विचार

खरी-खरी: बे’बस’ मजदूरों से आंखें मूंद मोदी-योगी, माया-अखिलेश सबने साबित कर दिया कि वे गरीब विरोधी हैं

बेचारा गरीब, मजदूर एवं कारीगर पैदल चल रहा है, मर रहा है और घर पहुंच कर भी भूखा मरेगा। यह देश अंबानी, अडानी जैसों के लिए बना है, गरीब मजदूरों के लिए नहीं। तभी तो सोलह मजदूर कट कर मर गए, गर्भवती महिला ने चलते-चलते बच्चा जन्मा या 33 मजदूर ट्रक से दबकर मर गए, परंतु इस देश के माथे पर शिकन नहीं पड़ी।

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आपने क्या यह कभी सुना था कि पैदल चलते-चलते इंसान मर जाए। एक गर्भवती औरत दो सौ किलोमीटर चलकर सड़क के किनारे बच्चे को जन्म दे और कुछ घंटों पश्चात वह अपने बच्चे को गोद में लेकर फिर चल पड़े। पैदल चलते-चलते मजदूर थक कर रेल की पटरी पर सो जाएं और ट्रेन उनको कुचल दे। भूखे और प्यासे मजदूरों को अगर कोई खाना-पानी परोसे तो उसको पुलिस की ओर से चेतावनी मिले कि आप नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। बेचारे मजदूर घर पहुंचने के लिए अपनी बची-खुची पूंजी लगाकर साइकिल खरीदें तो दरोगा जी उनकी साइकिल उठा कर रख लें और फिर बेच दें।

ऐसे किस्से-कहानियां प्रख्यात साहित्यकार सआदत हसन मंटो की कहानियों में तो पढ़ी थीं परंतु यह कल्पना कभी नहीं की थी कि वैसी ही घटनाएं, वैसी ही त्रासदी हमको और आपको इस इक्कीसवीं सदी में देखने और सुनने को भी मिलेगी। परंतु यह सब हमारी और आपकी आंखों के सामने हो रहा है।

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सन 1947 का पलायन इतिहास में प्रख्यात है। यह भी सब मानते हैं कि वह पलायन भारतीय उपमहाद्वीप के बंटवारे से उठी सांप्रदायिकता की लपटों की देन था। यह वह समय था जबकि वास्तव में भारत और पाकिस्तान- दोनों ओर लगभग कोई सरकार नहीं थी। अंग्रेज देश को सांप्रदायिकता की भट्टी में झोंककर जा चुके थे। भारत और पाकिस्तान में दो नई जन्मी सरकारों ने कमान तो संभाल ली थी परंतु सच यह है कि उस समय देश क्या, उनकी राजधानी दिल्ली और कराची तक में इन सरकारों की कोई अथॉरिटी नहीं दिखाई पड़ती थी। स्वयं गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू उस पलायन में आए लोगों की मदद के लिए सड़कों पर थे। जगह-जगह रिफ्यूजियों के लिए कैंप लगाए जा रहे थे। उनके खाने-पीने की व्यवस्था हो रही थी। टूटी-फूटी चंद माह पुरानी खाली खजाने वाली जवाहरलाल की सरकार उन परिस्थितियों में जो कुछकर सकती थी, वह अपनी क्षमता से अधिक कर रही थी।

आज इस देश की परिस्थितियां बिल्कुल भिन्न हैं। मोदी जी के भक्तों का मानना है कि मोदी जी से सशक्त नेता कोई हुआ ही नहीं। यह अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस समय केंद्र क्या देशभर में मोदी जी का डंका बज रहा है। उनके मुंह से निकला हर शब्द कानून है। अर्थात देश में व्यवस्था की कमी नहीं। यदि सरकार चाहे तो इन भूखे-प्यासे पलायन करते मजदूरों को खाने-पीने से लेकर उनके घर तक पहुंचाने की व्यवस्था पलक झपकते कर सकती है। परंतु मोदी सरकार लगभग एक माह इन मजदूरों को पैदल चलवाने के पश्चात इनके लिए ट्रेन चलाती है तो इन बेसहारा और पैसे से टूटे परेशानहाल लोगों से भाड़े के अतिरिक्त पचास रुपये अधिक वसूलती है। जब शोर मचता है तो सरकार कहती है कि भाड़ा कम कर दिया जाएगा। भारत-जैसी दुनिया की पांचवीं नंबर की अर्थव्यवस्था का गौरव रखने वाली मोदी सरकार को इन मजदूरों से किराया वसूलने पर शर्म नहीं आती जबकि होना तो यह चाहिए था कि वह इनका किराया माफ कर देती।

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प्रधानमंत्री जब बड़े गर्व से देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए 20 लाख करोड़ रुपयों के पैकेज का ऐलान करते हैं तो पैदल चल रहे इन लाखों मजदूरों के लिए हमदर्दी का एक शब्द भी नहीं बोलते। इन भूखे-प्यासों की मदद के लिए वित्त मंत्री केवल मनरेगा स्कीम के लिए रकम बढ़ाने की घोषणा करती हैं। अरे, मनरेगा का पैसा तो इन मजदूरों को तब मिलेगा जब वे जिंदा-सलामत अपने गांव पहुंच पाएंगे और फिर इस लायक बचेंगे कि गांव में मनरेगा स्कीम से जुड़कर मजदूरी कर सकें।

