विचार

मृणाल पांडे का लेख: छोटे दलों की बड़ी हैसियत और एक नीति कथा 2020 के लिए

पुरानी सरकारों को आज के आका चाहे जितना कोसें, पर भारत का गणतंत्र अगर पिछले सात दशकों से कायम रहा है तो इसलिए कि उसके कायम रहने में सारी शिकायतों और चुनावी हलचलों के बाद भी बहुसंख्यकों, अल्पसंख्यकों और हाशिए के अनेक समुदायों को अपनी आकांक्षाओं और हित स्वार्थों की सुरक्षा की संभावना नजर आती थी।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभाओं का विशाल भगवती जागरण खत्म हुआ। अचरज की बात यह, कि पाकिस्तान पर फौजी हमले, राम मंदिर मुद्दे पर हिंदू हित सर्वप्रथम मनवाने और नींबू कुचल राफेल विमानों की खेप के उद्घाटन पर हर रोज गला फाड़ प्रायोजित चर्चाएं कराने के बाद भी उम्मीद के विपरीत सत्तारूढ़ दलों को इस बार हाशिए की जीत मिली। मनमारकर वंशवादी क्षेत्रीय दलों से निकले दो एकदम युवा नेताओं (दुष्यंत चौटाला और आदित्य ठाकरे) को उपमुख्यमंत्री पद दे दिया तो तय है कि पद और उम्र में वरिष्ठ होते हुए भी मुख्यमंत्रियों : खट्टर तथा फडणवीस, को लगातार पांच साल तक कदम दर कदम उनकी और उनके ताकतवर परिवारों, मित्रगणों की दिलजोई करनी होगी। दुष्यंत चौटाला के पिता को गंभीर आरोपों के बावजूद तिहाड़ से कुछ समय के लिए तुरंत रिहा किया जाना और फडणवीस से मिलने को शिवसेना के दोयम नेता को भेजना छोटे दलों की बड़ी हैसियत का साफ संकेत देते हैं।

Published: undefined

दोनों राज्यों में जनता ने परिवारवाद के खिलाफ मुखर बीजेपी को एकल ताकत नहीं दी। साथ ही बीजेपी की बढ़ती दबंग कार्यशैली पर अंकुश लगाने के लिए उसे अपने दो ताकतवर क्षेत्रीय नेताओं (देवीलाल तथा बाल ठाकरे) के वंशधरों की कृपा पर निर्भर भी बना दिया। इन दलों के वजूद को बीजेपी नेतृत्व 2019 के लोकसभा चुनावों की भारी जीत के बाद लगातार उपेक्षित किए हुई थी। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के भेजे संजय राउत के गुनगुनाए भ्रमर गीतों के संकेत साफ हैं कि शिवसेना भावताव में सीधे मुख्यमंत्री के पद से शुरुआती बोली लगाने लगी है। तनिक सी चूक हुई तो दोनों राज्यों में युवा उपमुख्यमंत्री मुख्यमंत्रियों पर मराठावाद और जाटवाद के आजमूदा खुराफाती जिन्न बोतल से निकालने में विलंब नहीं करेंगे।

जैसे यही काफी न था। इन चुनावों में मुख्यमंत्री प्रत्याशी और गठजोड़ साथियों के चयन और प्रचार में बीजेपी की द्रुत तीन ताल की जगह विलंबित तिलवाड़ा में मृदंग बजाती कांग्रेस को भी अप्रत्याशित सफलता मिली है, जिसमें उसकी मित्र पार्टी एनसीपी के कद्दावर नेता शरद पवार जानकारों की सराहना के विशेष पात्र हैं। लिहाजा शरद सत्र में विपक्षी तेवर भी तीखे और आक्रामक होना पक्का समझिए।

एक तरफ तो घरेलू स्तर पर यह, उधर घर भीतर मीडिया पर पाबंदी लगाने और ह्यूस्टन से यूएन तक में तमाम उछल कूद के बावजूद मुख्यधारा के ब्रिटिश तथा अमेरिकी मीडिया में कश्मीर मुद्दे पर भारत को मानवाधिकारों का हननकर्ता बताने वालों का जोर बढ़ रहा है, जो भारतीय राजनय की गंभीर खामी का संकेत है। इसे खारिज करने वाले दांव भी भारत को उल्टे पड़ रहे हैं।

ताजा नमूना है विश्व के पुराने सफल नेताओं (हेनरी किसिंजर, टोनी ब्लेयर, कौंडालीसा राइस, रॉबर्ट गेट्स और जॉन हावर्ड) का (जेपी मॉर्गन अंतरराष्ट्रीय काउंसिल की बैठक में) भारत आकर प्रधानमंत्री के साथ अंतरंगता से बात करते हुए फोटो खिंचवाना। इसने भारत की राजनय में प्रमुखता तो नहीं तय की, अलबत्ता यह मीडिया की निंदाग्नि में और घी डाल गया। वजह यह, कि ये सब मान्य लोग अपने कार्यकाल में दुनिया के अनेक हिस्सों में व्यापक जनसंहार की भूमिका रच चुके हैं। मलिन होती छवि की तोड़ को कुछेक चर्चित खिलाड़ियों के तारीफ भरे बयान और बॉलीवुड के सितारों की कुछ चकराने वाली मौजूदगी और स्तुति परक ट्वीटें भी टिटहरी का विलाप बनकर रह गईं।

