विचार

कौन हैं वे लोग जो आम्बेडकर को संविधान निर्माता मानने को तैयार नहीं !

आखिर क्यों दलितों का नेता बीजेपी को पसंद नहीं, अलबत्ता वह अपने दक्षिण टोले के लिए दलित नेता चाहती है?   

संविधान सभा की 1947 की फोटो। पहली पंक्ति में बीच में डॉ आम्बेडकर (फोटो - विकिपीडिया)
संविधान सभा की 1947 की फोटो। पहली पंक्ति में बीच में डॉ आम्बेडकर (फोटो - विकिपीडिया) 

हाल के दिनों में बीजेपी नेताओं में डा. भीमराव आम्बेडकर के नाम से चिढ़ के कई उदाहरण सामने आए हैं। संसद में अमित शाह ने पहले इस चिढ़ का उदाहरण पेश करते हुए कहा था, ‘आम्बेडकर...आम्बेडकर की रट लगाए रहते हो, अगर भगवान का नाम लिया होता तो सात जन्मों का स्वर्ग सुनिश्चित हो जाता...।’ इसी तरह केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर ने हाल में कहा कि ‘डा. आम्बेडकर को जबरदस्ती संविधान बनाने का श्रेय दिया जाता है।‘

दरअसल इसके मूल में बीजेपी यह चिढ़ दलितों के नेताओं को लेकर है। बीजेपी नेता कहते हैं कि उन्हें दलित नेता तो चाहिए लेकिन दलितों का या दलितों के नेता नहीं चाहिए। दलितों का हर वह नेता बीजेपी के निशाने पर होता है जो महज दलित नेता से आगे की बात करता है। डा. आम्बेडकर को संविधान बनाने का श्रेय देने के खिलाफ शुरु किया गया अभियान इसी सिलसिले की एक कड़ी है।  

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय गणराज्य का संविधान डॉ. आम्बेडकर के नेतृत्व में बना है। संविधान के शिल्पकार के रूप में डॉ आम्बेडकर को स्वीकार करने का सच भावनात्मक नहीं है। संविधान सभा की बैठक में जिन लोगों की संविधान बनाने में जैसी भूमिका थी, उसका उल्लेख पढ़ने को मिलता है। उसे सुनने और देखने की सुविधा भी तकनीक ने बना दी है। डॉ आम्बेडकर ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे। इसका अर्थ है कि जिस कमेटी ने संविधान का दस्तावेजी ढांचा तैयार किया उसके वे मुखिया थे।

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अब इसी ऐतहासिक सच के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है। वैसे यह कोई पहली कोशिश नहीं है। दक्षिणपंथ की विचारधारा का इतिहास डा. आम्बेडकर को अस्वीकार करने का रहा है। भारत में दक्षिणपंथ की विचारधारा की अगुवाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) करता है। संघ तो संविधान का  शुरू से ही विरोधी रहा है और तिरंगे का भी मानने से इनकार करता रहा है। वैसे अब संघ अपने मुख्यालय पर तिरंगा झंडा भी लगाता है और डॉ आम्बेडकर का नाम भी लेता है। लेकिन ये सब दिखावटी है और इसका कतई अर्थ नहीं है कि संघ का संविधान विरोध और डॉ आम्बेडकर को लेकर नापसंदगी खत्म हो गई है।

दक्षिणपंथी खेमे से का नया अभियान कि डॉ आम्बेडकर संविधान के निर्माता नहीं है, उसके विचारों का ही विस्तार है। संघ और बीजेपी अब बेनेगल नरसिंह राउ का नाम संविधान निर्माण के नेतृत्व कर्ता के रूप में लेता है। लेकिन सच यह है कि संविधान सभा की बैठक में मौजूदा संविधान के ढांचे को पेश करते वक्त बेनेगल नरसिंह राउ ने खुद कहा है कि संविधान बनाने में उनकी क्या भूमिका रही है और डॉ आम्बेडकर के नेतृत्व में किस तरह इसे अंजाम दिया गया है। डॉ अम्बेडकर ने भी बेनेगल नरसिंह राउ की भूमिका के बारे में कहा है कि उनके बिना संविधान का काम पूरा नहीं हो सकता था। यह उस जमाने की भाषा है जिसमे एक दूसरे की भूमिका के सम्मान का यह तरीका था।

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मिसाल के लिए इसे इस तरह से समझा जा सकता है। जैसे संसद में जो विधेयक प्रस्तुत किए जाते हैं , उसकी एक ड्राफ्टिंग का ढांचा नौकरशाह तैयार करता है। यह एक लंबी प्रक्रिया होती है। उस ड्राफ्टिंग से पहले नौकरशाही को एक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक मांग के अनुरुप विधेयक के महत्व का प्रारुप प्रस्तुत किया जाता है। नौकरशाही के जरिये तैयार विधेयक के ढांचे को राजनीतिक , सामाजिक दस्तावेज के रुप में आखिरकार राजनीतिक नेतृत्व तैयार करता है।

डॉ आम्बेडकर को संविधान बनाने का नेतृत्व सौंपना एक राजनीतिक फैसला था। महात्मा गांधी की इसमे भूमिका थी। संविधान भारतीय गणराज्य का एक राजनीतिक दस्तावेज है। उसकी पहचान ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति और  भारतीय समाज में समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे से जुड़ी है। दक्षिणपंथी विचार धारा में समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे का नजरिया होता ही नहीं है।

आइए तलाशते हैं कि आखिर दक्षिणपंथियों को डॉ आम्बेडकर को संविधान निर्माता के रुप में स्वीकार्य करने में समस्या क्या है? आखिर वह क्या कारण है कि जब डॉ आम्बेडकर को संविधान निर्माता कहा जाता है तो उसे चोट क्यों महसूस होती है?

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एक सच्ची घटना का यहां उल्लेख करना जरूरी लगता है। जब 2004 से पहले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार दक्षिणपंथी विचारों को मानने वाली पार्टी को केन्द्र सरकार चलाने के लिए संसद में संख्या पूरी हुई थी, तब उस मंत्रिमंडल में एक शिक्षित दलित सांसद को जगह दी गई थी। दलित पृष्ठभूमि के सांसद की राजनीतिक पृष्ठभूमि यह थी कि वे दलितों के बीच में उनकी दशा-दिशा बेहतर करने की गतिविधियों में सीधे तौर पर जुड़े थे। लेकिन संसद सदस्य बनने की व्यक्तिगत महत्वकांक्षा उन्हें भारतीय जनता पार्टी की तरफ ले आई थी।

उन्हें लगा था कि वे भारतीय जनता पार्टी की सरकार में शामिल होकर दलितों का ज्यादा भला कर देंगे। दलित कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने और उत्साहित करने में सक्रिय हो गए। चंद दिनों बाद ही उनके पास उनके वरिष्ठ मंत्री का बुलावा आ गया। उस वरिष्ठ मंत्री ने दलित सांसद और मंत्री को समझाते हुए चेतावनी दी कि उनकी पार्टी में दलित नेता तो ठीक है, लेकिन दलितों का नेता उन्हें स्वीकार्य नहीं हो सकता है। वे चाहे तो दलित नेता के रुप में पार्टी और सरकार में बने रह सकते हैं। इस घटना के बाद उन्हें समझ में आया कि दलित नेता और दलितों के नेता के रुप में बुनियादी फर्क है। वे अपने राजनीतिक जीवन में यह प्रयास करते रहे कि उन्हें किसी ऐसे लोकसभा क्षेत्र से पार्टी की तरफ से उम्मीदवार बनाया जाए जो असुरक्षित यानी सामान्य़ सीट मानी जाती है।

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इस उदाहरण से काफी हद तक समझा जा सकता है कि डॉ आम्बेडकर को संविधान निर्माता मानने में संघ को क्या परेशानी है। दरअसल जब डॉ आम्बेडकर को संविधान निर्माता कहा जाता है तो दलित यानी वंचित वर्गों के बीच एक तरह का भाव बनता है, उनके भीतर उत्साह और आत्मबल भरता है। इतना ही नहीं जब संविधान निर्माता के रुप में उन्हें आम्बेडकर को याद किया जाता है तो वह महसूस करता है कि उसने अपने अधिकारों को स्वयं हासिल किया है। दलितों की राजनीतिक चेतना को इससए एक ठोस और मजबूत आधार मिलता है।

दूसरा सवाल कि संविधान से जुड़ी इस सच्चाई को दूसरी तरफ मोड़ने का क्या कारण हो सकता है। एक तो यह कि अगर डॉ आम्बेडकर दलित पृष्ठभूमि से नहीं होते तो इस तरह के किसी भी अभियान की जरुरत नहीं होती है। किसी अभियान से सच की जगह आस्था को बैठाने में दक्षिणपंथ की विचारधारा को सहूलियत लगती है क्योंकि वह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर वर्चस्व रखने वालों को किसी सच के खिलाफ संगठित कर सकता है। फिर वर्चस्ववादी है तो उग्रता और आक्रमण उसका हक बन जाता है।

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दरअसल किसी दूसरे नाम को संविधान निर्माता के शीर्षक में डालने का मकसद उस भाव को रौंदना है जिसमें हक हकूक को स्वयं हासिल करने का बोध तैयार होता है। दक्षिणपंथी विचारधारा या कहें कि वर्चस्ववाद की विचारधारा का यह मकसद वंचितों को यह एहसास कराना है कि उन्हें जो भी अधिकार मिलें है वह उनके लिए बहाल किए गए हैं। जैसे दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग दान पुण्य देने को सबसे बड़ा उपकार मानते हैं। वे अधिकार देने के भाव को दान पुण्य के रुप में ही देखते हैं। जबकि संविधान अधिकार हासिल करने की चेतना पैदा करता है।

दलित नेता और दलितों के नेता में जिस तरह से बुनियादी राजनीतिक फर्क है उसी तरह से अधिकार हासिल करने की चेतना और अधिकार बहाल करने के नजरिये में फर्क है।

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