मोदी सरकार ने इन पैदल चल रहे मजदूरों के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया है, इतिहास उसको कभी भुला नहीं पाएगा। इस पूरी त्रासदी में यदि कोई एक बात उभरकर सामने आई है तो वह यह कि इस देश के प्रधानमंत्री के मनमें गरीबों के लिए कोई दर्द नहीं है। मोदी सरकार गरीब विरोधी सरकार है जिसको सड़कों पर मरते मजदूरों की लाशों पर भी रहम नहीं आता है। यह सरकार इन गरीबों को देगी भी क्या सिवाय इसके कि रेल भाड़े के नाम पर उनकी जेब से जो कुछ बचा-खुचा पैसा है, वह भी निकलवा लेगी। और तो और, भारतीय सभ्यता एवं राष्ट्रहित का हर पल और हर क्षण जाप करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इन गरीबों के भीषण संकट की घड़ी में कहीं दूर-दूर तक पता भी नहीं है। भूकंप और अन्य संकटों में स्वयंसेवक तो जरूर दिखते हैं लेकिन इस समय किसी स्वयंसेवक का कहीं दूर-दूर तक अता-पता नहीं है। और हो भी क्यों! संघ जिस भारतीय सभ्यता में विश्वास रखता है, वह सदियों पुरानी वर्ण व्यवस्था में जकड़ी सभ्यता है जिसमें गरीब, दलित और पिछड़ा मानव श्रेणी में गिना ही नहीं जाता। भला ऐसे संगठन को पैदल चल रहे मजदूर- कारीगरों की क्या चिंता।

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इसी संघ के एक और आदरणीय प्रचारक इस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। योगी आदित्यनाथ जी की सरकार ने तो इन गरीबों की ‘सेवा’ में नए रिकॉर्ड कायम किए हैं। कांग्रेस की ओर से जब प्रियंका गांधी ने पैदल चल रहे मजदूरों के लिए बसों की व्यवस्था की तो योगी सरकार ने दिल्ली-उत्तर प्रदेश बॉर्डर पर यह कहकर बसों को रोक दिया कि इन बसों के पास उत्तर प्रदेश में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। जब प्रियंका जी ने शोर मचाया तो सरकार ने कहा कि कांग्रेस अनुमति के लिए एक लिस्ट जमा करे। कांग्रेस ने जब लिस्ट जमा कर दी तो यह कह कर बसों को उत्तर प्रदेश में अनुमति नहीं दी कि जो लिस्ट है, वह सही नहीं है। इसमें टैम्पो, ट्रक एवं ऑटो जैसे साधनों के नंबर शामिल हैं। अरे भाई, मुद्दा यह है कि जिस साधन से हो, ये मजदूर पैदल चलने से बच जाएं और किसी प्रकार अपने घरों को पहुंच जाएं। पर योगी सरकार को यह मंजूर नहीं कि गरीब पैदल चलने से बचे। क्योंकि योगी जी भी तो उसी विचारधारा से जुड़े हैं जिसमें गरीब मानव नहीं है। अतः वह मरे या जिये, बस पैदल ही चले। तभी तो विदेशों में फंसे भारतीयों के लिए स्पेशल हवाई जहाजों की सुविधा, गरीब मजदूर ट्रक एवं टैम्पो में भी नही जा सकता है। स्पष्ट है किउत्तर प्रदेश सरकार भी गरीबों का वोट तो लेती है, पर उनके संकट में उनके किसी काम की नहीं है।

किस-किस का रोना रोइए और किसकी-किसकी शिकायत दर्ज कीजिए! एक कांग्रेस पार्टी के सिवाय कौन-सा राजनीतिक अथवा सामाजिक संगठन इन पैदल चल रहे मजदूरों के हक में खड़ा हुआ। सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तक हर किसी ने गरीबों का दुख बांटने की चेष्टा की। सोनिया गांधी ने स्वयं प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर गरीबों की सहायता का आग्रह किया। राहुल गांधी ने सरकार को सुझाव दिया कि सरकार सीधे गरीब के हाथ में पैसा दे। जब राहुल गांधी ने स्वयं इन मजदूरों से मिलकर उनका दुख बांटा और उनको कार से छुड़वाने की व्यवस्था की तो वित्त मंत्री ने राहुल का मजाक बनाया। प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के माध्यम से गरीब किचन चलवाकर लाखों लोगों को खाना बांटा। पैदल चल रहे मजदूरों के लिए बसों की व्यवस्था की तो योगी सरकार ने बसों को उत्तर प्रदेश में घुसने से रोक दिया।

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उधर, सामाजिक न्याय का दम भरने वाली ‘दलित महारानी’ मायावती एवं उनकी बहुजन समाज पार्टी का कहीं कोई अता-पता ही नहीं है। दलितों का वोट बटोरने वाली मायावती पैदल चल रहे लाखों दलितों के हित में एक बयान देने से भी कतरा रही हैं। इसी प्रकार पिछड़ों के मसीहा मुलायम सिंह यादव, उनके सुपुत्र अखिलेश यादव देश में हैं या नहीं, यह भी नहीं पता चलता है। उधर, अतिपिछड़ों का दम भरने वाले नीतीश कुमार ऐसे सन्नाटे में हैं जैसे कहीं कोई समस्या ही नहीं है। दलित, पिछड़े एवं अतिदलित को तो इन‘सामाजिक न्याय’ में विश्वास रखने वाले नेता एवं पार्टियां केवल वोट बैंक के रूप में प्रयोग कर अपनी सत्ता खड़ी करते हैं। सामाजिक न्याय तो बस एक ढोंग है।

बेचारा गरीब, मजदूर एवं कारीगर पैदल चल रहा है, मर रहा है और घर पहुंच कर भी भूखा मरेगा। यह देश अंबानी, अडानी जैसों के लिए बना है, गरीब मजदूरों के लिए नहीं। तभी तो सोलह मजदूर कट कर मर गए, गर्भवती महिला ने चलते-चलते बच्चा जन्मा या 33 मजदूर ट्रक से दबकर मर गए, परंतु इस देश के माथे पर शिकन नहीं पड़ी।

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