिदंबरम ने जहाज बनाने का उपक्रम तक कर डाला। उसके लिए कठोर कारावास भुगता। जमशेद जी टाटा ने जानते हुए विरोध स्वरूप अपने कपड़ा मिल का नाम स्वदेशी रखा।
इसी दौर में अंग्रेजी हुक्मरानों ने पुनः फूट नीति का आह्वान किया। जैसा कि 1857 के बाद भी किया था। कलकत्ता देश के औपनिवेशिक शासकों की राजधानी थी। तब बंगाल के सूबे में आज का बंगाल, बंगलादेश, बिहार, झारखंड ओडिशा शामिल थे। बंगाल में क्रांतिकारी सुगबुगाहट थी। तब बंग भंग का आदेश निकाला। सतही कारण क्षेत्र के प्रशासनिक कठिनाई को बताया गया। मगर असल में पूर्वी बंगाल के ढाका में कपास, मलमल की उत्तपत्ति और कलकत्ता में मिल होने से उत्पादक चक्र को तोड़ना था। हिन्दू ज़मींदार और मुस्लिम रैयत को जमीन के मुद्दे से इतर सांप्रदायिक भेद में उलझाना था।
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तब पहली बार स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ। हालांकि आम जन बहुत अधिक नहीं जुड़े। वे गांधी के आगमन के बाद के दौर में ही जुड़े। पर आंदोलन देश के बड़े भूभाग तक पहुंचा। हर तरफ विदेशी कपड़ों की होली जली। देशी उत्पादन की पहल हुई। तब के उद्योगपति सत्ता के मित्रों में से एक नहीं थे। उन्होंने ताकतवर का नहीं, स्वराज के बोध का साथ दिया। कालांतर में राजधानी बदली और बंग भंग का आदेश वापस लेना पड़ा। इस आंदोलन ने कुछ नायक दिए और भविष्य के असहयोग सत्याग्रह की नींव रखी।
स्वदेशी आंदोलन के चलते धीरे-धीरे भारतीय राष्ट्रवाद का उद्भव हुआ। गांधी ने स्वराज के प्रतीक स्वरूप चरखे को घर-घर से जोड़कर स्वावलंबन की बुनियाद तैयार की थी। स्वदेशी उनके एकादश व्रत में से एक है। ख्याल रहना चाहिए कि उनका स्वदेशी क्या था? स्वराज के लिए स्वदेशी माने देश को उत्पादकता हेतु तैयार करना। वह उपभोक्ता वादी सोच से कोसों दूर था। वह हर एक को काम से जोड़ने वाला अभ्यास था। वहां नफरत नहीं थी, करुणा और उद्यमिता थी। अन्याय के खिलाफ घुटने न टेकने की हिम्मत थी। वहां मैं और वह का भाव भी नहीं था।
जब गांधी के विदेशी कपड़ा विरोध से मैनचेस्टर की फैक्ट्री बंद पड़ी। मजदूर घर बैठने पर विवश हुए। इसका अहसास था कि गांधी के नेतृत्व में यह हो रहा है। पर गोलमेज सम्मेलन में गांधी उनके मोहल्ले में पूरे प्रेम के साथ रहे। माने स्वदेशी नफरत का औजार नहीं था। सामने वाले की भी पीड़ा को समझने, संवेदनशील होने और उसको सच्चाई से सहमत कराने का माध्यम था। स्वदेशी बिना सत्याग्रह के नहीं हो सकता।
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स्वदेशी शोषण को रोकने का माध्यम है, ताकि विकेन्द्रीकृत उत्पादन हो और उत्पादक तथा खरीदार की दूरी कम-से-कम हो। तब उत्पादन का लेबल नहीं, उत्पादक के काम के हालात पता होंगे। उनके प्रति संवेदनशीलता होगी। अन्याय के चक्र को रोका जा सकेगा। यह उपभोग आधारित नहीं, श्रम आधारित व्यवस्था होगी, जो स्वावलंंबन से जुड़ेगी। एक ऐसे समाज में जहां शारीरिक श्रम करने वाले अछूत माने जाते थे, वहां हरेक को श्रमोपजीवी बनाने की राह थी। शारीरिक श्रम को गरिमा और आजादी से जोड़ती थी। वह मात्र दो उद्योगपति दोस्तों को वित्तीय लाभ दिलाने का साधन नहीं है।
स्वदेशी एक पूरी जीवन शैली है। उसके लिए देश का होना बहुत जरूरी है। देश को लीलकर स्वदेशी नहीं हुआ जा सकता। राष्ट्र-राज्य और देश में अंतर है। राष्ट्र-राज्य में सीमा होती है, कोई दुश्मन भी होता है। देश में केवल सरहद होती है, जहां आवाजाही पर पहरा नहीं होता। देश लोगों से और उनकी नैसर्गिक समझ से बनता है। वह रणनीतिकारों के कागज पर नहीं बनता। उसमें मिट्टी का सौंधापन महकता है।
देश को तो लगातार हुक्मरान अधिग्रहित कर रहे हैं। देश तो विस्थापित हो रहे हैं। घर-घर के कारीगर, करघे, पसंदीदा उद्योगपतियों के आगे समिधा बन रहे हैं। ऐसे में यह समझ जरूरी है कि बड़े मॉल स्वदेशी नहीं हैं। छोटे घरेलू कामगार का सहकार स्वदेशी है। वरना आज तो राष्ट्र के भीतर राज्य की मेहरबानी से देश खत्म हो रहा है।
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वैश्विक स्तर पर भी कुछ बड़े अधिनायकों ने कागज पर कुछ नक्शे खींचकर अपनी सहूलियत के लिए हंसते-खेलते देश को भुखमरी के लिए गाजा पर छोड़ दिया। हमारे अपने जनसमूह का विस्थापन और क्या है? देश एक सभ्यता, तहजीब होती है जो सत्तापरस्त नेस्तनाबूद करते हैं। किसी राष्ट्र-राज्य की नींव तब मजबूत होगी, जब उसके भीतर देश आत्मा रूप में मौजूद होगी।
नेहरू के राष्ट्रप्रेम में उसी देश को जीवित रखने की खोज थी। तभी भारत के तहजीब का अन्वेषण किया। देश पितृसत्तात्मक नहीं होता। स्वदेशी में वे सब उद्योग थे जो परंपरागत तौर से महिलाएं करती थीं। स्वदेशी करुणा की भूमि है, वहां अहंकार नहीं। स्वदेशी के बाद गांधी के एकादश व्रत में स्पर्शभावना है। माने स्वदेशी, तमाम जाति आधारित भेद को समाप्त करने वाले स्वावलंबन का जंतर है। भूदान है जहां भूमि लेकर भूमिहीन को दी गई। भूमि अधिग्रहण करके चंद पूंजीपतियों को नहीं दी जाती।
स्वदेशी प्रेम की निर्मलता है। ऐसे समाज का निर्माण करना पड़ता है। उसके लिए बहुत आत्मबल चाहिए। उम्मीद है कि हुक्मरान समझेंगे।
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