विचार

मृणाल पांडे का लेख: ‘विकास’ और विध्वंस से पानी-पानी होती मातृभूमि

2013 में केदार घाटी में झील तथा अब चमोली में ग्लेशियर फटने से हुई तबाही गवाह हैं कि एक पर्यावरण क्षरण के शिकार बन चले इलाके में जल, यातायात या अंधाधुंध मैदानी तरह के विकास का वर्गगत हित स्वार्थ या राजनीतिक चालबाजी के चश्मे से देखकर बना ब्लूप्रिंट लादना आखिर में कितना खतरनाक साबित होता है।

फोटो : Getty Images
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पिछले एक लंबे दौर में सरकार किस तरह विकास कार्यों की बाबत स्थानीय समाज की जायज चिंताओं और अनुभव समृद्ध सुझावों को लगातार दरी तले सरकाती रही है, उत्तराखंड की ताजा तबाही उसी का आईना है। खतरे से पहले कुदरत की भाषा समझने वाले लोग कह रहे थे कि इस अतिसंवेदनशील पर्यावरण वाले इलाके में मैदानी इलाकों की तर्ज पर बड़ी- बड़ी सड़कों या पावर परियोजनाओं के निर्माण पर पुनर्विचार किया जाए। जब राष्ट्रीयकरण का बाजारीकरण करते हुए उसे उदारीकरण और विकासशीलता का जामा पहना दिया जाए तो न तो जनता की फरियादों पर सरकार खुले मन से उनके तर्क और संशय सुनती है, और न ही अपनी परियोजनाओं पर पुनर्विचार को राजी होती है। यही कारण है कि हिमालयीन क्षेत्र में साल-दर-साल एक बड़ा कुदरती झटका महसूस होने लगा है।

जिस रैणी गांव पर ताजा बाढ़ का सबसे बुरा असर पड़ा है ,वहां के कुंदन सिंह ने 2019 में हाईकोर्ट में याचिका डाली थी कि ॠषिगंगा तथा धौलीगंगा के बगल में पड़ने वाले उनके इलाके के लोग इस भूस्खलन से बार-बार पीड़ित इलाके में बड़ी परियोजनाओं को रोकना चाहते हैं। उनसे संभावित पर्यावरण क्षति के साथ उनकी आड़ में चोरी छुपे विस्फोटकों से किए जाते खनन की संभावना पर जनता तथा वैज्ञानिकों से सीधा संवाद हो, उनको सही सूचना दी जाए। जैसा कि लोकल लोगों को डर था, सैलाब आया और दो बड़ी परियोजनाएं (निजी कंपनी की ॠषिगंगा पावर प्रोजेक्ट और तपोवन में एनटीपीसी की पावर परियोजना) लगभग पूरी तरह मिट गईं।

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ऐसा क्यों हुआ इस पर बहस जारी है लेकिन याचिका से साफ है कि जब गांव वालों से इन परियोजनाओं के लिए उनकी जमीन ले ली गई तो उसके बाद लोकल लोग वायदे के मुताबिक न तो वांछित रोजगार पा सके, न ही इतना मुआवजा कि वे कहीं और जा बसें। याचिका का संज्ञान लेकर कोर्ट ने जिलाधिकारी और राज्य के पर्यावरण प्रदूषण बोर्ड से जवाब तलब किया तो, पर तब से अब तक मामला विचाराधीन है।

यही हाल बहुचर्चित चार धाम यात्रा की तहत सड़कों के विस्तार का है। स्थानीय भूगर्भशास्त्रियों की रपटों के बावजूद 2013 की केदार घाटी दुर्घटना से सबक न लेते हुए केदारनाथ, बद्रीनाथ, यमुनोत्री व गंगोत्री को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना का 2016 में धूमधाम से शिलान्यास हुआ। बताया जाता है कि इसके लिए 700 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण हुआ और 47 हजार से अधिक पेड़ काटे गए। काम शुरू होने पर जल्द ही निर्माणाधीन इलाका भारी भरकम खुदाई की मशीनों तथा नदियां खुदाई से बनी गाद से भरने लगीं। इस बाबत नागरिकों की जनहित याचिका की सुनवाई हुई तथा सर्वोच्च अदालत ने फैसला दिया कि सड़कों के चौड़ीकरण को कुछ कम किया जाए, पर तब तक ताजा विनाश की इबारत लिखी जा चुकी थी।