यह समय होता है जब समझदार सरकारों की छवि बहाली के लिए मीडिया के आजाद हस्ताक्षर सामने आते हैं, जैसा नेहरू, इंदिरा, शास्त्री जी से लेकर वीपी सिंह तक के वक्त में हुआ था। पर सरकार तो 2014 के बाद से अपनी तनिक सी निंदा से नाखुश होकर राजकाज की खबरों से आलोचकों को वंचित करती रही है। प्रधानमंत्री से प्रेस सम्मेलन तो विगत इतिहास बन गए हैं। उनकी जगह सरकारी प्रपत्रों को दैवी आदेश की तरह पेश करने वाले गोदी मीडिया को अतिरिक्त भाव देकर भी बात नहीं बनती। इसीलिए हम अरसे से कहते रहे हैं कि निंदकों को आंगन में न्योतने की बजाय उनको झाड़ूमार कर भगाना शासकों के लिए हमेशा एक दोहरी तलवार साबित होता है।

फिर आती है किराए की पब्लिसिटी। उसके भारी भरकम आयोजनों में खर्च हुए धन के मुद्दे कुछ बरस पहले भले ही भुला दिए जाते, लेकिन देश 2019 के उत्तरार्ध में विमोचित घरेलू वित्तीय अव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी और घटती न्याय की साख के सवालों पर तीखी चर्चाओं के संदर्भ में यह मुद्दा भी शरद सत्र में आ सकता है। यह सही है कि लोकसभा चुनावों में बालाकोट की घटनाओं के सीक्रेट टेप गोदी मीडिया में लगातार जारी करने और अखबारों में काबीना मंत्रियों के उस पर प्रमुखता से छापे गए अग्रलेखों से सरकार को अपनी मर्दाना, नो नॉनसेंस छवि और सैन्य क्षमता का सिक्का बिठाने में काफी कामयाबी मिली थी।

पर विधानसभा चुनावों के नतीजे गवाह हैं कि सीमा पर सैन्य कार्रवाई की छवियों का बल मिट चला है। चीन का तमिलनाडु में लुंगी डांस और तमिल-चीनी भाई-भाई का माहौल भी चर्चा का विषय बना। पर सीमा पर पाकिस्तान के लगातार आक्रामक बने तेवरों के बीच चीन का तनकर ताजा बयान देना कि बालटिस्तान और कराकोरम का पाक अधिकृत इलाका ग्वादर बंदरगाह तक हमेशा से वृहत्तर चीन का इलाका रहा है, चीन की असली नीयत की तरफ इशारा कर रहे हैं।

जब संसद में विपक्ष अधिक मजबूत और एकजुट होकर चर्चा करेगा तो यही नहीं, इंफोसिस और पंजाब महाराष्ट्र बैंक सरीखे प्रतिष्ठित संस्थानों पर जम रही कलुष, संभावित छंटनियों और दीवाली में कम बिकवाली से व्यापारी वर्ग सहित मध्यवर्ग की घबराहट का विषय भी अचर्चित नहीं रहेंगे। मुख्यधारा का मीडिया चाहे जितनी बकझक करे पर लगातार लांछित, अवहेलित और कई तरह से प्रताड़ित गैर-भक्त मीडिया और उसका नया मंच, सोशल मीडिया इन बहसों को मध्यवर्ग के बीच बड़ी सुर्खियां बनाते रहेंगे। मध्यवर्ग के सक्षम जनप्रतिरोध का एक नमूना अभी हम हांगकांग में देख ही चुके हैं।

यह अप्रिय सचायां रेखांकित करना इसलिए जरूरी है, कि रायसीना हिल के आज के लुटियन निवासी सूरमा चाहे इलाके का स्थापत्य भले बदल दें, फिलवक्त भारतीय लोकतंत्र के लिए संपूर्ण गोवध बंदी या भव्य देव दीवाली के मुद्दे पिट चुके। जीएसटी नोटबंदी की ही तरह अब खेतिहर बदहाली का सरदर्द सारे मध्यवर्ग खासकर उन युवाओं से स्वत: जुड़ गया है, जिनके प्रतिनिधि सत्तापक्ष के बीच अभिमन्यु बनकर घुसे आदित्य ठाकरे तथा दुष्यंत चौटाला हैं। बीजेपी की गति सांप छुछूंदर की बनती है ,बहस को छुट्टा छोड़े तो खतरा है, पर पकड़ लिया तो फिर निगलना मुश्किल।

