प्रधानमंत्री मोदी पिछले कुछ महीनों से ऑपरेशन सिंदूर की चर्चा करते थकते नहीं हैं, हालांकि हरेक ऐसी चर्चा से पहले और बाद में भी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने वक्तव्यों से इस तथाकथित सफलता की धज्जियां उधेड़ देते हैं। ऑपरेशन सिंदूर को हिन्दू विवाहित महिलाओं के सिंदूर से जोड़ा गया और घर-घर जाकर महिलाओं को सिंदूर बांटने की योजना बनी। फिर विरोध के बाद यह योजना शुरू नहीं की जा सकी। दरअसल, प्रधानमंत्री और पूरा बीजेपी कुनबा हिन्दू महिलाओं के सिंदूर को संस्कृति से दूरकर एक राजनैतिक मुद्दा बना चुके हैं। जैसा कि बीजेपी की परिपाटी और परंपरा रही है, लगातार उठाए जाने वाले राजनैतिक मुद्दों को जनता पर थोपा जाता है जबकि इसके पार्टी सदस्य इन्हीं मुद्दों की उपेक्षा करते रहते हैं- सिंदूर के मामले में भी कुछ ऐसा ही है|
दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती रेखा गुप्ता अपने अब तक के कार्यकाल में आर्थिक-सामाजिक मुद्दों से अधिक धार्मिक और सांस्कृतिक वक्तव्य दे चुकी हैं। मुख्यमंत्री बनने से पहले से ही वे तमाम पोस्टरों पर नजर आती हैं और अब तो हरेक खंभे, हरेक चौराहे और हरेक दीवार पर उनके पोस्टर नजर आते हैं। पर, पोस्टरों पर छपे उनके चित्रों में समय के साथ एक बड़ा बदलाव आया है। मुख्यमंत्री चुने जाने के ठीक बाद के पोस्टरों में उनके सिर पर सिंदूर की रेखा नजर आती थी, जो अब पूरी तरह से गायब हो चुकी है। इन दिनों उनके जन्मदिन से संबंधित और कांवड़ ले जाने वालों के स्वागत के पोस्टर चारों तरफ नजर आ रहे हैं, पर मुख्यमंत्री के मांग का सिंदूर नजर नहीं आता। रेखा गुप्ता ने सिंदूर यात्रा में सिंदूर पर कविता पढ़ी थी, अपनी सरकार के 100 दिन पूरे होने पर भी सिंदूर के बारे में कहा था- सिंदूर की परंपरा के प्रचार में भागीदार के मांग से ही सिंदूर गायब हो गया।
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दिल्ली की मुख्यमंत्री यहां के पर्यावरण और प्रदूषण की भी खूब चर्चा करती हैं। कुछ दिनों पहले ही केवल एक पौधा कैमरे के सामने लगाकर दिल्ली को हराभरा और प्रदूषणमुक्त करने की बात कही थी। दूसरी तरफ हरेक प्रकार के प्रदूषण को बढ़ाने वाले कांवड़ यात्रियों पर फूल बरसाने वाली मुख्यमंत्री ने इस नितांत आस्था वाले कार्यक्रम को एक पूरे सरकारी आयोजन में बदल डाला। परिवहन से संबंधित सभी कानूनों को खुलेआम लांघते कांवड़ यात्रियों ने ध्वनि प्रदूषण की सारी सीमाएं पार कीं तो दूसरी तरफ पटाखों पर न्यायालय द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की लंबे समय तक अवहेलना की। सरकारी संरक्षण के चलते अनेक कांवड़ यात्रा पूरी तरह से खड़ी रही।मोटरसाइकिल पर चलने वाले कांवड़ यात्रियों और उनके सहयोगियों ने तो हेलमेट न लगाने की कसम खा रखी है फिर भी उन पर फूल बरसाए जा रहे हैं।
सावन के आते ही बारिश का इंतजार रहता है और बारिश आते की दिल्ली की अनेक सड़कें डूबने लगती हैं। इन डूबी सड़कों पर लंबा ट्रैफिक जाम आम बात है, पर इसी जाम में बड़ी-बड़ी गाड़ियों पर बहरा कर देने वाले म्यूजिक बजाते कांवड़िए एक अलग किस्म की समस्या पैदा करते हैं। फिर भी मजाल है कि पुलिस, प्रशासन और ट्रैफिक पुलिस इन्हें नियंत्रित करें- यह स्पष्ट तौर पर उत्तर प्रदेश की तरह दिल्ली पुलिस का प्रत्यक्ष धार्मिक ध्रुवीकरण दर्शाता है।
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पार्टी पॉलिटिक्स नामक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, यह एक बड़ा छलावा है कि प्रजातंत्र में राजनैतिक दल जनता की आकांक्षाओं और मांगों को अपना मुद्दा बनाते हैं। हमेशा यही माना जाता रहा है कि राजनैतिक दल जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप अपना एजेंडा सेट करते हैं, पर बिंघमटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक रोबिन बेस्ट की अगुवाई में किये गए अध्ययन से स्पष्ट है कि राजनैतिक दल ही जनता के मुद्दे निर्धारित करते हैं और फिर इसके अनुसार उनके कट्टर समर्थक राजनैतिक दलों की विचारधारा को जनता तक पहुंचाते हैं। इसके बाद जनता अपना मुद्दा तय करती है। सामाजिक ध्रुवीकरण को पहले जनता मुद्दा नहीं बनाती, बल्कि राजनैतिक दल बनाते हैं और फिर जनता इस दिशा में बढ़ती है।
इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने भारत समेत 20 प्रजातांत्रिक देशों में वर्ष 1971 से 2019 के बीच संपन्न हुए 174 चुनावों का बारीकी से विश्लेषण किया है। अमेरिका को इस अध्ययन में शामिल नहीं करने का कारण इस अध्ययन के लेखकों ने बताया है कि इस देश में दोनों प्रमुख राजनैतिक दल और उनके समर्थक लगभग हरेक विषय पर पहले से ही चरम ध्रुवीकरण के शिकार हैं। इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि 174 चुनावों के विश्लेषण के बाद भी कहीं यह साबित नहीं हो पाया कि सामाजिक और वैचारिक ध्रुवीकरण की शुरुआत जनता करती है।
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प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल एकेडेमी ऑफ़ साइंसेज नामक जर्नल में वर्ष 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पूरी दुनिया में राजनैतिक ध्रुवीकरण अब जितना है उतना पिछले 50 वर्षों में कभी नहीं रहा। इस ध्रुवीकरण के कारण लोकलुभावनवादी राजनैतिक दलों को सामान्य जनता का भी समर्थन मिलने लगा है जिससे प्रजातंत्र पर खतरा बढ़ता जा रहा है। ऐसे राजनैतिक दलों को लोकप्रियता मिलने और सत्ता तक पहुंचने का सबसे बड़ा कारण समाज में बढ़ती सामाजिक और आर्थिक असमानता है, ना कि धार्मिक ध्रुवीकरण।
इस अध्ययन में अमेरिका में ट्रम्प, भारत में नरेंद्र मोदी, फ्रांस में लापेन, ब्राज़ील में बोल्सेनारो और यूनाइटेड किंगडम में ब्रेक्सिट आन्दोलन की लोकप्रियता का उदाहरण भी दिया गया है। इस अध्ययन के अनुसार, समाज में तमाम असमानताओं के कम होने पर ध्रुवीकरण वाले राजनैतिक दलों का अस्तित्व खतरे में आ जाता है इसीलिए ऐसे राजनैतिक दलों की सत्ता तक पहुंचने के बाद समाज में असमानता और अस्थिरता बढाने की मंशा रहती है।
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देश स्पष्ट तौर पर परंपरागत इंडिया और मोदी जी के सपनों के न्यू इंडिया में बंट गया है। इंडिया का किसान बदहाल है, पर न्यू इंडिया का किसान आबाद है। इंडिया को अपनी विरासत, विविधता और इतिहास पर गर्व है, पर न्यू इंडिया में इन सबको नया नाम देने की और अपना ही इतिहास मिटाने की होड़ लगी है। न्यू इंडिया के मुग़ल गार्डन को अमृत उद्यान कहा जा रहा है- अब वहां फूलों से अमृत बरसने लगे हैं और फूलों की खुशबू सौ-गुना से अधिक बढ़ गई है।
सत्ता जितनी भी गरीबों के विकास की परियोजनाओं पर अपनी पीठ लगातार थपथपाती है, उतनी ही न्यू इंडिया के पूंजीपतियों को और अमीर और इंडिया के गरीबों को पहले से अधिक गरीब बना देती है। गरीबी पर हमारे कट्टरपंथियों और बीजेपी समर्थकों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर विचार सीधा सा है- हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी 18 घंटे काम करते हैं, कभी छुट्टी नहीं लेते, फिर गरीबी कैसे हो सकती है- गरीबी की बातें करने वाले उनका अपमान करना चाहते हैं, उनकी अन्तरराष्ट्रीय छवि धूमिल करना चाहते हैं, यह बड़ी साजिश है, यह देश का अपमान है, यह देश की जनता का अपमान है।
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सत्ता और मैन्स्ट्रीम मीडिया भारत की गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, पर्यावरण विनाश, सामाजिक असमानता, धर्मान्धता और मौलिक अधिकारों से जुडी हरेक रिपोर्टों को खारिज करता रहता है और बड़ी बेशर्मी से इसे देशी-विदेशी साजिश का हिस्सा बताता है। फिर सत्ता की फौज और मीडिया इन रिपोर्टों का चीरहरण करने में जुट जाता है। जब इंडिया पर गंभीर समस्या आती है, न्यू इंडिया का मीडिया जनता को धर्म, उन्माद, आस्था, पाकिस्तान, नए हथियारों के जखीरा में उलझा देता है।
इतना तो स्पष्ट है कि अब नए दौर में जनता को पहले से अधिक जागरूक होने की जरूरत है क्योंकि राजनैतिक दल केवल अपना हित साध रहे हैं और जनता को गुमराह करते जा रहे हैं।कुछ देशों में तो लम्बे संघर्ष के बाद प्रजातंत्र वापस आ गया है, पर क्या भारत समेत दूसरे देशों में ऐसा कभी होगा?
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