
व्यापार युद्ध कैसे समाप्त होते हैं? इसका उत्तर पाने के लिए हमें खुद से पूछना होगा कि युद्ध कैसे समाप्त होते हैं? और इसका जवाब यह है कि एक बार शुरू होने के बाद उन्हें समाप्त करना आसान नहीं होता।
ज्यादातर समय, व्यापार और कूटनीति आम लोगों की नजरों से दूर ही होती है। ऐसा सिर्फ गोपनीयता के कारण नहीं होता, बल्कि इस कारण भी होता है कि इनका विस्तृत विवरण बहुत उबाऊ होता है और खबरों की बहसों में इसे लेकर दिलचस्पी बहुत कम होती है। डेयरी उत्पाद, सोया और ऑटो स्पेयर पार्ट्स पर देश दूसरे से क्या शुल्क लेता है, और इसके बदले में क्या शुल्क देना चाहिए, यह जानकारी बहुत ज्यादा रोमांचित नहीं करती है। इसी तरह, नेताओं के बीच 'शिखर सम्मेलन' बैठकों का तमाशा होता है, हालांकि असली बात तो देशों के आपसी विवादों को सुलझाने के लिए राजनयिकों के बीच की बातचीत या मोल-भाव होती है, लेकिन आकर्षण का केंद्र यह बहसें नहीं बल्कि आयोजन का तमाशा होता है।
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इन बैठकों के बाद भी सबकुछ तय नहीं होता और असहमतियां बनी रह जाती हैं, लेकिन आमतौर पर जो तय होता है,वह है पहले जैसी स्थिति बनाए रखना। हिंसा का रास्ता अपनाने की बात होना तो बहुत दुर्लभ होता है।
लेकिन जब ऐसी स्थिति आती है, तो फिर इसे काबू में करना आसान नहीं होता। इसका कारण यह है कि जो पक्ष इसे शुरू करता है, वह अकेला ऐसा पक्ष नहीं होता जिसके पास ऐसा करने का कारण होता है। दूसरे देश की प्रतिक्रिया, उसका समय, उसकी तीव्रता और उसकी प्रभावशीलता का अनुमान लगाना असंभव है। याद है मशहूर बॉक्सर माइक टायसन ने क्या ही खूबसूरती से कहा था: 'हर किसी के पास एक योजना होती है जब तक कि उसके चेहरे पर मुक्का न पड़ जाए'।
युद्ध या तो तब समाप्त होते हैं जब दोनों पक्षों का बहुत कुछ (नुकसान) हो चुका होता है, और वे इससे ज्यादा अधिक नुकसान उठाने के लिए तैयार नहीं होते। या फिर तब समाप्त होते हैं जब एक पक्ष इतना मजबूत हो जाता है कि दूसरे को मजबूर कर सके। बिल्कुल स्कूल में बड़े बच्चे और छोटे बच्चे के बीच लड़ाई की तरह। छोटे बच्चे के पास हार मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।
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लेकिन इस मिसाल के उलट, युद्धों और व्यापार युद्धों में एक और तत्व होता है जिसके कारण उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल होता है और उनके बढ़ने की भविष्यवाणी करना असंभव होता है। यह है राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्रीय अस्तित्व। यही कारण है कि व्यापार और कूटनीति तब काम करती है जब वे जनता की नज़रों से दूर रखी जाए। लेकिन जब यह जन चर्चा का हिस्सा बन जाती है और जनता भी इसमें भागीदार बन जाती है, तब दूसरे पक्ष धोखा दिए जाने पर अपने नेताओं की बयानबाजी से आक्रोशित हो जाती है, ऐसे में सब कुछ बदल जाता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति कहते हैं कि वे चीन को टैरिफ लगाकर सजा दे रहे हैं और फिर उसे चेतावनी देते हैं कि वह जवाबी कार्रवाई न करे क्योंकि वे और भी कड़ी सजा दे सकते हैं। लेकिन चीन प्रतिक्रिया के तौर पर अमेरिका पर तुरंत वही टैरिफ लगा देता है। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि टैरिफ का नुकसान इसे लगाने वाले देश को दंडित करता है क्योंकि उसके उपभोक्ता ही आयात शुल्क को चुकाएंगे।
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मुद्दा यह नहीं है। इसे व्यापार युद्ध कहा जाता है क्योंकि यह ऐसा युद्ध है जिसमें गोला-बारूद इस्तेमाल नहीं हो रहा। लेकिन इसका असर असली है क्योंकि एक पक्ष दूसरे को सक्रिय रूप से नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है और दूसरा भी जवाब देने को मजबूर हो रहा है।
कनाडा पर टैरिफ लगाने के बाद ट्रम्प ने लिखा: 'प्लीज कनाडा के गवर्नर ट्रूडो को समझाएं कि जब वह अमेरिका पर जवाबी टैरिफ लगाएंगे, तो हमारा पारस्परिक टैरिफ भी तुरंत उतनी ही मात्रा में बढ़ जाएगा!'