पहले वित्तीय घोटालेबाजों, परिसरों के जमावड़ों, लालचौक के पत्थरबाजों या घुसपैठियों की बाबत आश्वासन मिला था कि नोटबंदी, जीएसटी के साथ नवीनीकृत कानून और कठोर पुलिसिया कार्रवाई का छिड़काव खरपतवार की तरह उनकी जड़ों में तुरंत मट्ठा डाल देगा। इस सब के बाद भी क्या वजह है कि लगभग नब्बे दिनके बाद भी कश्मीर की घेरेबंदी उठाने के लक्षण नहीं दिखते? क्यों दुष्टात्मा मीडिया को छोड़ भी दें तो भी रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर से लेकर अर्थशास्त्र के ताजा विजेता अभिजीत बनर्जी तक, दुनिया के शीर्ष अर्थशास्त्री नोटबंदी तथा जीएसटी को घातक कदम बता रहे हैं? क्या वे किसी बड़ी भारत विरोधी लॉबी के एजेंट या परदेसी कहकर खारिज किए जा सकते हैं?

अन्यस रदर्द की घंटी ओबीसी वर्ग के वंचित तबके बजा रहे हैं। उन्होंने सरकार से आरक्षण पर अपनी मंशा साफ करने के लिए तीखेपन से जवाब तलब किए हैं। दक्षिण में हिंदी थोपे जाने के खिलाफ वहां इस बासी कढ़ी के पतीले भी खदबदा ही रहे हैं।

ठीक है पाकिस्तान का लोकतंत्र जीवन रक्षक उपकरणों पर है, यूरो जोन की अर्थव्यवस्था दम तोड़ रही है। और अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा अपने चुनावों के मद्देनजर (श्वेत बहुल) घरेलू हितों को सर्वोपरि रखना जोरों से शुरू है। भगवान न करे यदि यह तमाम अंधड़ अगले बरस में एक साथ विमोचित हो गए तो उनसे झिंझोड़ा गया वर्ष 2020 भारतीय अर्थव्यवस्था और देश की सुरक्षा के लिए कई अप्रत्याशित चुनौतियां सामने ला सकता है, जिनसे गठजोड़ के नेतृत्व को जूझना ही पड़ेगा। पुरानी सरकारों को आज के आका चाहे जितना कोसें, पर भारत का गणतंत्र अगर पिछले सात दशकों से कायम रहा है तो इसलिए कि उसके कायम रहने में सारी शिकायतों और चुनावी हलचलों के बाद भी बहुसंख्यकों, अल्पसंख्यकों और हाशिये के अनेक समुदायों को अपनी आकांक्षाओं और हित स्वार्थों की सुरक्षा की संभावना नजर आती थी।

सोशल मीडिया के युग में आज हर वर्ग अपने हित स्वार्थों का खेल खुला और फर्रुखाबादी बनाकर खेल सकता है। खुद मीडिया तथा महाभियोग की आहटों से तिलमिलाए महाबली ट्रंप के ताजा ट्वीट भी इस बात के गवाह हैं।

अब भी गदहा मरे कुम्हार का औ’ धोबन सत्ती होय, की तर्ज में सरकार के आलोचक मीडिया पर जो भक्तगण गरज-बरस रहे हैं, उनको हमारी सलाह है कि वे भी तनिक रुक कर बहुत पहले पढ़ी एक रूसी नीति कथा पढ़ें। हुआ यह, कि जाड़े की एक ठिठुरन भरी शाम को घर लौट रहे एक किसान ने देखा कि पाले से अकड़ा एक कबूतर जमीन पर तड़प रहा है। दयालु किसान ने उसे उठा कर कोट में लपेट लिया और धीरे-धीरे सहला कर उसकी रुकती सांसों को लौटाया। जब कबूतर ने आंखें खोल दीं, तभी वहां से गायों का एक रेवड़ गुजरा। उसमें से एक गाय ने तनिक रुक कर किसान के आगे गोबर का बड़ा ढेर लगा दिया। किसान ने कबूतर को तुरंत उस गर्मागर्म गोबर की ढेरी में रोपा और राहत की सांस ली कि अब सुबह धूप निकलने तक बेचारा पक्षी बर्फीली हवा और पाले से बचा रहेगा।

किसान तो चला गया पर गोबर की गर्मी से त्राण महसूस करते कबूतर ने जोरों से खूब गुटर गूं करनी शुरू कर दी। अंधेरे में उसकी जोरदार चहक सुनकर पास से गुजरता दूसरा किसान रुका और कबूतर को खाने के लिए घर ले गया। कहानी तीन नसीहतें देती है। एक : तुमको गोबर में डालने वाला हर जीव तुम्हारा दुश्मन नहीं होता। दो, गोबर से बाहर निकालने वाला हर जीव तुम्हारा दोस्त भी नहीं होता। और तीन: गोबर में आकंठ डूबा बंदा कुछ अधिक चहकने से बाज आए।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined