आयरलैंड की एजेंसी- कंसर्न वर्ल्ड वाइड और जर्मनी के वेल्ट हंगर हिल्फे द्वारा भुखमरी की समीक्षा करने वाली वार्षिक संयुक्त रिपोर्ट- वैश्विक भुखमरी सूचकांक पर विवाद अपनी जगह, इसने एक ही देश में दो देश- भारत बनाम इंडिया की बात को फिर सतह पर ला दिया है। यह ग्रामीण और शहरी के बीच विभाजन या किसानों, शारीरिक श्रम करने वालों और सफेदपोशों के बीच अंतर है। पहले इस विभाजन का अपना दबाव था और यह बातें सुनने को बाध्य करता था। इसने राजनीति और नीति- निर्माण को कई दफा बदल दिया, भले ही उसकी गति धीमी थी और कई बार यह सत्ता और विशेषाधिकार का उपयोग करने का दावा करने वाले लोगों में भी उलझन पैदा कर देती थी। लेकिन प्रतिरोध असरकारी थे; इसकी राजनीतिक पूंजी थी और इसे औचित्यपूर्ण मांग के तौर पर स्वीकार किया जाता था। श्रमिक यूनियनों की आवाज असरकारी थी। किसान भी इकट्ठा हो सकते थे और सरकारें भी सुनती थीं।
लेकिन इन दिनों स्थितियां भिन्न हैं। किसान एक साल से भारी विरोध कर रहे हैं और हस्तक्षेप न करने वाले कानूनों के खिलाफ उनकी आवाज का तिरस्कार और पूरी तरह नकार है जो उन तरीकों में मूलभूत परिवर्तन का संकेत है जिनमें उन्हें आने वाले दिनों में रहना और काम करना है।
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इसी तरह, भारत में बाल मृत्यु दर पर उठ रही आवाज तथा बच्चों, माताओं और परिवारों की चीत्कारों पर कोई सुनवाई नहीं है। इनके भी मूलभूत अधिकारों को देखने वाला कोई नहीं है। यह सच है कि यह कोई नई समस्या नहीं है लेकिन पहले की सरकारें इन चिंताओं को दूर करने के लिए आधे-अधूरे मन से ही सही, कम-से-कम प्रयास तो करती थीं। अब हमने चेहरे ही घुमा लिए हैं। यह ऐसा ही है जैसे क्रूर संसदीय बहुमत के संदर्भ में इनका कोई मतलब ही नहीं है। यह ‘उन लोगों’ बनाम ‘हम लोगों’ है। इस तरह, कल के विभाजन आज अधिक चौड़े हो गए हैं।
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इसे कई स्तरों पर देखा जा सकता है। पहले लॉकडाउन के समय प्रवासी श्रमिकों के साथ व्यवहार हम देख चुके हैं। इसके उलट बाद में उद्योगपतियों ने उन्हें लौटने को बाध्य किया और उनके श्रम अधिकारों में कटौती कर दी गई। महामारी के समय आम नागरिक ऑक्सीजन के लिए संघर्ष करते रहे। इसके विपरीत अस्पतालों ने उन्हें किस तरह निचोड़ा और धन इकट्ठा किया। खूबसूरत राजधानी किस तरह बनाई जा रही जबकि आम आदमी के लिए संसाधन किस तरह ढहते जा रहे हैं। होटलों में किस तरह जगह नहीं हैं और हवाई अड्डों पर भीड़भाड़ है जबकि हर साल ग्रेजुएट होकर निकलने वाले युवा नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। रोजाना 100 से अधिक लोग सांप के काटने से मर रहे हैं, दूसरी तरफ अपने कुछ बढ़िया अस्पतालों में उन्नत हेल्थकेयर सुविधाएं हैं। विचाराधीन कैदी जेलों में रहने को अभिशप्त हैं और फादर स्टेन स्वामी की हिरासत में मृत्यु हो जाती है जबकि मुंबई के पूर्व पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह गायब हो जाते हैं और जिस पुलिस बल का उन्होंने कभी नेतृत्व किया था, वही उन्हें खोज रही है। एक दिन यहां बुलेट ट्रेन भी दौड़ने लगेगी जबकि अनेकों वर्तमान रेलवे स्टेशन जीर्ण- शीर्ण अवस्था में हैं।
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इसलिए यह हंगर इंडेक्स बस एक और संकेत है कि भारत किस तरह पिछड़ता जा रहा है।
यह भी पहली दफा है जब हमें ऐसी सरकार मिली लगती है जो एक खास विचाराधात्मक खांचे में है कि भारत का समय आ पहुंचा है, कि बिजनेस ही नेतृत्व करेगा, कि खुशहाली बरसेगी और सरकार पीछे की सीट पर रह सकती है और प्राइवेट सेक्टर हमें जीडीपी के नेतृत्व वाले निर्वाण की ओर ले जाएगा। हमें बताया जा रहा कि समाजवाद खराब था, नेहरू गलत थे, गांधी कोई महान नहीं थे और प्राइवेट सेक्टर के लोग (या उनमें से कुछ) भारत को ऊंचाई पर पहुंचाने के प्रयत्नों का बस इंतजार कर रहे हैं।
सच्चाई तो यह है कि हम लुढ़क रहे हैं और हंगर इंडेक्स रिपोर्ट इसका एक और चिह्न है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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