विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: ठंड के मौसम में गर्म है मूर्खता का बाजार!

बहुत से अपनी खानदानी मूर्खता के ठोस दस्तावेज जिला प्रशासन के सामने प्रस्तुत कर मूर्ख होने का प्रमाणपत्र ले आए हैं। प्रशासन को निर्देश हैं कि सभी दस्तावेजों का सत्यापन करने के बाद सुपात्रों को मूर्खता का प्रमाणपत्र जारी किया जाए।

प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर 

मौसम ठंडा है मगर मूर्खता का बाजार बेहद गर्म है। हर कोई जो कुछ पाना चाहता है या कुछ पाकर, कुछ और, फिर कुछ और पाना चाहता है, वह यह सिद्ध करने में लगा है कि वह केवल मूर्ख नहीं है बल्कि परम मूर्ख है। वह खानदानी मूर्ख है, इसलिए परम मूर्ख है। उसके परदादा के परदादा भी मूर्ख थे और इस कारण उन्होंने अपने समय में बहुत तकलीफें झेलीं। बहुत अपमान सहा। आज उस अपमान का बदला लेने का समय आ चुका है ‌‌।उनका सम्मान उन्हें लौटाने का अवसर आ चुका है। हमें परम मूर्ख मानने का मौसम आ चुका है।

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बहुत से अपनी खानदानी मूर्खता के ठोस दस्तावेज जिला प्रशासन के सामने प्रस्तुत कर मूर्ख होने का प्रमाणपत्र ले आए हैं। प्रशासन को निर्देश हैं कि सभी दस्तावेजों का सत्यापन करने के बाद सुपात्रों को मूर्खता का प्रमाणपत्र जारी किया जाए। इस आदेश की रोशनी में लोग तीन -तीन, चार-चार दिन लाइन लगाए खड़े रहते हैं। फिर भी उनका नंबर नहीं आता। झगड़े हो रहे हैं, मारपीट हो रही है, छीनाझपटी की घटनाएं आम हो गई हैं। मूर्खता के दावों का वेरिफिकेशन करनेवाले अधिकारी तगड़ी रिश्वत ले रहे हैं। मंत्रियों की सिफारिश काम नहीं आ रही हैं। फिर भी लोग डटे हुए हैं। टस से मस नहीं हो रहे हैं।

लोग जल्दी में हैं। उन्हें विश्वास नहीं है कि मूर्खता का यह स्वर्णकाल लंबा चलेगा! इसलिए 'काल करे, सो आज कर, आज करे, सो अब' की भावना के वशीभूत होकर नंबर लगाए हुए हैं। हताश होकर भी हताश नहीं हो रहे हैं।  वैसे इस क्यू में ऐसे तत्व भी शामिल हो गए हैं, जो फर्जी मूर्ख हैं। अवसरवादी मूर्ख हैं। कल तक जो सेमिनारों में अपनी विद्वत्ता झाड़ते हुए नहीं थकते थे, तालियां बटोरते रहते थे, राजकीय सम्मान पाते थे, आज अपने को मूर्ख साबित करने के लिए जीतोड़ प्रयत्न कर रहे हैं। इस ठंड में वे भी सुबह चार बजे लाइन लगा रहे हैं। रिश्वत देकर मूर्खता का प्रमाणपत्र लेने की कोशिश कर रहे हैं। लोग ऐसे तत्वों को अच्छी तरह जानते हैं मगर यह सोचकर चुप हैं कि चलो इनका भी भला हो जाए तो बुरा नहीं।

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आजकल मूर्ख होना ही बुद्धिमत्ता का, स्मार्टनेस का सबसे बड़ा प्रमाण है। सरकार की इस घोषणा के बाद कि खानदानी मूर्खों को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर नौकरियां, लाइसेंस, परमिट,  ठेके आदि दिए जाएंगे, हर कोई अपने को 'खानदानी मूर्ख' सिद्ध करने में लगा हुआ है। अगर उसके पूर्वजों ने कुछ ऐसे काम किए हैं, जिनसे उनकी विद्वता सिद्ध होती है तो उसे भी उनकी मूर्खता का प्रमाण बताया जा रहा है।

किसी स्तर पर किसी तरह की शंका न रह जाए, इसलिए ऐसे मूर्ख- विद्वान पैरोकारों की सेवाएं ली जा रही हैं, जो यह सिद्ध करने में प्रवीण हैं कि इन सज्जन के पूर्वज मूर्ख थे मगर अपने समय की नज़ाकत को समझते हुए अपने को विद्वान साबित कर रहे थे।वे ईमानदारी से मूर्ख थे, बेईमानी से बुद्धिमान। उनका यह अपराध क्षमायोग्य है।

इससे पहले मूर्ख होने के लिए इतिहास में कब ऐसी भगदड़ मची थी, यह बड़ा से बड़ा विद्वान भी आज निश्चयात्मक ढंग से नहीं बता पा रहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ मगर कुछ दूसरे विद्वान कहते हैं कि यह कहना विज्ञानसम्मत नहीं है। इतनी लंबी परंपरा में ऐसे युग बार- बार आए और गए होंगे। इस विषय में गहन शोध नहीं होने के कारण भ्रम बना हुआ है।

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कुछ विद्वानों का आकलन है कि बुद्धिमत्ता का युग फिर से लौटेगा। इसी आशा में वे धीरज रखकर विद्वान बने हुए हैं। मूर्खता का प्रमाणपत्र लेना स्थगित किए हुए हैं। इसके विपरीत उतने ही समर्पित कुछ दूसरे विद्वानों का कहना है कि ऐसा सोचना एक छलना के सिवाय कुछ नहीं है। मूर्खता, विद्वत्ता से कहीं अधिक शक्तिशाली होती है। वह हमेशा छप्पन इंची होती है ,जबकि विद्वत्ता का सीना 56 सेंटीमीटर से अधिक बड़ा नहीं हो पाता है। विद्वत्ता भी अगर छप्पन इंची रूप धारण करती हुई लगे तो यह समझना चाहिए कि मूर्खता, विद्वत्ता के नये अवतार में प्रकट हो चुकी है। इन विद्वानों की मान्यता है कि मूर्खता राजकीय संरक्षण और प्रोत्साहन पाकर महाबली हो चुकी है। वैसे तो कोई भी सत्ता ऐसी नहीं होती, जो कम या अधिक मात्रा में मूर्खता को संरक्षण न देती हो। अंतर यह आया है कि पहले यह काम पर्दे के पीछे होता था। शर्म और झिझक के साथ होता था। इससे अपराध बोध जुड़ा होता था। इस पर सवाल उठते थे। अब खुला खेल फर्रुखाबादी है। अब यह शासकीय नीति का अभिन्न अंग बन चुका है। अब सवाल उठाने की मनाही है, इस कारण बुद्धिमत्ता का युग जल्दी नहीं आएगा।  

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