विचार

अमीर देशों पर तापमान वृद्धि का आरोप, लेकिन मौसम की मार झेल रहे देश के उन करोड़ों गरीबों का क्या?

प्रधानमंत्री मोदी भले ही तापमान बृद्धि का जिम्मेदार अमीर देशों को बताते हों पर अपने देश के अमीरों के बारे में कभी कुछ नहीं कहते।

फोटो: IANS
फोटो: IANS 

जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों का जितना उत्सर्जन दुनिया करती है, उसमें से 6.8 प्रतिशत का जिम्मेदार भारत है। भारत दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है, प्रतिवर्ष 2.46 अरब मीट्रिक टन कार्बन का उत्सर्जन करता है। देश की विशाल आबादी के कारण देश में प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन कम है – अमेरिका में प्रतिव्यक्ति 16.25 टन उत्सर्जन की तुलना में भारत में महज 1.84 टन ही है। प्रधानमंत्री मोदी बार-बार बताते रहे हैं कि तापमान बृद्धि के लिए भारत की कोई जिम्मेदारी नहीं है, यह केवल अमीर देशों की देन है। पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक कैसे यह कह सकता है कि उसका तापमान बृद्धि में कोई योगदान नहीं है।

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प्रधानमंत्री मोदी भले ही तापमान बृद्धि का जिम्मेदार अमीर देशों को बताते हों पर अपने देश के अमीरों के बारे में कभी कुछ नहीं कहते। वर्ष 2021 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अपने देश की सबसे अमीर 20 प्रतिशत आबादी जितना ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करती है वह मात्रा शेष 80 प्रतिशत आबादी द्वारा किये जा रहे कुल उत्सर्जन का सात-गुना है। यही 20 प्रतिशत आबादी तापमान बृद्धि को नियंत्रित करने के लिए नीतियां भी बनाती है। हाल में ही गौतम अडानी ने जलवायु परिवर्तन पर एक थिंक टैंक स्थापित करने की घोषणा की है, जो सरकार को इस मसले पर सुझाव देगी।

जाहिर है, जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि ने एक नए तरीके की असमानता पैदा कर दी है। जो ग्रीनहाउस गैसों का लगातार उत्सर्जन अपने मुनाफे के लिए कर रहे हैं, वही इसके नियंत्रण की नीतियां बना रहे हैं – और इसका सारा प्रभाव गरीब आबादी झेल रही है। लगातार बाढ़, सूखा, चरम तापमान और मौसम की मार झेलने वाली गरीब आबादी है और गरीब आबादी की समस्याएं सुनने वाला कोई नहीं है। जब देश मौसम की मार से बेहाल होता है और पूरे देश में सडकों पर सरकार का विरोध शुरू होता है – तब कुछ विपक्षी नेताओं से ईडी और सीबीआई अंतहीन पूछताछ शुरू कर देती है और प्रधानमंत्री नए परिधान में सज-संवर कर रोडशो करने लगते हैं।

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जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में छोटे देश अधिक जागरूक हैं। हमारे प्रधानमंत्री जब भी किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष के गले पड़ते हैं तब रक्षा समझौते होते हैं, कुछ और हथियारों की खरीद के करार होते हैं। पर हाल में ही सिंगापुर में आयोजित शेंगरीला डायलाग में फिजी के रक्षा मंत्री, इनिया सेरुइरतु, ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में राजनैतिक अस्थिरता और भौगोलिक-राजनैतिक अशांति कोई खतरा नहीं है, बल्कि इस क्षेत्र के लिए जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सबसे बड़ा खतरा है। शेंगरीला डायलाग एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रक्षा और सेना से सम्बंधित सबसे बड़ी बैठक होती है। इसबार इस बैठक में विमर्श का पूरा केंद्र रूस-युक्रेन युद्ध और अमेरिका और चीन के बीच बढ़ता तनाव था। इसके बाद भी फिजी के रक्षा मंत्री का पूरा भाषण इस पूरे क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के व्यापक प्रभाव पर आधारित था। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में मशीनगन, लड़ाकू विमान, परमाणु पनडुब्बियां, अत्याधुनिक हथियारों से लैस सेना की टुकड़ियां शांति के लिए उतना बड़ा खतरा नहीं हैं जितना जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है। फिजी, टोंगा, सामोआ जैसे प्रशांत क्षेत्र के देशों पर डूबने का खतरा बढ़ता जा रहा है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र के दूसरे देशों में चरम प्राकृतिक आपदाओं से करोड़ों लोग प्रभावित हो रहे हैं। अब तो वैज्ञानिक इन्हें प्राकृतिक आपदाओं से अधिक पूंजीवाद-निर्मित आपदा मानते हैं।

