विचार

लोगों में भ्रम पैदा करने के लिए गांधी के रास्ते पर चलने का दिखावा करती है मोदी सरकार

यदि गांधी के रास्ते पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को चलना होता तो उस विचारधारा के लोग उनकी हत्या ही क्यों करते? गांधी की हत्या इसलिए की गई क्योंकि गांधी उनके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा थे।

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फोटो: सोशल मीडिया गांधी के रास्ते पर चलने का दिखावा करती है बीजेपी-आरएसएस

नरेंद्र मोदी प्रचारक हैं। प्रचार कला में दीक्षित हैं। गांधी का रास्ता, और जिस विचारधारा से वह आते हैं, उसका रास्ता परस्पर विपरीत दिशा का है। गांधी ने मनुष्य की अंदर की सद्वृत्तियों को प्रोत्साहित किया, और उसे ऊर्जा के रूप में आंदोलनों में, लोकशक्ति के रूप में विकसित और संगठित किया। वह सत्याग्रह का रास्ता है। यदि गांधी के रास्ते पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को चलना होता तो उस विचारधारा के लोग उनकी हत्या ही क्यों करते? गांधी की हत्या इसलिए की गई क्योंकि गांधी उनके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा थे। गांधी के शिक्षण-प्रशिक्षण में यह भाव जगाने की कोशिश होती थी कि मनुष्य एक-दूसरे के खिलाफ नहीं, बल्कि एक-दूसरे का सहयोगी है। अब इनकी (संघ) ट्रेनिंग शुरू होती है लाठी भांजने और शस्त्र पूजन से। गांधीजी ने कहा कि परस्पर-पूरक सहयोगी समाज सत्य और अहिंसा की बुनियाद पर बनेगा। इनकी कार्य पद्धति क्या है? जो विरोधी है उसे अपमानित करो, उसके प्रति नफरत पैदा कर उसको निशाना बनाओ, उसको खत्म कर दो। इतने वर्षों में यह लगातार साफ-साफ दिखाई दिया है।

भारत के संविधान को ये मानते नहीं थे, राष्ट्रध्वज को ये स्वीकारते नहीं थे। लेकिन इनकी दिक्कत यह थी कि सत्ता में आना है तो इनको स्वीकार करना पड़ेगा। इनका ध्येय तो यह है कि सत्ता हाथ में लेकर अपनी अवधारणा का देश/राष्ट्र बनाएंगे। इनका संगठन भी इसी उद्देश्य से बनाया गया है। समाज के संस्कारजन्य मन को कैसे अपने अनुकूल बनाएं। मतदाताओं को अपने संगठन और विचार के प्रभाव में कैसे लाएं, भले ही उसके लिए भावनात्मक उन्माद ही क्यों न पैदा करना पड़े, फिर सत्ता पर कब्जा करें। तो यहीं से दिखावा, इनकी दोहरी भूमिका शुरू होती है। लेकिन सत्ता तो संविधान और संसद के जरिये हासिल होगी। तो, पहली बात यह कि विश्वास न होते हुए भी, दिखावा करना कि हम संविधान और संसदीय प्रणाली को मानते हैं। अगर वास्तव में ऐसा है तो मैं पूछना चाहता हूं कि सरसंघचालक किस प्रक्रिया से चुना जाता है? क्या संघ का कोई आदमी बता सकता है?

भरमाने, सचाई को छिपाने के लिए बहाने बनाने पड़ेंगे। ऐसे नहीं, वैसे नहीं। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद संसद के चौखटे पर माथा टेका। यह दिखावा नहीं तो और क्या था? इनकी दूसरी मजबूरी यह है कि ये देश में और देश के बाहर जहां कहीं पैर रखते हैं, इन्हें गांधी से शुरू करना पड़ता है। अगर वह कहीं जाकर भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो यह इनकी मजबूरी होती है। चाहते नहीं हैं दिल से, क्योंकि गांधी-विचार इनकी राष्ट्र की अवधारणा के विरुद्ध जाता है। अब, उन्होंने सफाई को लेकर एक लोकप्रिय नारा दिया है। सफाई को लेकर गांधी की दृष्टि और इनकी दृष्टि में कहां फर्क है, यह देखना जरूरी है।

