विचार

कैसा लोकतंत्र जब सरकार से जुड़ी सूचनाएं ही हो जाएं नदारद, और कैसे तय होगी सरकार की जवाबदेही!

सरकार के काम और संस्थाओं के प्रदर्शन की बुनियादी सूचनाएं ही अगर सामने नहीं आएंगी तो लोकतंत्र को क्या होगा? क्या होगा जब नागरिकों को पता ही नहीं होगा कि पुलिस थानों और सरकारी दफ्तरों में क्या चल रहा है और फिरवे सरकार को कैसे जिम्मेदार या जवाबदेह बनाएंगे?

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Getty Images Anindito Mukherjee

पिछले दिनों एक अखबार ने रिपोर्ट दी थी कि प्रिंट मीडिया यानी अखबारों में विज्ञापन से होने वाली कमाई में बढ़ोत्तरी हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में जहां प्रिंट मीडिया की एडवरटाइजिंग 12,000 करोड़ रुपए थी वहीं 2021 में यह बढ़कर 16,000 करोड़ रुपए हो गई। और इस साल यानी 2022 के लिए अनुमान है कि यह बढ़कर 18,000 करोड़ रुपए हो जाएगी। रिपोर्ट बताती है कि कुल एडवरटाइजिंग में अखबारों और पत्रिकाओं की हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी है। दूसरे देशों के मुकाबले यह काफी अधिक है, क्योंकि वहां विज्ञापनों में अखबारों और पत्रिकाओं की हिस्सेदारी मात्र 5 फीसदी है, क्योंकि उन देशों में अखबार दम तोड़ रहे हैं।

ये सारी खबरे अच्छी लगती हैं, लेकिन इस रिपोर्ट में जो नहीं बताया गया वह यह कि 2022 में अखबारों को मिलने वाले विज्ञापन का स्तर उतना ही होगा जितना कि 2019 में था। आंकड़ों को देखें तो 2005 में प्रिंट मीडिया यानी अखबार और पत्रिकाओं को कुल विज्ञापन का 53 फीसदी मिला था। लेकिन 2022 में अनुमान है कि डिजिटल मीडिया को 45 फीसदी और टीवी को 40 फीसदी एडवरटाइजिंग मिलेगी। प्रिंट और रेडियो और आउटडोर यानी होर्डिंग आदि के हिस्से में इसमें से बचा हुआ भाग ही आएगा जो कि जाहिर है बहुत अधिक नहीं है।

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वैसे यह कोई ऐसी बात नहीं है जो भारत के संदर्भ में अनूठी हो। अमेरिका में भी प्रिंट मीडिया को मिलने वाले विज्ञापनों में करीब आधे की कमी दर्ज की गई है। हालांकि अमेरिका भारत के मुकाबले कहीं अधिक बड़ा बाजार है, फिर भी वहां कुल एडवरटाइडिंग का बजट 2017 के 20 अरब डॉलर (करीब 1,60,000 करोड़ रुपए) से घटकर इस साल आधा हो गया है। इसमें हर साल कमी ही दर्ज हो रही है। इस दौरान न्यूजप्रिंट यानी अखबारी कागज के दामों में बढ़ोत्तरी हुई है। यह पहलू महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में तो पाठक अखबार की लागत का पांचवा हिस्सा ही चुकाते हैं और बाकी की भरपाई यानी करीब 80 फीसदी खर्च विज्ञापनों से ही पूरा होता है।

सवाल है कि आखिर इस स्थितिसे कैसे निपटें और क्या करें। आसान सा जवाब होगा कि अगर भारत की अर्थव्यवस्था में अगले कुछ सालों में अच्छे संकेतच मिलते हैं तो अखबारों और पत्रिकाओं को चिंता करने की जरूरत नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि जो कंपनियां लोगों को उपभोक्ता उत्पाद और सेवाएं बेच रहे हैं उन्हें एडवरटाइजिंग भी अधिक करनी होगी। लेकिन अगर तरक्की की रफ्तार कमजोर रही तो फिर यह पैसा प्रिंट के पास नहीं आएगा और लंबी अवधि में इसमें गिरावट का रुख बना रहेगा।

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दरअसल यह एक चिंताजनक स्थिति है। जो लोग समझते हैं कि पत्रकारिता कैसे होती है उन्हें पता है कि पत्रकारों की अधिक संख्या प्रिंट मीडिया से ही जुड़ी है। मिसाल के तौर पर मेरी आखिरी नौकरी एक गुजराती अखबार में थी, जहां 300 पत्रकार या रिपोर्टर काम करते थे। वे पूरे राज्य में, उसके शहरों में फैले हुए थे और उनकी रेगुलर बीट थीं, यानी कौन सा रिपोर्टर किस क्षेत्र की यानी कार्पोरेशन, शिक्षा, अपराध आदि की खबरें कवर करेगा। लेकिन टेलिविजन के मामले में ऐसी व्यवस्था नहीं होती है। न्यूज चैनलों में न तो ऐसी व्यवस्था होती है और न ही इतनी बड़ी संख्या में उन्हें रिपोर्टर की जरूरत होती है। इन चैनलों को अखबारों की तरह खबरों को कवर करने की भी जरूरत नहीं होती है।

न्यूज चैनलों की खुराक तो अधिकतर टीवी डिबेट से ही पूरी हो जाती है। इन डिबेट में बैठने वाले राजनीतिक नेता, विशेषज्ञ आदि ही उसे कंटेंट यानी उसके मुताबिक समाचार सामग्री मुहैया करा देते हैं। अगर आपको जानना है कि आपके स्थानीय सरकारी स्कूल में या अस्पताल में या लोकल कोर्ट में क्या कुछ हो रहा है, इसके लिए आपको अखबार देखने की ही जरूरत है।

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यह सच है कि कुछ अच्छी वेबसाइट इस दौरान सामने आई है और कुछ इस किस्म की पत्रकारिता कर रहे हैं जैसी कि इससे पहले कभी नहीं की गई। लेकिन वे अखबारों की तरह उतने व्यवस्थित नहीं हैं और न ही उनके पास अखबारों या न्यूज चैनलों की तरह पत्रकारों की संख्या है। अगर आप देश में पत्रकारों की जनगणना करेंगे (निश्चित ही दक्षिण एशिया के लिए होनी चाहिए) तो आपको स्पष्ट हो जाएगा कि पत्रकारों की बड़ी जमात प्रिंट से ही जुड़ी हुई है और इनमें अधिकतर रिपोर्ट हैं।

और अब एक और तथ्य देखें कि प्रिंट मीडिया में एडवरटाइजिंग में कमी के साथ ही रोजगार के मौके भी कम हो रहे हैं। सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि मीडिया और पब्लिशिंग क्षेत्र में भारत में काम करने वाले लोगों की संख्या सितंबर 2016 में 10 लाख से कुछ ऊपर ही थी। लेकिन अगस्त 2021 में यह संख्या गिरकर 2.3 लाख पर आ गई है। यह रुझान उसी तरह का है जैसा कि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में देखने को मिला है जहां रोजगार के मौके घटकर आधे रह गए हैं।

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जो लोग मीडिया में काम करते हैं उन्हें ये आंकड़े नहीं चौंकाएंगे क्योंकि उनके सामने ही उनके कई साथी नौकरी से बाहर गए हैं और कई प्रकाशन बंद हुए हैं। बड़ा सवाल है कि आखिर पत्रकारों की संख्या में कमी हमारे लोकतंत्र के लिए क्या संकेत देती है। सरकार के बारे में तथ्यात्मक रिपोर्ट का सबसे बड़ा स्त्रोत प्रिंट रिपोर्टिंग ही है। इसे किसी और माध्यम से नहीं बदला जा सकता। भले ही टीवी की पहुंच और डिजिटल मीडिया की पहुंच बढ़ रही हो लेकिन उन्हें अखबारों की जगह नहीं दी जा सकती। अखबार दरअसल समाज की सेवा का एक माध्यम हैं जो जनहित में काम करते हैं।

किसी सरकार के कामकाज और सरकारी संस्थाओं के प्रदर्शन से जुड़ी बुनियादी सूचनाएं ही अगर सामने नहीं आएंगी तो हमारे लोकतंत्र को क्या होगा? क्या होगा जब नागरिकों को पता ही नहीं होगा कि स्कूलों, अस्पतालों, पुलिस थानों और सरकारी दफ्तरों में क्या चल रहा है और फिर इन सूचनाओं के बिना वे सरकार को कैसे जिम्मेदार या जवाबदेह बनाएंगे?

जब हम प्रिंट मीडिया यानी अखबारों की कमजोर होती स्थिति पर नजर डालेंगे तो हमें इन सवालों को ध्यान में रखना होगा, क्योंकि ऐसा पहले टीवी में हो चुका है और अब डिजिटल की बारी है।

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