विचार

विष्णु नागर का व्यंग: देश की इससे बड़ी बदकिस्मती और क्या होगी, एक आदमी 11 साल से केवल डायलॉग मार रहा है!

अगर डायलॉगबाजी से ही देश चल सकता है तो फिर सलीम -जावेद क्या बुरे हैं, क्यों नहीं उन्हें इस देश की बागडोर सौंप देना चाहिए बल्कि ज़ावेद अख्तर अकेले भी इस जिम्मेदारी को अच्छी तरह संभाल सकते हैं।

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फोटो: Getty Images Artur Widak

इस बंदे को घटिया फिल्मी डायलॉग मारना खूब आता है। लगता है इसके पास डायलॉग राइटरों की एक पूरी फौज है, जिसका काम इसके लिए हर मौके के लिए डायलॉग सप्लाई करना है।इस घटिया काम का अच्छा खासा खर्च हम सब उठा रहे हैं। यह टीम रोज इस आदमी को डायलॉगों का पुलिंदा थमाती है और ये आदमी टेलीप्रांप्टर के सामने उसे उलट देता है और समझता है कि मैंने मैदान मार लिया, इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा लिया। इतने बड़े, इतने पुराने और इतनी विविधताओं से भरे देश की इससे बड़ी बदकिस्मती और क्या होगी कि इसे एक ऐसा आदमी ग्यारह साल से चला रहा है, जो केवल डायलॉग मारना जानता है।

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अगर डायलॉगबाजी से ही देश चल सकता है तो फिर सलीम -जावेद  क्या बुरे हैं, क्यों नहीं उन्हें इस देश की बागडोर सौंप देना चाहिए बल्कि ज़ावेद अख्तर अकेले भी इस जिम्मेदारी को अच्छी तरह संभाल सकते हैं। आज की फिल्मों को इनकी खास जरूरत नहीं, इसलिए ये इस समय बिलकुल खाली हैं। समय की इनके पास कोई कमी नहीं है और ये देश की सेवा के लिए आसानी से उपलब्ध हैं। ये इतने देशभक्त हैं कि देश के लिए डायलॉगबाजी करने का एक पैसा भी नहीं लेंगे बल्कि इनकी सभाओं में जनता टिकट लेकर आएगी तो ये उस पैसे को खुद नहीं हड़पेंगे बल्कि  देश के किसी काम में लगा देंगे। और सबसे बड़ी बात ये टेलीप्रांप्टर को देखे बिना इतने बढ़िया डायलॉग बोलेंगे कि सुननेवाले झूम जाएंगे। नीचे से वन्स मोर -वन्स मोर की आवाज आया करेगी। अच्छे खासे मुशायरे और कवि सम्मेलन का मिला-जुला माहौल पूरे देश‌ में बन जाएगा।

ग़ालिब और निराला की कविताएं सुनने को मिलेंगी तो लोगों के दिमाग का जहर भी घुलेगा।इनकी वजह से रैलियों  नक्शा पूरी तरह बदल जाएगा।जनता झोली भर- भर इन्हें वोट देगी और ये उससे थोड़े बेहतर ढंग से देश चलाते रहेंगे,जैसे वो फकीर अभी तक चला रहा है,जो झोला उठाकर चल देने के लिए न जाने कब से आतुर है!

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एक फायदा यह भी होगा कि इनमें से कोई भी प्रधानमंत्री बना तो हिंदू- मुस्लिम नहीं करेगा।ये चोरी- डकैती भी नहीं करेंगे।अडानी के हाथों शायद देश को ये दोनों हाथों से लुटाएं भी नहीं।ईडी के अधिकारियों की रोज- रोज छापा मारने की परेशानियां कम हो जाएंगी, उन्हें खराब काम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की बार -बार डांट भी खाना न पड़ेगी! 

ये डायलॉग इतने बेहतरीन लिखेंगे और बोलेंगे,जो हास्यास्पद नहीं लगेंगे। सबसे बड़ी बात सोशल मीडिया पर कोई इन्हें अनपढ़ नहीं कहेगा।इनकी डिग्री पर संदेह नहीं करेगा। डायलॉगबाजी के काम में इनकी योग्यता पर कोई शक नहीं करेगा! 