नंदा देवी पर्वत के पास भूस्खलन या बर्फ के स्खलन और सिकुड़ते ग्लेशियर के मिले-जुले असर से 7 फरवरी को अचानक बर्फ, बड़ी चट्टानों और भारी पानी की सुनामी सी उमड़ी और रैणी और परियोजनाएं, भवन एवं पुल जल में समा गए।

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इलाके के लोग कहते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने से हिमालयीन क्षेत्र की नदियों और जंगलों से मिलने वाली संपदा के साथ यहां की बिरही, मंदाकिनी, भागीरथी और अलकनंदा जैसी मनमौजी पहाड़ी नदियों के जल स्तर के अचानक घटते-बढ़ते रूपों की जानकारी का लेन-देन होता रहा है। 18वीं सदी के उत्तरार्ध तक अंग्रेज शासक तिब्बत, नेपाल तथा चीन से जुड़ती सीमा वाले मध्य हिमालय क्षेत्र का सामरिक महत्व, अर्थव्यवस्था और उसके कुदरती संसाधनों में छुपी अपार संभावनाएं और खतरे समझने लगे थे। उनकी राय बनी कि उत्तरी इलाके से कंपनी की कमाई बढ़ाने और इलाके में अपने अफसरान के रहन-सहन के लिए यहां विकास की रफ्तार को तेज करना होगा। पहली जरूरत थी पानी। लिहाजा तब नॉर्थ वेस्टर्न सूबा कहलाने वाले इलाके के अधिकारियों ने लंदन स्थित ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्यालय से गंगा की धारा का एक अंश अपने सैन्य इंजीनियरों द्वारा मेरठ छावनी तक पहुंचाने की दरख्वास्त दी। इसी के फलस्वरूप रुड़की में नई साइंस तकनीकी प्रशिक्षण को रुड़की का इंजीनियरिंग कॉलेज बना।

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रुड़की तब कोई 5-7 हजार की आबादी वाला छोटा कस्बा था जहां कोई इंजीनियरिंग कॉलेज क्या, सरकारी स्कूल तक नहीं था। पर तब भी वहां जल प्रवाह के कुदरती नियम और मिट्टी चूने-गारे के तमाम गुणावगुण जानने वाले लोकल राज मिस्तरी मौजूद थे। उनकी मदद से बनवाया गया मानवीय हाथों से परिसीमित गंगनहर नाम का यह जल प्रवाह, अक्वाडक्ट, आज भी सिविल इंजीनियरिंग का श्रेष्ठ नमूना माना जाता है। इसी जलधारा ने नवंबर, 1847 में रुड़की के मैदानी इलाके में गंगा का सहज अवतरण कराया।

अंग्रेजों के लिए भले ही नदी के ऊपर से नहर निकालने की इस सारी जटिल मुहिम का इकलौता उद्देश्य अपनी सेना छावनी तक जल प्राप्ति तय करवाना था, पर राज मिस्त्रियों की राय तब भी नदियों के स्रोतों और मार्ग को अवरोध विहीन रखने और पहाड़ों से अधिक छेड़छाड़ न करने के पक्ष में रही जिससे अंग्रेज इंजीनियर भी सहमत हुए। काम स्वीकृत हुआ और इस काम को करवाते हुए खुद अंग्रेज इंजीनियरों और हाकिमों ने स्थानीय वास्तुकारों के सिखाए परंपरागत नजरिये को अंगीकार किया। माना, कि जलधारा अपने आप में एक जीवंत उपस्थिति है। यह भी, कि जल अपनी राह, अपना बहाव और अपना इलाका कभी नहीं भूलता। इंजीनियरी का काम पूरा होने के बाद इंजीनियरों को निडर बोली के अभ्यस्त स्थानीय वास्तुकारों ने साफ कहा, कि साहबो, गंगा के इस पानी को पैसे से कीमती और पवित्र मानकर उसका सही रख रखाव करना।