कनाडा ने इसका जवाब दिया और अब चीन ने भी जवाब सामने रख दिया है। ट्रम्प के पास विकल्प हैं कि या तो वह वही करें जो उन्होंने कहा था, यानी उन पर और टैरिफ लगाएं। अगर वह पहला कदम उठाते है, तो यह तो बढ़ता ही जाएगा और फिर यह बेकाबू हो जाएगा, अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें हारते हुए देखा जाएगा और उनकी विश्वसनीयता दांव पर लग जाएगी। यही कारण है कि एक बार युद्ध शुरू हो जाने के बाद उसे खत्म करना मुश्किल होता है।
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यही कारण है कि यह व्यापार युद्ध कुछ समय तक हमारे सामने होता रहेगा। और भारत में हमें इस पर चिंता करनी चाहिए। हमने देखा है कि 2004 से 2014 के बीच भारत ने बड़े पैमाने पर तेज़ी से विकास किया क्योंकि उस दशक में भारत का माल निर्यात लगभग 50 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष से बढ़कर लगभग 320 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष हो गया था। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि उस दौरान वैश्विक व्यापार में तेजी थी। लेकिन फिर वैश्विक वित्तीय संकट के बाद व्यापार स्थिर हो गया, तो हमारी वृद्धि भी धीमी हो गई।
आज, 10 साल बाद व्यापारिक निर्यात 400 बिलियन डॉलर या उससे भी ज़्यादा है, जिसका मतलब है कि विकास की तेज़ दर खत्म हो गई है। इसका मतलब यह भी है कि बढ़ता वैश्विक व्यापार भारत के लिए अच्छा है और व्यापार युद्ध हमारे लिए खतरनाक और भयानक। इस कारण से यह महत्वपूर्ण है कि भारत कम से कम इस समस्या को हल करने का प्रयास करने में सामने आए।
आशावादी होने के कुछ कारण होते हैं। लोकतांत्रिक देश आमतौर पर खुद को सुधारने की प्रवृत्ति रखते हैं, और अमेरिका तो और भी ज़्यादा सक्रिय रहता है। इसकी संसद ऐसे सांसदों से चलती है, जिन्हें हर दो साल में चुनाव का सामना करना पड़ता है। अगर अगले कुछ हफ़्तों और महीनों में टैरिफ़ के नुकसान सामने आते हैं, और जनता की बेचैनी बढ़ती है, तो नवंबर 2026 में चुनाव लड़ने वाले लोग अपने राष्ट्रपति पर उनके द्वारा पैदा की गई अशांति को कम करने के लिए दबाव डालना शुरू कर देंगे। भले ही राष्ट्रपति का यह कदम लंबी अवधि में कारगर साबित हो, लेकिन यह दबाव इसे खत्म कर सकता है।
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इस आत्म-सुधार नियम का एक अपवाद है और वह युद्ध के लिए है। अमेरिका का इतिहास दिखाता है कि वह गलत काम करना जारी रखेगा और युद्ध जारी रखेगा, भले ही उसे इसका खुद ही नुकसान उठाना पड़े। दुनिया वियतनाम और इराक युद्ध में ऐसा देख चुकी है। अफगानिस्तान में भी, अमेरिका के गलत कदम जारी रहे और उसने वहां घुटने टेकने से पहले 20 साल तक उससे कोई सबक नहीं सीखा, इसके बजाए उसने खुद को वहां बनाए रखा, विरोधियों को दंडित किया। अफगानिस्तान में अमेरिकी मौजूदगी से अमेरिकी जनता को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था क्योंकि उन्हें लगता था कि राष्ट्रहित में शायद यही सही है।
और इस समय हम सिर्फ उम्मीद कर सकते हैं कि ट्रम्प के व्यापार युद्ध के लिए यह बात उतनी सत्य नहीं है जितनी वास्तविक युद्ध के लिए।
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