शौचालय के नाम पर प्रचार

मैं स्वयं एक गांधीवादी कार्यकर्ता हूं। मेरी शुरुआती ट्रेनिंग पाखाना सफाई के कार्य से हुई थी। गांधी कहते थे कि कोई गंदगी करे और कोई सफाई करे, यह व्यवस्था अगर रहेगी तो फिर एक समूह को ऐसी स्थिति में ही रखना पड़ेगा, जो केवल सफाई के लिए मजबूर हो, उसे कोई और काम नहीं मिले। इसलिए गांधी ने भंगी-मुक्ति अभियान चलाया था। गांधी का सिद्धांत है कि जो गंदगी करता है, सफाई करना उसकी जिम्मेदारी है। यह नहीं कि सफाई का काम एक पेशा हो जाए, एक समूह मजबूरी में सिर्फ दूसरों की गंदगी की सफाई करे और फिर वह समूह अछूत भी कहा जाए। यानी जो गंदगी करे, वह श्रेष्ठ और जो गंदगी साफ कर दे, रहने की जगह साफ-सुथरी कर दे, वह अछूत!

अब क्या किया गया है? प्रतीक के रूप में गांधी का चश्मा और झाड़ू ले लिया गया है। अगर सही मायनों में सफाई की कार्य योजना उनको बनानी थी तो दो कार्य अनिवार्यतः प्राथमिकता से करने चाहिए थे। सफाई-कार्य में लगे लोगों को आधुनिक टेक्नोलॉजी उपलब्ध करानी चाहिए थी, खासकर मेन होल की सफाई के लिए। और उनको इतनी मजदूरी मिलना चाहिए थी कि वे इज्जत के साथ स्वस्थ जीवन जी सकें। इन्होंने इन दोनों बातों पर कभी कोई ध्यान नहीं दिया। शौचालय के लिए जिस तरह की व्यवस्था इन्होंने अपनाई है, उसमें प्रचुर मात्रा में नियमित पानी उपलब्ध होना चाहिए।

जितने अध्ययन आए हैं, वे यह बताते हैं कि पानी तो है ही नहीं और सेप्टिक टैंक वाला फ्लश टॉयलेट बना दिया। अब, साधारण लोग भी अपने लिए घर बनाते हैं तो इतनी समझदारी उनमें आ गई है कि वे एक शौचालय भी बना लेते हैं और पानी का जुगाड़ भी कर लेते हैं। वे सारी व्यवस्था अपनी सीमा को समझ कर करते हैं। लेकिन इनको तो इससे कोई मतलब है नहीं! संख्या गिनानी है इन्हें कि हमने इतने शौचालय बनवा दिए हैं। जितना बजट शौचालय बनवाने में खर्च होता है, उससे कम खर्च नहीं होता होगा विज्ञापनों पर। क्योंकि हर काम तो प्रचार और दिखावे के लिए करना है, ताकि चुनाव जीता जा सके।

खोटा सिक्का बनाम असली सिक्का

एक प्रचलित किस्सा है कि खोटा सिक्का सही सिक्के को बाजार से बाहर कर देता है। यह जो दिखावे की, पाखंड की रणनीति है उसकी बुनियाद में इसकी झलक साफ-साफ दिखाई देती है। गांधी की मुख्य देन है कि समाज, देश और दुनिया की समस्याओं का समाधान अहिंसक तरीके से संभव है। उन्होंने प्रयोग करके दिखाया कि इकोनॉमी और यांत्रिकी किस तरह से अहिंसक अर्थव्यवस्था की बुनियाद बन सकते हैं। गांधी का खादी-ग्रामोद्योग का विचार एवं प्रयोग इसकी संभावनाएं प्रस्तुत करता है। लेकिन इनके लिए यह भावना दिखावा है।

एयरपोर्ट पर विराट चरखा लगा हुआ है, उससे सूत नहीं कत सकता। यह मात्र दिखावा नहीं तो और क्या है? खादी-ग्रामोद्योग की मूल यह भावना है कि जहां लोग रहते हैं, वहां उनकी बुनियादी जरूरतें, उनके श्रम से, सृजन से पूरी होनी चाहिए। कच्चा माल जिस जगह पैदा होता है, उसकी प्रोसेसिंग इंडस्ट्री वहीं चलनी चाहिए। गांधी-विचार के अनुसार उसके यंत्र ऐसे होने चाहिए जो पूंजी के नहीं, लोगों के नियंत्रण में रह सकें। यह गांधी के अहिंसक अर्थशास्त्र का आधार है। इन्होंने गांधी को और खादी को ब्रांड बना दिया है।

