हमारे एक चाचा हुआ करते थे, कुमार चाचा। वैसे तो पड़ोस में रहने वाले सभी चाचा या मामा होते थे। मगर ये चाचा मोहेल्ले के सारे बच्चों को बहुत पसंद थे और उसकी वजह ये थी कि वह हमें अक्सर सड़क किनारे मजमा लगाकर खेल दिखाने वाले मदारियों का तमाशा दिखाने ले जाते थे। कुमार चाचा को किताबों से बहुत मुहब्बत थी और इस वजह से पूरे मोहल्ले में उनकी बड़ी इज्जत की जाती थी। उनका कहना था कि बच्चे मदरियों से बहुत कुछ सीखते हैं और इस पर उन्होंने मोहल्ले के बड़ों को राजी भी कर लिया था, इसलिए बच्चों को उनके साथ जाने की इजाजत भी मिल जाती थी। हमें उनके इस फलसफे की खबर नहीं थी, मगर मदारी का खेल देखने में मजा भी बहुत आता था। हमारा तो ये ख्याल था कि कुमार चाचा को मदारी का खेल देखने में खुद मजा आता था और वो हमारे बहाने से महीने दो महीने में मदारी का खेल देखने चल देते थे।
खेल देख कर लौटते तो उसका मजा कम से कम एक महीने तक तो ताजा रहता ही था। हम सभी मदारी की नकल उतारते, उसके डायलॉग याद करके हफ्तों उन्हें दोहराते रहते थे। कभी-कभी किसी बच्चे के हाथ खिलौने वाली डुगडुगी भी लग जाती थी और वो उसे बजाकर मदारी के तमाशे की नकल भी उतारने की कोशिश करता था। हम बच्चे उस डुगडुगी वाले दोस्त को हसरत से ताकते, मगर उसके चारों तरफ मजमा भी लगाते थे।
सारे ही मदारी लगभग एक ही तरह से खेल शुरू करते थे। सबके पास एक झोली हुआ करती थी, जिसे वो भीड़ के बीच की जगह में घूम-घूमकर कंधे से उतारकर ऐसे रखते थे जैसे बड़ा अहम काम कर रहे हों। मकसद ये होता था कि सबकी नजर उन पर पड़ जाए। और फिर एक अदा से उस झोली में से डुगडुगी निकालते और बजा-बजाकर लोगों को गोला बनाने पर आमादा करते। इस गोले में बच्चों को आगे जगह मिलती थी।
मदारी डुगडुगी बजाता, पहले उसकी लय मद्धम होती फिर तेज होती जाती और फिर ऐसी हो जाती जैसे अलग-अलग लोगों से बातें कर रहा हो। फिर मदारी झट से एक लंबा भाषण देता, जो गाने और भाषण के बीच की चीज होती थी। बात मेहरबान, कदरदान से शुरू होती और ना जाने कहां से उसमें सांप का जोड़ा, नागिन का फन, बकौली के फूल, तोते की जान, रानी के झूमर, आसमान की सैर, जुगनू की पूंछ, शेर के फेफड़े और गधी का दूध आ जाता था।
मदारी की आवाज, कभी ऊंची और कभी नीचे, कभी हंसने वाली और कभी डराने वाली, बीच-बीच में वह शेर और दोहे और पढ़ जाता। वो हवा में बार-बार हाथ हिलाता, इधर से उधर, जैसे हाथ भी बातें कर रहे हों, आंखे भी खूब मटकाता, भवें ऊपर-नीचे होती रहतीं, एक अदा से बीच-बीच में पानी पीता, हर बार पानी पीने के बाद उसकी आवाज नीचे हो जाती। कभी हाथ ऐसे फैलाता, जैसे उड़ जाएगा और कभी उंगली से हवा में छेद कर देता। हम बच्चे खेल का इंतेजार करते हुए उसकी एक एक चीज पर नजर रखते। खेल शुरू होता तो मदारी कभी लोहे का गोला खा लेता और कभी आग में नहाता, कभी कान से धुआं निकालता तो कभी सिर से पानी की धार। बार-बार चिल्लाता कि ‘पैर की मिट्टी मत छोड़ना वरना खून की उल्टी करोगे’, कभी हाथों पर चलकर दिखाता तो कभी टोपी से कबूतर निकालकर और कहता, ‘बच्चों डेढ़ हाथ की ताली बजाओ’। ये डेढ़ हाथ की ताली क्या होती है हमारी समझ में कभी नहीं आया, फिर भी हम ताली जरूर बजा देते थे।
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लेकिन ऐसा भी होता कि मदारी की सारी कोशिशों के बावजूद जनता उखड़ जाती। पहले वो लोग जो पीछे की कतारों में से उचक-उचक कर तमाशा देख रहे होते वो जाना शुरू करते और फिर आगे की पंक्तियों के लोग इधर-उधर होने लगते। ऐसे में मदारी और डुगडुगी दोनों की आवाज चीखों में बदल जाती। जैसे चीख-चीख कर लोगों को रोकने की कोशिश कर रही हो। कह रही हो कुछ तो देते जाओ। जब खेल बे मजा होता चाचा हम बच्चों से कहते कि आज मदारी की डुगडुगी में दम नहीं था।
शुक्रवार को संसद की बहस ने मुझे मदारी की याद दीला दी। मदारी ने वैसे ही हाथ चलाए, आंखें नचायीं, भवें ऊपर-नीचे कीं, कभी चीखा, कभी आवाज नीचे की, कभी हाथ उड़ने की मुद्रा में फैलायी तो कभी उंगली से हवा में छेद किया, बीच-बीच में एक अदा से पानी भी पिया। शेर और दोहे का तड़का भी लगाया। तमाशा पूरा था, मगर ‘मदारी की डुगडुगी में कल दम नहीं था’।
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