अमेरिकी चुनावों में डोनाल्ड ट्रम्प की आश्चर्यजनक जीत के बाद अमेरिका के एकमात्र प्रतिद्वंद्वी चीन के साथ अमेरिकी रिश्तों पर ध्यान केंद्रित हो गया है।
ट्रंप ने आठ साल पहले भी चीन को अमेरिका के लिए सबसे प्रमुख खतरा माना था और उसकी आर्थिक प्रगति रोकने के लिए काफी कुछ किया था। उन्होंने टैरिफ में फेरबदल कर चीन की अमेरिका के बाजार तक पहुंच को रोकने की कोशिश की थी। यह कोशिश कुछ हद तक कामयाब भी रही, और ट्रंप द्वारा तय टैरिफ को जो बाइडेन ने भी जारी रखा।
मेक्सिको इस साल चीन को पछाड़कर अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया। इससे पहले चीन एक दशक से पहले नंबर पर था। इसमें संदेह नहीं कि अमेरिका को मेक्सिको का ज़्यादातर निर्यात शुरू में चीन से ही होता था, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि चीन को दरअसल कितना नुकसान हुआ है। बाइडेन ने चीन की आर्थिक प्रगति को रोकने की लिए अगला कदम उठाते हुए एडवांस माइक्रोचिप और उन्हें डिज़ाइन करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मशीनरी तक उसकी पहुंच पर रोक लगा दी। बाइडेन के इस कदम को चीन की सैन्य क्षमता से जोड़कर देखा गया, लेकिन असली वजह तो चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत ही है। अमेरिका के इस कदम के जवाब में चीन ने इस जैसी चीज़ों का खुद ही विकास शुरू कर दिया और विशेषज्ञों का अनुमान है कि वह अमेरिका से कुछ ही साल पीछे है और किसी भी समय वह उससे आगे निकल जाएगा।
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इलेक्ट्रिक वाहनों और सौर ऊर्जा पैनलों सहित स्वच्छ ऊर्जा में चीन अब तक विश्व में शीर्ष पर है। इसका मतलब है कि चीन के उत्पादों की कीमत प्रतिस्पर्धी है और कई मामलों में उसके उत्पाद यूरोप और अमेरिका में बने उत्पादों से गुणवत्ता में बेहतर हैं। टेस्ला के मालिक एलन मस्क का खुद कहना है कि उनके चीनी प्लांट में तैयार कारें कंपनी द्वारा बनाई गई सर्वश्रेष्ठ कारें हैं। लेकिन चीन में लोकल ब्रांड्स द्वारा चीन में डिजाइन की गई कारों के बारे में भी माना जाता है कि वे दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कारें हैं और सस्ती कीमत पर उपलब्ध हैं।
दूसरी तरफ अमेरिका अभी भी ऐसी कारों और ट्रकों में ही अटका है, जो पेट्रोल से चलते हैं और यह एक सनसेट इंडस्ट्री है। अमेरिका की बड़ी ऑटो कंपनी फोर्ड और जनरल मोटर्स के लिए आज न केवल प्रतिस्पर्धा करने बल्कि अपना अस्तित्व बनाए रखने का एकमात्र तरीका टैरिफ और अन्य रुकावटों के माध्यम से चीनी कारों को रोकना है।
संभवतः दो ऐसे कारण हैं जिनके चलते ऐसा ज़्यादा समय तक नहीं चलेगा। पहला कारण उपभोक्ता हित है और रणनीतिक कारणों से लोगों को सस्ते विकल्प न देना है जो किसी तरह लोकप्रिय कदम नहीं है। और दूसरा कारण यह है कि इलेक्ट्रिक वाहन भविष्य हैं और भले ही उन्हें अनिवार्य न किया जाए, वे पेट्रोल से चलने वाले वाहनों की जगह ले ही लेंगे।
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चीन की अर्थव्यवस्था अब अमेरिकी अर्थव्यवस्था (18-26 ट्रिलियन डॉलर) के आकार का दो तिहाई ही है और पूरे यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था के बराबर है। अगले 10 वर्षों में, चीन अमेरिका की बराबरी करने के करीब पहुंच जाएगा। किसी अन्य देश ने अभी तक ऐसा नहीं किया है या ऐसा करने के नजदीक भी नहीं पहुंचा है। विखंडन से पहले तक सोवियत संघ भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था के आकार का एक चौथाई ही था। लेकिन वह बहुत अलग समय था और रूसियों का कभी भी प्रमुख क्षेत्रों में चीन पर प्रभुत्व नहीं था। चीन दुनिया का सबसे बड़ा मैन्यूफैक्चरर और दुनिया के सभी उत्पादों का एक तिहाई हिस्सा चीन में ही बनता है।