खादी में बुनियादी बात थी कॉस्ट चार्ट की। गांधी ने खुद चरखा संघ का तंत्र विकसित किया था। खादी उत्पाद की कीमत, जो बिक्री के लिए तय होगी, उसमें किसका कितना हिस्सा होगा, यह निश्चित किया गया था। इसमें अधिकतम 20 प्रतिशत व्यवस्था के लिए निर्धारित था। इसी कॉस्ट चार्ट के आधार पर खादी की कीमत तय होती थी, अब कॉस्ट चार्ट आधारित मूल्य निर्धारण की शर्त ही खत्म कर दी। तो इन्हें बुनियादी काम तो करना नहीं है।

धर्म आधारित राज्य के खिलाफ थे गांधी

15 अगस्त, 1947 को जब आजादी मिली, तो गांधी कलकत्ता और उससे पहले नोआखाली में थे, क्योंकि एक समूह दूसरे समूह की हत्या कर रहा था। सबसे पहले हिंदू महासभा ने कहा था कि हिंदू एक अलग राष्ट्र है और मुसलमान एक अलग राष्ट्र। गांधी ने इसका विरोध किया था। लेकिन दो धर्मों के लोगों के बीच इतनी उग्र एवं तीव्र नफरत पैदा कर दी गई थी कि धर्म आधारित अलग राष्ट्र के नाम पर तबाही शुरू हो गई थी।

इस तबाही ने विकट रूप ले लिया था, तो उस समय के नेतृत्व को मजबूर होकर बंटवारा स्वीकार करना पड़ा था। हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र की दो अवधारणाएं एक-दूसरे को मजबूत करती हैं। धर्म आधारित राष्ट्र को मानने वाले एक ही दिशा और विचार के लोग हैं। गांधी धर्म आधारित राज्य की अवधारणा के खिलाफ थे। गांधी धर्म के उन सब क्रियाकलापों और गतिविधियों के खिलाफ थे जो मनुष्य को मनुष्य से बांटता है और आपस में नफरत पैदा करता है।

जाति और अस्पृश्यता

गांधी ने कहा था कि अस्पृश्यता भारत के माथे पर कलंक है। जिस मंदिर में हरिजन को प्रवेश नहीं था, उस मंदिर में गांधी नहीं जाते थे। गांधी के किसी भी आश्रम में मंदिर नहीं है। एक पेड़ के नीचे सेवाग्राम में प्रार्थना होती है। जिसमें हर धर्म का जो बुनियादी तत्व, सूत्र और मंत्र है, उसका सामूहिक पाठ होता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि बिहार के बैजनाथ धाम में विनोबा भावे का पड़ाव था। वहां के पुजारियों ने उनको आमंत्रित किया।

विनोबा के साथ देशी-विदेशी अनेक जातियों और धर्मों के लोग थे। पुजारियों ने मंदिर जाने के रास्ते में उनकी पिटाई की साजिश रची थी। पंडों ने मंदिर जाते हुए उन पर हमला किया था। इतनी पिटाई की कि विनोबा का एक कान बहरा हो गया। विनोबा लौट आए। जगन्नाथ पुरी में उनके साथ सभी धर्मों और जातियों के लोग थे। प्रवेश नहीं मिला और वे वापस चले आए। मंदिर नहीं गए। यह इस बात को जाहिर करता है कि गांधी के अध्यात्म और जो हिंदू धर्म की ध्वजा उठाए फिरते हैं उनके धर्म में बुनियादी फर्क है।

गांधी ने घोषित किया था कि मेरा आशीर्वाद उसी शादी-शुदा जोड़े को मिलेगा, जिसमें एक हरिजन होगा। गांधी के आश्रम में दलितों का भी रसोई में अन्य लोगों जैसा ही आना-जाना था। साबरमती में जब उनकी अपनी बहन ने इस तरह के व्यवहार का विरोध किया तो गांधी ने कहा कि तुम आश्रम छोड़ कर जा सकती हो। उनकी बहन आश्रम छोड़कर चली गई, लेकिन रसोई सबके लिए खुली रही।