पहले डायलॉगबाजी से फिल्में चला करती थीं,अब चूंकि राजनीति चल रही है और राजनीति किसी न किसी बूढ़े को ही चलाना है तो सलीम- जावेद से अधिक योग्य आज इस देश में कोई नहीं है। इनके आने से कम से कम डायलॉगबाजी इतनी निम्नस्तरीय और हास्यास्पद तो नहीं होगी, जितनी कि आज है।'मोदी की नसों में खून नहीं, गर्म सिंदूर बह रहा है, ' टाइप ऊटपटांग बातें तो न होंगी,जिस पर लोग तब तक हंसते रहेंगे,जब तक कि मोदी इस धरती पर जिंदा रहेंगे! गुरुवार को प्रधानमंत्री ने बीकानेर में जो कहा,वह विशुद्ध डायलॉगबाजी है मगर उसे सुनकर सिर धुनना पड़ता है।एक के बाद, दूसरे के बाद तीसरा, तीसरे के बाद चौथा डायलॉग है।'जो सिंदूर मिटाने निकले थे, उन्हें मिट्टी में मिलाया है।' 'जो हिंदुस्तान का लहू बहाते थे,आज कतरे- कतरे का हिसाब चुकाया है।'

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सलीम- जावेद आपरेशन सिंदूर पर भी इतने बेतुके, इतने मूर्खतापूर्ण डायलॉग नहीं बोलेंगे। वे भी प्रचलित राष्ट्रवाद की भाषा में ही डायलॉग बोलेंगे मगर वे जहां रुलाना चाहेंगे, वहां हंसी नहीं आएगी और जहां  वे हंसाना चाहेंगे, वहां रोने को मन नहीं करेगा। अगर ये इतने नाकाबिल होते तो 'शोले 'आदि फिल्में कभी इतनी न चल पातीं। इतनी सफल नहीं हो पातीं। अगर ये अपने काम के उस्ताद न होते तो ये भी माननीय की तरह चालीस या पैंतीस साल तक भिक्षा मांग रहे होते !इस आदमी के डायलॉग सुनकर हंसने लगो तो रोना आता है और रोने लगो तो हंसी आती है।

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इसके डायलॉग सुनकर 'मेरे पास मां है' या 'मोगेम्बो खुश हुआ' या 'हम जहां खड़े हो जाते हैं, वहीं से लाइन शुरू हो जाती है' आदि की याद आती है और लगता है कि यार इससे अच्छे तो सलीम जावेद हैं। हमारे प्रधानमंत्री के डायलॉग देखिए: 'बारह रुपए में कफ़न भी नहीं मिलता, मैं बीमा लेकर आया हूं।' 'मुझे देश के लिए मरने का मौका नहीं मिला लेकिन मुझे देश के लिए जीने का मौका मिला है।' 'मैं संतरी बनकर बैठा हूं, किसी को लूटने नहीं दूंगा।' 'मैं न खाऊंगा,न खाने दूंगा।' 'मैं उन लोगों में से नहीं हूं,जो मक्खन पर लकीर खींचते हैं।' ज्यादा से ज्यादा क्या कर लोगे मेरा, अरे, हम तो फकीर आदमी हैं, झोला ले के चल देंगे'।एक डायलॉग ' अच्छे दिन ' था।हर साल दो करोड़ नौकरियां देना भी एक डायलॉग था।15-15 लाख रुपए हर भारतीय के हिस्से आएंगे,यह भी एक डायलॉग था मगर सब के सब पिट गए!यह आदमी फिल्मों में जाता तो चल नहीं पाता।इसकी एक्टिंग आज भी पारसी थियेटर से ऊपर नहीं उठ पाई है और डायलॉग थर्ड क्लास हैं। प्रोड्यूसरों का दिवाला पिटना ही था मगर फायदा देश को होता।तब जो भी बुरा होता, फिल्मों का होता, उनके प्रोड्यूसरों, डायरेक्टरों,एक्टर, एक्ट्रेसों का होता मगर देश तो बच जाता!

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