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इस समय पूरा भारतीय उपमहाद्वीप भीषण गर्मी से बेहाल है। अमीर और मध्यम वर्ग तो वातानुकूलन द्वारा गर्मी को मात दे रहा है, पर गरीब इसकी सीधी मार झेल रहे हैं। गरीबों में भी महिलायें ऐसे समय अधिक प्रभावित होती हैं क्योंकि उनके जिम्मे ही पानी, मविशियों का चारा और खेतों की गुडाई का काम रहता है। गर्भवती महिलाओं पर अत्यधिक गर्मी घातक असर करती है। वैज्ञानिकों के अनुसार लम्बे समय तक औसत तापमान सामान्य से 1 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहता है तब समय से पहले पैदा, या फिर मरे शिशु के पैदा होने की घटनाओं में 5 प्रतिशत तक की बृद्धि हो जाती है। यह अध्ययन सितम्बर 2020 में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित किया गया था और इसका आधार वर्ष 1990 के बाद से इस विषय पर प्रकाशित 70 शोधपत्र थे। कोलंबिया यूनिवर्सिटी स्थित कंसोर्टियम ऑन क्लाइमेट एंड हेल्थ एजुकेशन की निदेशक सेसिलिया सोरेंसें के अनुसार यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसपर बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, इसका कारण यह है कि ऐसा प्रभाव केवल गरीब महिलाओं तक सीमित है। जाहिर है, इस विषय पर आंकड़े इकट्ठे नहीं किया जाते और अधिकतर गरीब महिलायें अस्पतालों तक नहीं पहुँचती हैं।

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सेसिलिया सोरेंसें के अनुसार चरम तापमान गर्भवती महिलाओं के लिए बहुत खतरनाक है। गरीब गर्भवती महिलायें कम से कम पानी के लिए गर्मी सहती हुई लम्बी दूरी तय करती हैं, पर उनकी समस्या यहीं ख़त्म नहीं होती। भीषण गर्मी में भी उन्हें लकड़ी और दूसरे जैव-इंधनों की मदद से खाना बनाना पड़ता है। इन इंधनों से उत्पन्न प्रदूषण पर तो बहुत सारे शोधपत्र मौजूद हैं, पर 45-50 डिग्री सेल्सियस में चूल्हे के ताप को झेलती महिलाओं पर कोई अध्ययन नहीं किया जाता है।

तापमान बृद्धि पर पिछले 20 वर्षों से किये जा रहे अध्ययन के अनुसार पृथ्वी का तापमान वर्ष 1990 के बाद से हरेक दशक में औसतन 0.26 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ नामक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन को जलवायु वैज्ञानिकों के एक अन्तराष्ट्रीय दल ने किया है, और इसमें भारत समेत दुनिया के 43 देशों में 750 स्थानों से प्राप्त जलवायु के आंकड़ों का और मृत्यु दर का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि हरेक वर्ष अत्यधिक सर्दी या अत्यधिक गर्मी के कारण दुनिया में 50 लाख से अधिक व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु हो जाती है, यह संख्या दुनिया में कुल मृत्यु का 9.4 प्रतिशत है।

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अध्ययन के अनुसार अत्यधिक गर्मी या अत्यधिक सर्दी के कारण दुनिया में प्रति लाख मौतों में 74 मौतें अतिरिक्त होती हैं। पिछले कुछ वर्षों से अत्यधित सर्दी से होने वाली मौतों में कमी आ रही है, जबकि अत्यधिक गर्मी से होने वाली मौतों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अत्यधिक सर्दी से मौतें अफ्रीका में सहारा के आसपास के देशों में होती हैं, जबकि अत्यधिक गर्मी से मौतों के सन्दर्भ में पूर्वी यूरोप के देश सबसे आगे हैं। यूरोप में तापमान की चरम घटनाओं के दौरान होने वाली मौतों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक सर्दी - दोनों स्थितियों में ह्रदय गति अचानक रुक जाना, दिल का दौरा पड़ना और पक्षाघात की घटनाएँ अचानक बढ़ जाती हैं।

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भारत इस समय कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के सन्दर्भ में दुनिया में चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर है। देश में ना तो पेट्रोलियम पदार्थों की मांग कम हो रही है और ना ही कोयले पर निर्भरता कम होने का नाम ले रही है। सरकार लगातार कोयले के नए ब्लॉक्स आबंटित कर रही है, कोयले का उत्पादन बढ़ा रही है, कोयले का आयात भी बढ़ा रही है, अडानी तो ऑस्ट्रेलिया से कोयला लाकर देश में खपा रहे हैं। बड़े देशों में भारत ही अकेला देश है जहां कोयले की खपत बढ़ती जा रही है। जंगल कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं और इसे वायुमंडल में मिलने से रूकते हैं, पर देश के अधिकतर जंगल संकट में हैं और इनका क्षेत्र लगातार कम हो रहा है। मोदी सरकार के दौर में पूरे देश के जंगलों में खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं का जाल बिछाया जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के मूल में वायु प्रदूषण है, जबतक वायु प्रदूषण कम नहीं होगा जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। इन सबकी बाद भी प्रधानमंत्री जी के अनुसार अर्थव्यवस्था से कार्बन उत्सर्जन में कमी आ रही है – यह निश्चित तौर पर एक कुतूहल का विषय है।

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