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गांधी का इस्तेमाल

अगर कोई पाखंड करने के लिए कहता है कि मैं गांधी को मानता हूं तो हमें यह करना है कि लोगों का ध्यान उस तरफ ध्यान दिलाया जाए कि यह जो कर रहा है, वह गांधी के खिलाफ है। गांधी की 150 जयंती मनाने के लिए जो कमेटी बनी है, उसमें दो-चार रिटायर लोगों के नाम रखे हैं। यानी जो किसी सरकारी संस्थान में हैं और गांधी को मानते हैं, उनके नाम हैं। उनको प्रधानमंत्री कार्यालय से आए निर्देश को मानना पड़ेगा। गांधी शताब्दी (1969) का आयोजन गांधी स्मारक निधि के संयोजन में हुआ था। सरकार ने मदद की थी। लेकिन कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा गांधी स्मारक निधि ने बनाई थी, जिसमें सारे गांधीजन थे। 125वीं जयंती का भी आयोजन हुआ था। उस समय बहुत प्रतिकूल और बहुत अनुकूल सरकार नहीं थी। लेकिन गांधी को टालना मुश्किल था। इस सरकार ने तो कोई राय-सलाह ही नहीं ली। यह सरकारी आयोजन है, इसमें गांधीजनों का कोई योगदान नहीं है। यह पूरी तरह प्रचार की योजना है। हां, प्रचार के लिए कुछ काम करना पड़ता है, जिससे दिखे कि हम कुछ कर रहे हैं। जो ब्रांड एम्बेसडर बनाए गए हैं, वे गांधी के नहीं, प्रधानमंत्री के ब्रांड एम्बेसडर हैं। जो एम्बेसडर बने हैं, उनका गांधी-दर्शन में कोई योगदान नहीं है।

दिखावे की रावणी नीति

देखिए, रावण की भूमिका क्या थी? उसका लक्ष्य था सीता का हरण। इसके लिए उसने संन्यासी का रूप धारण किया। रावण का वास्तविक स्वरूप विश्वसनीय नहीं था। जब उसने हरण कर लिया, तब वह असली स्वरूप में आया। मारीच सोने का मृग बन गया। आज लोग यह सब देख रहे हैं कि यह सब चल रहा है। जब सत्ता में आ जाते हैं तो इनका असली रूप सामने आता है। फिर भी मैं कहूंगा कि रावण तो फिर भी मर्यादित था, लंका में अशोक वाटिका में सीता को सुरक्षित रखा। इन्होंने तो कोई मर्यादा नहीं रखी। जितनी तरह से हो सकता है, सत्ता का दुरुपयोग किया जा रहा है। संविधान, हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को मजबूत करने की इजाजत नहीं देता। लेकिन हो रहा है। यह जो नीति है इसको मैं रावणी-नीति कहता हूं। अंदर कुछ और बाहर कुछ। 30 जनवरी को क्या हुआ? उस दिन इसी धारा का एक प्रतीक पुरुष नाथूराम गोडसे विनम्र-भक्ति भाव से बिड़ला भवन जाता है। उसका इरादा कोई पहचान नहीं पाता। जब वह झुका तो लोगों को लगा कि वह बापू के पांव छूने जा रहा है। पर इरादा हत्या का था और वाह्य स्वरूप ऐसा कि किसी को शंका नहीं हो। यानी इरादा सीताहरण का और वाह्यस्वरूप संन्यासी का। तो यह जो चरित्र और रणनीति है, यह रामायण काल से गांधी काल तक चली आ रही है।

संघ को नेहरू से नफरत क्यों?

भारत की राजनीति पर नेहरू का प्रभाव मजबूती से 25-30 साल तक रहा। नेहरू ने जो विदेश नीति बनाई थी, उसकी सीमाओं को पूरी तरह से लांघना इनके बस में नहीं है। कुछ मूल्य ऐसे थे जिसके लिए नेहरू पूर्ण थे। उनका फलक व्यापक था। अगर पंडित नेहरू की सरकार नहीं होती तो शायद लोकतंत्र नहीं होता। कुछ और ही स्वरूप बन गया होता। सांप्रदायिकता के मसले पर नेहरू ने जो काम किया, केवल कानून के बल पर नहीं किया। उनके भाषण पढ़िए, उस व्यक्ति का विराट चिंतन था। इन लोगों को आक्रामक इसलिए होना पड़ता है क्योंकि नेहरू ने देश को जो दिशा दी और जिस दिशा में देश आगे बढ़ा, तो आज भी नेहरू के प्रति लोगों में श्रद्धा है। नेहरू इनके मार्ग में बाधक हैं। नेहरू की जगह ये लोग स्वयं को स्थापित करना चाहते हैं, जो संभव नहीं है। नेहरू दिखावे से नेहरू नहीं बने थे। नेहरू ने देश की जनता के दिलों में जो प्रवेश किया, वह दिखावे से नहीं था।

(लेखक गांधी विचार के अध्येता और गांधी स्मारक निधि के सचिव हैं)

[साभारः नवजीवन के गांधीजी पर केंद्रित संग्रहणीय विशेषांक-2019 से]

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