बीते डेढ़ दशक के दौरान हालांकि चीन में मजदूरी में कई गुना इजाफा हुआ है, फिर भी ऐसा हुआ है। ऐसा नहीं है कि चीन के निर्यात में उछाल सिर्फ सस्ती मजदूरी के चलते ही हुआ हो।
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कोविड के दौरान चीन की आर्थिक वृद्धि में सुस्ती आई थी, लेकिन फिर भी वह एक मजबूत अर्थव्यवस्था बना रहा। चीन फिलहाल अमेरिका से दोगुना रफ्तार से वृद्धि कर रहा है, और 29 नवंबर को जारी ताजा आंकड़ों को देखें तो इसकी रफ्तार भारत के बराबर ही है, लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था का आकार भारत से पांच गुना बड़ा है।
ऐसे में अमेरिका के लिए उसके उदय को रोकना आसान नहीं होगा, और जिस गति से चीन ने उन्नति की है, उसे देखते हुए, शायद इसी दशक के भीतर ही इसका नतीजा भी सामने आ जाएगा।
आज की भू-राजनीति में यही पहला सवाल और मुख्य मुद्दा है कि चीन को उसकी बराबरी करने से रोकने के लिए अमेरिका क्या कर सकता है? अगर कुछ खास नहीं है, तो जब चीन अमेरिका के बराबर हो जाएगा और उसके तुरंत बाद दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बन जाएगा, तो दुनिया का क्या होगा? हम दोनों सवालों का जवाब खोजते हैं।
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कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर, चीजें शायद खुद ही बदल जाएंगी। जैसे कि अमेरिका और उसके सहयोगी पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में जो कुछ करते आए हैं, वैसा शायद उतनी शिद्दत से नहीं कर पाएंगे। चीन दावा करता है कि वह किसी के मामले में दखल नहीं देता है, और शायद आने वाले समय में ऐसा ही साबित हो, लेकिन फिर भी चीन पहले कभी भी एक जुड़ी हुई दुनिया में प्रमुख शक्ति नहीं रहा है।
वैसे तो हम दुनिया के सबसे बड़े राष्ट्र हैं, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे मामलों में हमारी भूमिका सीमित है। हम मूकदर्शक हैं क्योंकि हम वह करने में कामयाब ही नहीं हो सके जो चीन ने किया है। 1990 में, भारत और चीन दोनों ही अर्थव्यवस्थाएं प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में एक ही आकार की थीं (विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत थोड़ा आगे ही था)। आर्थिक उदारीकरण के साढ़े तीन दशक और मोदी के नेतृत्व में एक दशक में कोई बदलाव नहीं हुआ है। 2014 में चीन की प्रति व्यक्ति जीडीपी 7600 अमेरिकी डॉलर थी और हमारी 1559 अमेरिकी डॉलर थी। एक दशक बाद चीन 12614 पर है और हम 2400 पर हैं।
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किसी भी मामले में, अब हमारे पास शब्दों के अलावा चीन से प्रतिद्वंद्विता करने की महत्वाकांक्षा ही नहीं है। भू-राजनीति के परिदृश्य में भारत का उतना ही संदर्भ है जितना कि यूनाइटेड किंगडम या फ्रांस का हो सकता है। दोनों ही सत्ता में हैं और दोनों ही सार्थक अर्थ में प्रासंगिक नहीं हैं। भारत भी ऐसा ही है। यह एक ऐसे देश के लिए शर्म की बात है जिसमें इतनी क्षमता है और जिसे लेकर कुछ साल पहले तक बहुत उम्मीदें थीं।
दूसरी ओर, हम आपस में ही लड़कर खुश हैं और वास्तविक विकास के विकल्प के रूप में सदियों पुराने विवादों को खोदकर निकाल रहे हैं। वर्तमान और भविष्य को तो ऐसे में इंतज़ार ही करना होगा, क्योंकि हम तो अतीत को दुरुस्त करने में लगे हैं।
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