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स्थानीय वास्तुकार जानते थे कि विराट पहाड़ों से भरा उनका इलाका गंगा की तमाम सहायक नदियों, उपनदियों का मायका है। ॠषिगंगा मिलती है धौलीगंगा से, धौलीगंगा जिसने तबाही मचाई, वह बाद को भागीरथी से मिलकर ॠषिकेश पहुंचते गंगा बन जाती है। नदियों और वन कटाव से उनके तथा मिट्टी में आ रहे बदलाव का शिलालेख रैणी गांव की औरतों ने सबसे पहले पढ़ा और 1975 में पर्यावरण संरक्षण का संभवत: तब सबसे बड़ा ‘चिपको’ आंदोलन शुरू किया। उनकी मांग थी कि नदियों से भरे इलाके में पेड़ ही हैं जो बर्फीली हवाएं और बरसात सह कर भी मिट्टी-पत्थर को जमाए रखते हैं। इसलिए पेड़ों का बेसिरपैर कटान रोका जाए।

तब से अब तक अलकनंदा और गंगा में बहुत पानी बह चुका है। पर लोकल पर वोकल का नारा देने वाले केदार घाटी के मलबों पर लिखे शिलालेख पढ़ने की बजाय नया मलबा उगलने की तैयारी करने पर तुल गए। जब उत्तराखंड अलग राज्य बना, कुछ समय बाद भाजपा की सरकार आई और तब से अब तक धर्म इस इलाके में सच्ची तपस्याया सात्विक मनन का कम, राजनीति और अर्थनीति का केंद्र अधिक बनता चला गया है। कहा गया यह देवभूमि है, यहां धार्मिक पर्यटन को जितने टूरिस्ट आएंगे, उतना रोकड़ा आएगा। इस दर्शन ने इलाके का स्वरूप और स्वभाव- दोनों बदले। पर्यावरण की चिंता किसको थी? बस, कुछ संवेदनशील नागरिक संगठन थे जो पर्यावरण रक्षा की ध्वजा थामे जनहित याचिकाएं दायर करते रहे। आज के मुहावरे में शायद वे आंदोलन परजीवी कहलाएं। कुछ वैज्ञानिक भी शोध रपटों में वाजिब चिंता जताते रहे। लेकिन उससे क्या सरकार कभी गुफा में बैठ कर ध्यानस्थ ॠषि नजर आती तो कभी कारबेट पार्क में पर्यटक। इससे पिछले छह-सात सालों में देवभूमि के नाम से इलाके की एक धार्मिक पर्यटन स्थली की बतौर भारी ब्रांडिंग हुई और टूरिज्म का महारथ चल निकला तो चल ही निकला।

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2013 में केदार घाटी में झील तथा अब चमोली में ग्लेशियर फटने से हुई तबाही गवाह हैं कि एक पर्यावरण क्षरण के शिकार बन चले इलाके में जल, यातायात या अंधाधुंध मैदानी तरह के विकास का वर्गगत हित स्वार्थ या राजनीतिक चालबाजी के चश्मे से देखकर बना ब्लूप्रिंट लादना आखिर में कितना खतरनाक साबित होता है। ईश्वर को धन्यवाद है कि शुरुआती आशंका के विपरीत जल का यह सैलाब ॠषिकेश और हरिद्वार में पहुंचकर अर्धकुंभ के नाम पर महीनों से न्योते गए लोगों को खतरे में नहीं डाल पाया। लेकिन प्रभावित इलाके में विशेष सुरक्षाबलों को हेलीकॉप्टर से भेजकर मजदूर लोगों को सुरंगों से बाहर निकलवाना आग लगने पर कुंआ खोदने समान लगता है।

दिल्ली के बाहर से लेकर देहरादून तक जनता अपनी जमीन और पानी बचाने के लिए आंदोलन करती है, पर दिल पर हाथ रखकर कहें, आज जल, जंगल, जमीन किस पर जनता का कितना हक रह गया है? विपक्ष को षडयंत्रकारी या अदृश्य विदेशी हाथों को दोषी ठहराना और जनता के जल, जंगल तथा जमीन के हकों के लिए आवाज उठाने वालों को परजीवी करार देना बहुत हो गया। भारत बना तो हम ऐसे समाज का सपना लेकर बड़े हुए थे कि देश के भूगोल और बाजार पर आम किसान और शहरी का नियंत्रण बना रहेगा। उसका वह हक न मिटे, इसकी फिकर बाजार नहीं करेगा। यह काम हमको ही करना होगा।

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